“बस लगे हैं और सुनो! मैंने यूथ रैली पी एम के यहां ले जाने का बंदोबस्त कर लिया है। तुम सोमवार को आ जाओ!”

“मैं ..? नवीन .. पर .. यार .. वो ..” मैं कोई बहाना ढूंढ रहा हूँ।

“नो बहानेबाजी! ओके देन .. मंडे!” टेलीफोन अचानक बंद हो गया है।

पी एम ..? यूथ रैली ..? भाषण और ..? मैं इन सब को उलट पलट कर देखता रहा हूँ। मुझे ये कहीं से भी सार्थक नहीं लगे हैं। जिसे देश का हित करना है वो बिना किसी संगठन के भी कर सकता है। फिर ये यूथ रैली क्यों?

“पॉलिटिक्स इज ए डर्टी गेम!” बार बार ये वाक्य मेरे दिमाग पर चोट मार मार कर मुझे अवसन्न करता रहा है।

थोड़ी बोरियत झाड़ पोंछ देने की गरज से मैं देर तक नहाता रहा हूँ। आंख बंद करके जब भी फुदकती चिड़ियाओं से अपने आप को जोड़ा है – मैं हवा में पर लगाए अमेरिका की ओर दौड़ता रहा हूँ। सोफी और अपने बीच के इस फासले को कई बार तय कर चुका हूँ पर अब भी मन नहीं भरा है। मन हुआ है कि अनु को पूछ लूँ कि सोफी पहुँची है या नहीं और फिर उसी के अनुसार अपना भी ट्रिप तय कर लूँ।

जब सूरज लाल लाल आभा से क्षितिज को रंग रहा है तो बाहर का वातावरण सहज लगने लगा है। एक गुलाबी सुकुमारिता जैसे हर वस्तु के अंग से फूट कर थके टूटे रवि को विदाई दे रही है। मैं मुक्तिबोध के बंगले की ओर चल पड़ा हूँ।

मेरा पैदल चलना लोगों को असमंजस में डाल जाता है। इनके हिसाब से मुझे एक इंच का फासला भी चलकर तय नहीं करना चाहिए। कोई भी काम अपने हाथ से नहीं करना चाहिए और किसी भी नीचे स्तर के घटिया आदमी से मुझे बात नहीं करनी चाहिए। आखिर मुझसे ये उम्मीदें क्यों हैं? शायद ये लोग सदियों से यही सब देखते, सुनते और सहने के आदि हैं – और इन्हें ये अपवाद नहीं लगता! कोई तिरस्कार और रोष नहीं जता पाता पर क्यों? इनका खून यों माटी कब और क्यों हुआ?

“ठक ठक ठक! थप थप थप! मैं बंगले का दरवाजा पीट रहा हूँ क्यों की बिजली के कट जाने से कॉल बैल की घंटी बज नहीं रही है।

“जी .. साब .. सर .. आप ..?” मुक्ति का नौकर चौंक पड़ा है।

“तुम्हारे साब कहां हैं?” मैंने बहुत ही संयत और गंभीर स्वर में पूछा है।

“वो .. वो तो आगरा गए हैं।”

“क्यों?”

“सर! बता कर नहीं जाते!” जैसे ये उसकी आम शिकायत हो – नौकर बोला है।

“कब तक लौटेंगे?”

“सर! बता कर नहीं गए!”

“क्या बता कर गए हैं – वो बोलो?”

“जी सर! कुछ नहीं .. यानी .. चिड़ियाओं को दाना देना, फकत यही काम बताते हैं।”

“चलो! दाना हम भी डालते हैं!” मैंने तनिक दोस्ती का हाथ बढ़ाते हुए कहा है।

“जी ..! दाना तो डाल दिया!” उसने जैसे मेरा रास्ता रोक दिया हो – हंस कर कहा है।

“कोई नहीं! हम उन्हें दाना डालते देखेंगे!” मैं आगे बढ़ा हूँ।

मुक्ति ने एक बहुत खूबसूरत पिंजरा बना रक्खा है जिसमें हर चिड़िया के लिए अलग आजादी है। उसकी चाह के अनुसार घास की टहनियों पर रेत मिट्टी बिछा है तथा दाना, कीड़े मकोड़े और पानी रक्खा है। आस पास सफाई है और सभी फुदकते पंछी बहुत खुश नजर आ रहे हैं। मैं घास पर बैठ कर नजर गढ़ाए उन्हें देखता रहा हूँ। सुंदर, रंगबिरंगे पंख, काली लाल और सफेद चोंचें, स्प्रिंग लगे जैसे पैर और मटकती गोल गोल आंखें – मुझे अद्भुत रचनाएं लगने लगी हैं। कुछ वास्तव में अनोखी छटा और रंग रूप वाली चिड़िया हैं जिनके नाम मैं नहीं जानता और न इन्हें पहले कभी देखा है।

“इसका क्या नाम है?”

“जी .. सर ..!”

“बता कर नहीं गए?” मैंने व्यंग किया है।

“जी हां! पर मैं ..” कह कर वह लपका है और रजिस्टर उठा लाया है।

इसमें हर पिंजरे पर पड़े नम्बर के अनुसार नाम तथा विशेषताएं लिखी हैं। कुछ पूरी हैं तो कुछ अधूरी तो कुछ पन्ने खाली छोड़ दिए हैं। मैं उलट पलट कर ये सब देखता रहा हूँ। समय का ज्ञान ही भूल गया हूँ। दुनियादारी से कट कर जैसे किसी अज्ञात और नैसर्गिक आनंद से जा जुड़ा हूँ। इन चिड़ियाओं के साथ खेलने को मन हुआ है। मैंने कई बार टिटकारी मार मार कर एक दो को छेड़ा है। सारा पिंजरा सजग हो गया है। गोल गोल आंखें घुमा घुमा कर जैसे मेरा परिचय मांग रही हैं। मंत्र मुग्ध सा मैं बैठा बैठा कुछ और ही खोजता रहा हूँ।

“साब पकड़ते कैसे हैं?” मैंने मुड़ कर नौकर से पूछा है।

“यों ही दाना दिनका डाल कर साब!” उसने सहज हो कर बताया है।

मैं चलने को हुआ हूँ तो नौकर ने मुझे कॉफी का कप ला कर थमा दिया है।

“हमने तो नहीं ..”

“ये साब का हुक्म है साब!”

“फिर तो मानना ही होगा!” कह कर मैं और नौकर दोनों हंस पड़े हैं।

“तुम्हारा नाम?”

“परकाश!”

“पंजाबी हो?”

“हां साब! क्या आप भी?” उसने भी मुझसे आत्मीयता बढ़ानी चाही है।

“नहीं!” मैंने संक्षेप में कह कर कहानी खत्म कर दी है। “कहना – हम आए थे!”

“जी सर!” उसे पीछे छोड़ मैं आगे बढ़ गया हूँ।

रात का गहन तम अंधेरा सब कुछ समेट कर काला रंग गया है पर मेरा ग्रुप ऑफ मिल्स किसी पीली रोशनी की तरह आधे आकाश पर अंकित हो गया है। लगा है – मैं जिंदा हूँ, फल फूल रहा हूँ और बहुत सारी चिड़ियाओं को दाना खिला रहा हूँ। तभी तो सब सहज है और एक आत्मीयता जुड़ पाई है।

अचानक ठोकर खा गया हूँ तो श्याम से साक्षात्कार हो गया है।

मेजर कृपाल वर्मा रिटायर्ड

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