मैं बाबा की बात समझ रहा हूँ फिर भी चुप हूँ। मैं पक्ष या विपक्ष में बोलना नहीं चाहता। अचानक बाबा की आंखों में निराशा के चित्र अंकित होने लगते हैं। मेरे हार जाने पर उन्हें हार्दिक दुख होने लगता है। मैं यह सब सह नहीं पा रहा हूँ। एक चतुर चितेरे की तरह बाबा ही बात पलट देते हैं।

“लगता है तुम अपने दोस्तों से मिलने तक नहीं गए हो? भाई, कुछ एक का फोन आया था सो मैंने कह दिया था ..”

बाबा रुके हैं। वो भी नहीं चाहते कि मेरे जेल जाने की बात दोहराई जाए।

“बाहर निकलो। मिलो जुलो और थोड़े हास-परिहास से मन बदल जाता है।” कहकर वो अपने कमरे में चले गए हैं।

घर – जिसे मैं अपना समझ कर वापस आया था, फिर एक बार बेगाना लग रहा है। मन फिर कहीं भाग जाना चाहता है। मैं स्वयं नहीं जानता कि क्या करूं। हां, मुझे करने के लिए कुछ जरूर चाहिए – एक दम ठोस काम जिससे कुछ सत्य उपजे। तभी शायद मैं अपने इस मन को भरमा पाऊंगा। अब बाबा की बात मानकर मैं टेलीफोन पर जमा हूँ।

“हैलो! पहचाना? बहुत खूब। हां बिलकुल ठीक हूँ।”

“कब छूटे? कैसा लगा? अनुभव .. बहुत खूब!”

“हैलो .. हां! कब लौटे?”

“कब लौटा? बस समझ लो कि लौट आया!”

“आ जाओ ना?”

“बस आया!” कहकर मैं पल भर अपने आप को ऊपर से नीचे तक देखने लगा हूँ।

मुझमें तो कुछ भी नहीं बदला। फिर लोगों की आवाजें क्यों कर कान में बदली बदली लग रही हैं? विशेष ध्यान न देकर मैं बाहर भाग चला हूँ। वही दोस्तों से मिलने की बेचैनी है। उतावलापन है। चपल हंसी और लापरवाही आकर मुझे अपने आगोश में लेने लगी है!

“हैलो .. बॉइज ..” मैंने अंदर प्रवेश किया है। शैल के घर पर ही पार्टी जमी है। सबने आंख उठा कर मुझे घूरा है। मैं भी पल भर रुक गया हूँ ताकि सभी मुझे नजर भर कर देख लें।

“हाय लीडर!” बानी ने पहल की है। उसके चेहरे पर एक विषैली मुसकान फैली है।

“हैलो मॉडर्न गांधी!” शैल ने भी तरकस से तीर सीधा निकाल कर मेरे सीने में भेद दिया है। एक बेधक वेदना मेरा अंतर चीर गई है।

“बाई द वे! जेल की कहानी सुनाओ यार!” गुमनाम ने हंस कर आग्रह किया है।

मैं आगे बढ़ गया हूँ। सारा उपहास पी गया हूँ। अपना मूल्यांकन खुद करके अपने सभी दोस्तों को समझाना चाहता हूँ कि आगे बढ़ना कितना सार्थक है और काले पैसे के साथ कालिख पोत कर जीना कितना व्यर्थ है।

“जेल जाने से आत्मा शुद्ध हो जाती है। जो लोग परोक्ष के लिए यातना सहते हैं वो महान बनते हैं। जेल जाने में भी एक चार्म है, लर्निंग है और ..”

“फिर तो हम सब को वहीं चलना चाहिए?” गुमनाम ने हंस कर व्यंग किया है। सभी खिलखिलाकर हंस पड़े हैं। खूब हंसे हैं। लेकिन मैं नहीं हंस पा रहा हूँ।

शैल ने रुक कर जोर से पुकारा है – परोपकारी की .. जय!

फिर वही अट्टहास की हंसी मेरा कलेजा दहला गई है।

एक बहुत बड़ा अनादर हो रहा है। धक्के पड़ रहे हैं और सारे के सारे दोस्त मुझसे बदला सा चुका रहे हैं। अंदर से मेरी आत्मा अब मुझे धिक्कार रही है। गैरत ललकार कर मुझे प्रतिशोध के लिए बाध्य कर रही है। हाथ शैल के गाल पर पड़ कर उसे मजा चखा देना चाहता है, जबान मोटी मोटी गालियों से सब का कर्जा उतार कर ऋण से मुक्त हो जाना चाहती है। मैं ये सब करने में समर्थ भी हूँ पर कर नहीं पा रहा हूँ। मैं अपनी सहन शक्ति की परीक्षा कर रहा हूँ। ये धैर्य और समस्याओं का सहज निराकरण मैं शायद शीतल जी से अंजाने में सीख गया हूँ।

“अरे कमीनों! अभी तक कुर्सी नहीं डाली लीडर के लिए!” शैल ने चीख कर कहा है।

“बैठिए न महाशय!” गुमनाम ने दांत दिखा कर व्यंगात्मक ढंग से आग्रह किया है।

“धन्यवाद!” कहकर मैं कुर्सी पर बैठ गया हूँ।

“हां तो दोस्तों – इन्होंने कारनामे किए और जेल गए, ये तो सर्व विदित है। अब देश का बच्चा बच्चा इन्हें जान गया है और अब ये एक अंतरराष्ट्रीय पथ प्रदर्शक बन गए हैं। स्वागत किया जाए ..” शैल ने खड़े होकर छोटा भाषण दिया है।

गुमनाम एक फूल माला उठा लाया है। उसने माला मेरे गले में डाल दी है। इस माला की रचना अजीबोगरीब लगी है। फूलों से महक न आकर दुर्गंध आ रही है। मैं रुक रुक कर सांस ले रहा हूँ। अब मैं माला को गले से उतार कर उसका निरीक्षण कर रहा हूँ। आक, ढाक और अन्य कई किस्म के जंगली फूल हैं – मैंने देखा है।

“माला आप के लिए स्पैश्यली बन फूलों से बनाई गई है।” गुमनाम ने भी मुझे सूचित किया है।

“मैं इस खुशी के सुअवसर पर इन्हें एक तुच्छ भेंट प्रदान करता हूँ।” शैल ने कह कर एक लिफाफा मेरी ओर बढ़ा दिया है। मैंने भी लिफाफा चुपचाप पकड़ लिया है। थोड़ी सी मुस्कान चेहरे पर चिपक गई है। मैंने अब कोई भी प्रतिक्रिया दिखाने की कसम खा ली है। मेरे सभी दोस्त निराश होते जा रहे हैं कि मैं उन्हें गालियां खाने का मौका नहीं दे रहा हूँ।

फिर से तालियां बजी हैं। मैं उठा हूँ और सब की ओर मुखातिब हो कर बोला हूँ।

“भव्य स्वागत के लिए धन्यवाद! मुझे पता न था कि आप लोग मेरी इतनी कदर करेंगे वरना तो मैं न आता! हां! जो आप लोगों ने मेरा मूल्यांकन किया है – वह सही है! पर आप लोगों को विश्वास नहीं है। और अगर विश्वास है भी तो तुम सभी जले बैठे हो और जो कसैलापन वातावरण में घोल दिया गया है – महज एक जलन है। मैं चलूंगा ..” कहकर मैं तेज तेज कदमों से बाहर आ गया हूँ। मन में भरा आक्रोश मुझे अभी भी कचोट रहा है।

बाजार लोगों से खचाखच भरा है। दुकानों पर धड़ाधड़ बिक्री हो रही है। ट्रैफिक फसा हुआ है। मैं अपने आप से जूझ रहा हूँ। मन एक दम बर्फ की सिल्ली की तरह ठंडा पड़ गया है। ये ठंडक कितनी विध्वंसकारी है – मैं ही जानता हूँ। आंखें फाड़ फाड़ कर हर आदमी में मैं अपनापन खोज रहा हूँ। लेकिन मुझे सभी बेगाना लग रहा है। लोग अंजान हैं ओर मुझे कोई नहीं पहचानता। तो मैं इन्हीं अंजान लोगों के पीछे अपना चैन हराम क्यों किए जा रहा हूँ। सभी तो खुश हैं, सुखी हैं फिर मुझे ही दुख क्यों दिखाई देते हैं? इनमें से कितने हैं जो मेरी बात तक समझ पाएंगे?

“अब कहां चलूं?” एक प्रश्न है जिसका उत्तर मैं खोज नहीं पा रहा हूँ। गरीबों के लिए मैं अमीर हूँ, सरमायादार हूँ और कभी भी उनका नहीं हो सकता! और अमीरों के लिए अब मैं बागी हो गया हूँ!

मेजर कृपाल वर्मा

Discover more from Praneta Publications Pvt. Ltd.

Subscribe now to keep reading and get access to the full archive.

Continue reading