इसका मतलब मैं एक ही निकाल पाया हूँ कि यहां लोग जो भी कदम उठाते हैं निजी स्वार्थ पहले देखते हैं। आगामी उथल-पुथल या राजनीतिक परिवेश का विश्लेषण कर, तार्किक शक्ति पर तोल और जनता का मन पढ़ कर ही हर निर्णय लेते हैं। त्यागी के लिए मैं एक जाना माना सोर्स हूँ और वह भी चाहता है कि ये सोर्स सूख जाए। तभी तो मेरी अनुपस्थिति का फायदा उठा कर उसने ऐसी स्थिति पैदा कर दी है जिसका नियंत्रण उसी के हाथ में है। अगर वह चाहे तो कल लोगों की भूख सर पर चढ़ कर बोलेगी, चिल्लाएगी और अब जब त्यागी की भूख मिट गई है तो सब साले भर पेट खा रहे हैं। मैंने त्यागी को लताड़ते सुना है – कितने मर गए हैं भूखे जरा गिनाओ नाम। ये क्यों नहीं कहते कि कुछ लोगों को रोट लग गए हैं।

“वर्कर्स कमेटी के मेंबर्स तथा स्टाफ, ये मीटिंग इसलिए बुलाई गई है ताकि हम सब मिल कर मिल और कारीगरों के हित में कुछ न्यायोचित फैसले करें जिनसे लाेगों को कुछ राहत मिले।” मुक्ति ने भूमिका बनाई है।

तालियां बज उठी हैं। मेरा मन फूला नहीं समा रहा है।

“एक ठोस प्रोग्राम आप के सामने हमारे अगुआ, नेता और मालिक मिस्टर दलीप रक्खेंगे। ओवर टू मिस्टर दलीप!” कह कर मुक्ति एक ओर हट गया है।

हॉल की सजधज और खास कर मेरी कुर्सी और बोलने का मंच बेजोड़ हैं। मुक्ति के चातुर्य का आभारी सा मैं उठ कर सामने आया हूँ। तालियां फिर से बज उठी हैं। लगा है इस करतल ध्वनि में कहीं मेरी विजय विलीन है।

“भाइयों! जब कल मैं लेवल रूम में काम करने गया तो गोपाल से साक्षात्कार हुआ। मुझे लगा गोपाल मजदूर नहीं, गोपाल इंसान नहीं, गोपाल जीती जागती कोई संस्था नहीं अपितु एक मृत लाश है जो पांच बच्चों और खास कर तीन जवान शादी लायक लड़कियों का बोझा हर दिन ढोती रहती है। इसी सजीव सी लाश को देख मेरी आंखों में आंसू आए थे।”

वातावरण को मैंने भावावेश से भर दिया है। लगा है सभी मंत्र मुग्ध हो कर कोई ऐसी कथा सुन रहे हैं जो उनके साथ कभी नहीं घटी।

“मैंने फैसला लिया है कि हम सब मिल कर इन चलती फिरती हजारों लाशों में फिर से प्राण फूंक देंगे। इसका विकल्प मेरे पास है। आज से हम एक मैरिज फंड खोल रहे हैं। रकम शादी ब्याह के लिए बिना किसी सूद के दी जाएगी और तन्खा से किश्तों के रूप में वसूल कर ली जाएगी। इस फंड में हर कोई योगदान दे सकता है।” मैं चुप हो गया हूँ।

वही लौट आई करतल ध्वनि मुझे फिर से आश्वस्त कर गई है। लगता है त्यागी जी ने किराए पर ताली बजाने वाले हॉल में भर दिए हैं। मेरी नजर शीतल और श्याम के जोड़े पर जा गढ़ी है। शीतल जैसे आहत है और श्याम किंकर्तव्य विमूढ़ सा न तो तालियां बजा रहा है और न ही गालियां बखान रहा है।

“इसके अलावा स्कूल में शिक्षा का स्तर, बच्चों के लिए वजीफा और हम सब के लिए एक बगीचा, क्लब और पिकनिक जाने के लिए बस का प्रबंध भी हमें करना है। हम एक परिवार हैं और इस परिवार में सुख शांति लाना हमारा अपना जिम्मा है।”

तालियां फिर बजी हैं।

“आमदनी बढ़ाने का जरिया कहता है कि काम के घंटे भी बढ़ा दिए जाएं। मैं स्वयं भी काम करूंगा और मेरा सारा स्टाफ आपके साथ काम करेगा! आप अकेले कैदियों की तरह इन मशीनों में नहीं पिसेंगे क्यों कि हम सब अब एक साथ हैं।”

“हम सब एक हैं!” भीड़ के बीच से जीत ने उठ कर नारा सा लगाया है।

एक जय घोष के साथ हॉल गूंज उठा है – हम सब एक हैं। यह मेरी मांगी सफलता है – खरीदी सफलता जिसे मैं त्यागी से अपना अहम गिरवी रख कर ले आया हूँ। अब शायद इसी अधचिनी दीवार पर बाकी के मंसूबे बड़े कर पाऊंगा – ऐसा आश्वासन मन में कुरकुराए जा रहा है।

“अमेरिका में हर मजदूर के पास कार है। वह एक अच्छी धनी जिंदगी बसर करता है। इसका कारण एक है – मेहनत, लगन और नए आयाम ढूंढ निकालने की चाह। माना हम एक कठिनाई और तंग वित्तीय स्थिति से गुजर रहे हैं। हमारे पास संसाधनों का बाहुल्य नहीं है। तो क्या हम ये भी भूल जाएं कि भारत प्राकृतिक वैभव से संपन्न है और जिस रोज हम अपना वैभव समेट कर बैठ जाएंगे – उन्नत राष्ट्रों की गणना में आ जाएंगे।”

“ये अमेरिका का पिट्ठू है। एजेंट है – एजेंट! भाइयों, इसके बहकावे में मत आना!”

वो एक व्यक्ति है जिसे मैं नहीं जानता। पुलिस जो तैनात थी उसे बाहर घसीटती ले गई है और वो अपना अगला वाक्य पूरा नहीं कर पाया है। मैं अचानक अपने ही किसी खोट का कायल होता लगा हूँ। अमेरिका का प्रभाव यों सीधे शब्दों में बयान कर डालना मुझे गलती लग रहा है। लग रहा है मैं नकल करते किसी विद्यार्थी की तरह अब इस हॉल से बाहर फेंक दिया जाऊंगा, अपमानित हूंगा और बहिष्कृत हो कर समाज को मुंह दिखाने के काबिल नहीं रहूंगा। अंदर कोई खामोशी समाई है। सामने बैठे लोगों को मैं बटर-बटर देखता रहा हूँ। मेरी जबान भटक गई लगी है।

“भाइयों! यों किसी उन्नत राष्ट्र से प्रेरणा लेना अनुचित नहीं। आज कोई भी देश दूसरे देश के बिना सहारे नहीं जिंदा रह सकता। अमेरिका की संपन्नता अन्य देशों की विफलता से सीधी जुड़ी है। वैभव एक ऐसा धारा प्रवाह है जिसका रुख ही मोड़ना होता है। मिस्टर दलीप इसी रुख को मोड़ने की बात कर रहे हैं।” मुक्तिबोध ने मुझे महज साधने की गरज से बीच में कहा है।

लगा है कोई तारतम्य एक विपरीत निरंतरता से कटते-कटते बच गया है। मैं गिरते-गिरते संभल गया हूँ। मेरे मन मैं भरी ऐंठन चुप हो गई है। आज पहली बार इतनी उत्तेजना का अनुभव कर रहा हूँ कि भावों को शब्दों में पिरोना भी मुश्किल लग रहा है।

“हमें पूरी आस्था और निष्ठा से काम करना होगा। आज से हम एक वार्षिक उत्सव मनाएंगे जिसमें खेल कूद, डिबेट व्याख्यान, नई सूझ बूझ और सबसे अच्छे कर्मचारियों को इनाम दिए जाएंगे। इसका एक ही उद्देश्य होगा – सचेष्ट समाज के अंग को पुरस्कृत और प्रोत्साहित किया जाएगा। मैं हमेशा से मैरिट के पक्ष में हूँ। जो काम करता है उसे तो इनाम मिलना ही चाहिए।”

तालियों की गड़गड़ाहट से हॉल एक बार फिर गूंज उठा है। लेकिन मेरे पैर अब भी किसी थरथराहट को महसूसते जा रहे हैं। किसी हतोत्साहित नर्तकी ने अपने पैर से खोल कर घुंघरू मेरे पैरों में बांध दिए हैं और अब मैं छन-छन की आवाज से खुद ही कांप उठा हूँ। लगा है गिरने से बाल-बाल बचा हूँ। मैं आ कर अपनी कुर्सी पर बैठ गया हूँ। पर जो बैठने का सुख उपजना चाहिए था – गायब है। मेरा बदन अब भी एक तनाव से जूझ रहा है। सर अजीब से घिल्ल-मिल्ल भावों से भर गया है। मैंने क्या कहा – मुझे कुछ याद नहीं। आंखें सामने की भीड़ में छिपी किसी बेमानी इकाई से जूझ रही हैं। अचानक मैंने पलकें मूंद कर अपने भावों को अंतर्मुखी करने का विफल प्रयत्न किया है।

“आप लोगों में से जो सहमत हैं – हाथ खड़े कर दें।” मुक्ति ने वोट मांगा है।

आंखें मूंदे मैं एक अजीब सी सुरसुराहट सुन पाया हूँ। मैं जानता हूँ कि हाथ ज्यादा तादाद में उठे होंगे लेकिन आंख खोल कर गिनती करने में डर रहा हूँ।

मेजर कृपाल वर्मा रिटायर्ड

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