है तो छोटा सा किस्सा पर है बहुत ही प्यारा। भोपाल बहुत ही छोटा और अच्छा शहर है झीलों की नगरी कहते हैं, भोपाल को। भोपाल का यह शहर भेल B.H.E.L और इंडस्ट्रियल एरिया के लिऐ प्रसिद्ध है। B.H.E.L यहाँ  का मेन काम है,और इसी काम से रिलेटेड फैक्टरियां भी हैं। यहाँ सारे शहर में आपको फैक्ट्रियां बहुत मिलेंगी या यूँ कहिये की अच्छा खासा इंडस्ट्रियल एरिया है भोपाल में। हम लोग भी यहाँ की एक अच्छी कॉलोनी में रहते हैं। जब मैं विवाह के पश्चात दिल्ली से भोपाल आई थी तो आसपस सारा खाली मैदान और हरियाली थी। अब तो देखते ही देखते जगह घिर गई है,हमारे घर के सामने वाले प्लॉट पर भी फैक्टरी खड़ी हो गई है। हैं!घर के बिल्कुल सामने वाला प्लॉट अभी भी बिल्कुल खाली पड़ा था….बहुत बड़ा प्लॉट है, खाली पड़ा रहने के कारण इस प्लाट पर बड़ी-बड़ी हरी-भरी झाड़ियाँ खड़ी ही गयीं थीं। अचानक एक दिन हमने देखा कि प्लॉट पर J.C.B चलना शुरू हो गया है…सुनने में आया था कि अब यहाँ दवाईओं की फैक्ट्री खड़ी होगी। देखते ही देखते सारी हरी-भरी झाड़ियाँ प्लॉट पर से साफ़ हो गईं थीं, और अब एकदम खाली मैदान था… फैक्ट्री का काम शुरू हो गया था,हम भी उत्सुक थे, क्योंकि घर के एकदम सामने रौनक सी लग गयी थी। दवाईयों की फैक्टरी जो बनना शुरू हो गयी थी। इसी सारी रौनक मेले का मज़ा लेने के लिये हम शाम के टाइम बाहर खड़े हो जाया करते थे। इसी प्लॉट पर मज़दूरो ने यानी जो फैक्टरी बन रही थी,उसमें काम करने वालों ने अपनी टेम्परेरी झोपड़ी बना ली थी।

एक दिन शाम को हमने क्या देखा कि किसी ने अपने बकरे प्लॉट में बाँध दिये हैं। तीन बकरे बँधे हुए थे। हम भी अपने बच्चों के साथ छत्त की सामने वाली दिवार पर कोहनी टेके शाम का आनन्द ले रहे थे। मुझे याद है,प्लॉट में तीन बकरे बाँध कर कोई कहीं चला गया था। एक सफ़ेद रंग का बकरा था,दूसरा ब्राऊन रंग का बकरा था और तीसरा एकदम काला लेकिन चमकदार था। तीनों ही बकरे खाये-पीए से सुन्दर थे। ये तीनों बकरे हमें एकदम नज़दीक से  दिख रहे थे। यानी बकरों का और हमारा डिस्टेंस ज़्यादा न था। सच्च! लटके हुए लम्बे कान इन तीन बकरों की शोभा बढ़ा रहे थे। मुझे तो तीनों ही बकरे बहुत ही सुन्दर और अच्छे लग रहे थे,अचानक पता नहीं क्या हुआ कौन सा बचपन हम पर सवार हो गया, हम कह नहीं सकते…..बस!इसी बचपन की सवारी पर बैठ कर हमने थोड़ा सा चिल्लाकर बकरों से बातचीत शुरू कर दी। काला वाला जो बकरा था, वो एकदम फर्स्ट नम्बर पर था,यानि हमारे एकदम सामने, बाकी के दो बकरे सफ़ेद और ब्राऊन वो थोड़ा ज़्यादा दूरी पर थे। पता नहीं क्या मन में आया कि हम उस काले बकरे से फालतू का वार्तालाप कर बैठे, जैसे”क्या है, क्या हो रहा है?”जैसे-जैसे हम चिल्ला कर पूछते कमाल देखिए बकरा हमारी बात का ठीक वैसे ही में-मैं करके जवाब देता चलता,हमें भी मज़ा सा आने लग गया था बकरे से बात करने में….आसपास के लोग हमें देखकर सोच में लग गए कि हो क्या रहा है। पर हमने परवाह न की। हम तो बस अपने इन अनजाने दोस्तों से बात करने में मशगूल हो गए थे। मज़े की बात तो  यह है कि काला बकरा हमसे मैं-मैं करके बराबर की बात करता जा रहा था,मानो हर बात समझ में आ रही हो और हमसे भी पूछ रहा हो”और कैसे?सब ठीक-ठाक ,आजकल किधर?” वगरैह-वगरैह। इसी वार्तालाप के दौरान काले बकरे ने एक और मज़ेदार काम कर दिखाया, वो जो दो बकरे सफ़ेद और ब्राऊन थोड़ी दूरी पर थे, उनका भी हमसे परिचय करा डाला। पहले हमसे खुद बातचीत करता फिर जो हम बकरे से सवाल करते , वो उधर मुहँ करके यानी सफ़ेद और ब्राऊन बकरे की तरफ मुहँ कर उनसे ज़ोर-ज़ोर से मैं-मैं करके पूछता, औऱ फिर जो वहाँ से वो मैं-मैं करके जवाब देते ,तो हमारी तरफ देखकर हम तक पहुंचा देता। उन तीन बकरों का और हमारा बहुत ही अच्छा वार्तालाप चल रहा था…ऐसा लग रहा था पता नही कब के बिछड़े मुझे ये तीन दोस्त आज मिले हैं। और हम चारों पता नहीं कब-कब की यादें कुरेद रहे हैं। सच!में वो आधा घंटा उन बकरों के साथ थोड़ा सा चिल्ला कर हम भी अजीब-अजीब सी बात किए जा रहे थे,और तीनों आपस में सलाह कर हमें हर बात का जवाब दे रहे थे। उसी वक्त हमारे बच्चों ने हमें नोटिस किया और आकार रोका, कहा”मम्मी क्या कर रही हो? क्या बचपना है? बकरे हैं,ये क्या चिल्ला-चिल्ला कर बात कर रही हो इनसे , सब देख रहे हैं।”खैर!पाँच मिनट बाद ही बकरों का मालिक वहाँ आया और उन्हें खोल कर ले जाने लगा। हम अभी तक वहीं खड़े थे, अपनी छत्त की दीवार पर कोहनी टेके। अचानक ज़बरदस्ती ही मन भर आया जब मेरे तीन दोस्तों को यानी उन बकरों को उनका मालिक ले जाने लगा।

इस आधे एक घन्टे के अन्दर हम इतनी गहरी दोस्ती कर बैठेंगे पता ही नही चला। खैर! चलते वक्त उस काले वाले बकरे ने हमसे मैं-मैं करके बकायदा बाई-बाई बोली,और हमने भी थोड़ा चिल्ला कर ‘”बाई”बोला और कहा “फिर मिलेंगे दोस्त”। हमारी इस बाई-बाई को काले वाले बकरे ने, अपने दो मित्रों यानी सफ़ेद और ब्राऊन बकरे तक पहुंचाया। मैसेज सेंडिंग का काम तो बहुत देर से कर ही रहा था मेरा कला वाला मित्र। बकरे भी चले गए और हम भी अंदर आ गए। आज जब भी  मैं अपनी  छत्त के आगे वाली दीवार पर कोहनी टेक कर खड़ी होती हूँ, और सामने वाले प्लॉट की तरफ देखती हूँ, जिसमें आधे में फैक्टरी खड़ी हो गई है….मुझे मेरे वो तीन दोस्त अनजाने से फिर से याद आ जाते हैं।