“बड़ी देर लगा दी यार!” भट्ठा वाले ने हंस कर तहमत थोपी है – जो आज का आम रिवाज है।
“सीधा चला आ रहा हूँ बे!” मैंने उसे कुनिहा कर सीधा कर लिया है।
एक अट्टहास की हंसी में हम सब हंस पड़े हैं। लगा है एक के बल पर दूसरा मैदान के मैदान जीतता चला जा रहा है। सहयोग और एकता का गुणगान मौन और मूक चिपकी दीवारें ही करती रही हैं।
“देख दलीप! मुकाबला संगीन है। जान लड़ानी होगी।” जकारिया ने मुझे चोभ मारी है।
“डरता कौन है, यार!” मैंने यों छिछोरेपन से कहा है जैसे अंजाम का मुझे भान तक न हो।
मैं अब अचानक लौंडों लफंगों की गिनती से उठ कर सभ्य समाज की सीढ़ियां पार कर अब अति आत्मीय और विश्वास पात्र लोगों की गिनती में हूँ। अब चाहे जैसे इन नेताओं से मैं पेश आऊं ये बुरा नहीं मानते। कभी-कभी तो मुझे खुद इनके साथ गाली गलौज करके शर्म आने लगती है पर ये नम्बर एक के बेशर्म हैं। जब मांगने पर उतर आएं तो कपड़े तक उतरवा लेते हैं।
“दलीप हमें धन चाहिए, जीपें चाहिए, ट्रक चाहिए और यहां तक कि तुम्हारे स्टाफ के आदमी भी चाहिए!” भट्ठा वाला ने मांग लंबी करके मेरे सामने रख दी है।
नयन विस्फारित मैं पहली बार भट्ठा वाले के चेहरे पर धरे जासूसी भाव पढ़ने का प्रयत्न करता रहा हूँ। मुझसे एक दम कोई उत्तर नहीं बन पाया है।
“तुम तो जानते हो दलीप कि मुकाबला नवीन से है और नवीन ..”
मैं आगे का वाक्य पूरा नहीं सुन पाया हूँ। मुकाबला नवीन से है – मात्र शब्द मुझे चौंका गए हैं। पर मैं नियंत्रण नहीं खोना चाहता। आंखों के सामने लाखों की संख्या में गोल-गोल छल्ले छाने लगे हैं। सच झूठ से सन्न हुआ कोई भी काट-छांट करने से रुक गया हूँ। कोई मकड़ी मेरे शरीर पर रेंग-रेंग कर घृणित से तरल पदार्थ का लेप करती चली जा रही है। यही लेप महीन-महीन तारों में आकर जाल सा बुनने लगा है। मैं इस जाल में बंधता जा रहा हूँ।
“साहब! दलीप साहब का फोन है।” बैरा ने आ कर बताया है।
मैं बिना कुछ कहे सुने फोन अटेंड करने चला आया हूँ। सबकी निगाहें मेरा पीछा करती रही हैं। वही जानी-मानी टूटन अंदर से तोड़ने लगी है। मैं सोच कर भी नहीं सोच पा रहा हूँ कि फोन के सुदूर दूसरे किनारे पर कौन याद कर रहा होगा? अगर सोफी हो तो ..! मैं अंधकार के घोर समुद्र में डूबता एक मीठे पानी का घूंट पी गया हूँ।
“हैलो दलीप!”
“बोल रहा हूँ।”
“मैं नवीन! कैसा रहा ट्रिप?” नवीन ने बात को लंबे छोर से पकड़ा है।
मन में आया है कि इन सारे नेताओं को इकट्ठे कर के जूतों से मारूं। मुझे ये सब से बड़े देश द्रोही और जाति द्रोही लगे हैं। इनकी कौम एक अलग छटे बदमाशों की कौम बन गई है। जहां ये समाज कल्याण का ढोंग रचाते हैं वहां सारे समाज की शक्ति को तोड़ फोड़ कर एक विध्वंसकारी रूप दे देते हैं। न इनके कोई नियम धरम हैं और न कोई आचार विचार।
“अच्छा रहा! तुम सुनाओ। कैसा चल रहा है?” मैंने भी औपचारिकता का नकाब पहन कर पूछा है।
“बस चुनावों में लगा हूँ। तुम तो जानते ही हो कि ..”
“जानता हूँ – खूब जानता हूँ।” कह कर मैंने व्यंग किया है।
नवीन हंस गया है। अजीब सी एक बेशर्मी से मेरा अंतर भरने लगा है। त्यागी और नवीन में मुझे कोई अंतर नहीं लगा है।
“भाई तुमने जो डांगरी का आविष्कार किया है वास्तव में नया आईडिया है। और देखो! मैंने प्रेस रिपोर्टर को बुला भेजा है। वो पहले भी कुछ मैटीरियल कलैक्ट कर चुका है।”
“मतलब ..?” मैंने चौंक कर पूछा है।
लगता है नवीन मेरे हिन्दुस्तान में कदम रखने से अब तक मेरा पीछा करता रहा है। मैं किसी शहद की पिंडी जैसी संज्ञा में विलीन होता लगा हूँ – जिसे हर कोई तोड़ कर खा जाने को प्रयत्नरत है। अगर डर है तो मेरी डंक जैसी पैनी जबान का। लगता है किसी तरह ये मेरी जबान बांध देना चाहते हैं।
“वही फ्रंट पेज पर कॉलम – आईडियोलॉजिस्ट – इंडस्ट्रियलिस्ट!”
“ओह दैट!” मैंने लंबी सांस छोड़ी है।
मैं डर रहा हूँ। नवीन एक तरफ और त्यागी दूसरी तरफ मुझे दो भिन्न दिशाओं में खींच रहे हैं। दोनों ने मेरी एक-एक टांग पकड़ी है और अब मुझे आधा-आधा चीरने लगे हैं। मन असहज वेदना से भर गया है।
“मिल कर जाना। मां तुम्हें बहुत याद करती हैं।” नवीन ने एक और चाल चली है।
“ओके नवीन! सी यू ..” कह कर मैंने फोन काट दिया है।
छुप कर बात सुनते भट्ठा वाला को मैं अदृश्य कोने से वापस जाते ताड़ गया हूँ। मेरे कदम मेरे स्वयं का भार उठाने से ना कर रहे हैं। एक तोड़ देने वाले मानसिक तनाव को मैं कठिनाई से झेल पा रहा हूँ। देहली आने की उमंग किरकिरी हो कर फर्श पर जा गिरी है। थोड़ा संयत मन ले कर मैं त्यागी गुट में जा मिला हूँ।
“ठीक है। ये बात तो तय हो गई। अब कुछ शो-शा हो जाए!” जकारिया ने स्वयं घोषणा कर दी है।
इसका मतलब साफ-साफ मैं लगा पाया हूँ कि त्यागी ने दुकानदार को खरीद लिया है – बिना मोल-तोल, बिना भाव-न्याव के और बिना किसी रू-रिआयत छूट के वो मेरा सब कुछ अपना सब कुछ मान बैठा है। अंदर से एक आवाज कह रही है – दलीप, ना कह दे। सब कुछ चला जाएगा, मत फंस! चल बाहर! पर पता नहीं क्यों मैं किसी वफाादारी जैसे खूंटे से बंधा रहा हूँ। त्यागी की की गई मदद भूल नहीं पा रहा हूँ और मिल में बिगड़ता माहौल, मुक्ति की आंखों में भरा खौफ और शीतल तथा श्याम सभी बारी-बारी मुझे डरा धमका जाते हैं। लगता है – जग बैरी बन गया हो।
“काश! सोफी होती?” एक अजीब सी आह भाग कर मन खाली कर गई है।
“चेयर्स फॉर प्रिंस मिस्टर दलीप .. दलीप द ग्रेट!” उठी प्रशंसा से कमरा भर गया है।
एक लंबा घूंट बियर मैंने अंदर के अकर्मण्य भागों को जलाया है – अपने जीवन की अमर ज्योति को जिलाया है, आत्मविश्वास को कुरेदा है। मैं नहीं चाहता कि ये सब मुझ पर इस कदर छा जाएं, मैं स्वीकार लूं – जो मैं नहीं चाहता। दूसरे लंबे घूंट में मैं पूरा गिलास रिता गया हूँ।
मेजर कृपाल वर्मा रिटायर्ड