रमेश दत्त को लगा था कि वो पागल हो जाएगा – और नहीं हुआ तो भी हो जाएगा!

घंटों से वह वायरल हुए नेहा के फोटो को देख रहा था। यूं तो विक्रांत का फोटो भी नेहा के साथ ही छपा था लेकिन रमेश दत्त ने उसपर कोई ध्यान न दिया था – या कि वो ध्यान देना न चाहता था! लेकिन नेहा ..

जीने की राह माने कि द वे ऑफ लाइफ फिल्म की घोषणा हो चुकी थी। इसी फिल्म के तहत नेहा और विक्रांत के ये फोटो रिलीज किये गये थे। दोनों को वल्कल वस्त्रों में सजा वजा कर एक अलौकिक छवि के साथ छापा गया था। दोनों मोहक लग रहे थे, दोनों दिव्य दिख रहे थे और दोनों दो साथ साथ आये प्रेमी युगल थे जिन्हें साथ साथ जीना था – ताउम्र!

“द मैसेज़ हेज़ गॉन ऑल ओवर द वर्ल्ड!” चित्रों के नीचे संदेश लिखा था। “विश्व शांति संभव है!” किसी ने तर्क दिया था – हिंसा का उत्तर केवल और केवल प्रेम ही है – जैसे हर कोई एकाएक मान बैठा था!

“लेकिन मैं तो नहीं मानता!” बड़बड़ाया था रमेश दत्त। “मैं .. मैं तो जानता हूँ नेहा को! मैं .. मैं नेहा को ..” रमेश दत्त की जबान अटक कर रह गई थी।

तभी भाई का फोन आ गया था। रमेश दत्त को लगा था जैसे भाई का चाबुक उसकी नंगी पीठ पर सीधा पड़ा हो!

“सब बिगाड़ कर रख दिया तुमने ..!” भाई की आवाज कठोर थी। “कित्ता पैसा फूंका और नतीजा ..? पहाड़ खोदा और चुहिया भाग गई!” खेद पूर्ण स्वर में कह रहा था – भाई।

“न न भाई!” रमेश दत्त कठिनाई से बोल पाया था। “न न! न भागेगी!” उसने लड़खड़ाई जबान में कहा था। “मैं .. मैं ..”

“ये हो क्या रहा है कासिम?” भाई पूछ रहा था। “कहा था – औरंगजेब बना लो – तो तुम्हारी मॉं मर गई! और आज तक न एक गीत अल्लाह के नाम पर है और न एक संवाद खान चाचा की शराफत में बोला गया है?”

“वो क्या है भाई कि इस छोकरे विक्रांत ने सारा ही खेल बिगाड़ दिया!”

“फिर तुमने क्यों नहीं बिगाड़ दिया साले को ..?” रोष में जल रहा था भाई।

रमेश दत्त चुप हो गया था। कैसे बताता भाई को कि उसपर जो मुसीबत के पहाड़ टूट रहे थे – वो कम भारी न थे! बॉलीवुड में चारों ओर से उसका संगठन नंगा होता चला जा रहा था! उसकी शाख गिरने लगी थी। उसका विरोध भी होने लगा था। उसकी बनाई फिल्म पर प्रश्न चिन्ह लग गये थे। और ऐसे माहोल में औरंगजेब फिल्म बनाना तो असंभव ही था!

“अगर हॉलीवुड की ये फिल्म कामयाब हो गई तो बॉलीवुड तुम्हारे हाथ से निकल जाएगा कासिम!” भाई अब चेतावनी दे रहा था। “तुम्हें शायद ज्ञान नहीं है कि इधर चल क्या रहा है?”

“क्या चल रहा है, भाई?” रमेश दत्त ने कांपते कंठ से पूछा था।

“सनातन की लहरें उठ रही हैं!” भाई बताने लगा था। “और इस्लाम की पुरजोर खिलाफत चल पड़ी है!”

“लेकिन क्यों भाई?” रमेश दत्त ने झूठ मूठ पूछा था। वह भी जानता तो था कि आखिर हो क्या रहा था। सनातन के इस शंखनाद को तो उसने भी बहुत पहले सुन लिया था। लेकिन वह सोचता रहा था कि ..

“तुम लोग तो हो ही हिन्दू ..?” अमीर कौसर की बेगम ने उसे उलाहना दिया था। “वक्त आने पर घर लौट जाओगे!” वह हंस पड़ी थी। “अब पठान हो – पर हो तो पंडित!” एक मजाक जैसा बना लिया था उन लोगों ने।

“किसके लिए काम करूं ..?” आज पहली बार रमेश दत्त ने स्वयं से प्रश्न पूछा था। “रामायण और महाभारत तो छूने का कई बार मन हुआ है! फिल्म बनाने के लिए आत्मा लरज लरज आती है लेकिन .. लेकिन ..”

रमेश दत्त ने आज पहली बार महसूसा था कि भाई ने उसके गले में एक फंदा फिट कर दिया था जो अब उसका दम सुखाए दे रहा था!

“जीने की राह – वैदिक जीवन की की एक प्रबल संभावना है! इसमें प्रेम रत द्वय के जन्म जन्मांतरों तक जीने का जिक्र है!” संदेश वाहिनी ने लिखा है।

लेकिन रमेश दत्त ने पढ़ कर इसे बगल में फेंक चलाया है!

“प्रेम ही एक ऐसी प्रबल शक्ति है जो मौत को भी मात दे देती है! लेकिन इस तरह के प्रेमियों की खेती सनातन में ही संभव है!” टाइम्स में लिखा है। “जीने की राह में ये संभावनाएं कहीं पर लक्षित हो सकती हैं!”

पैसे दे कर लिखवाया है – रमेश दत्त ने भोंहें सिकोड़ी हैं!

“प्रेम की परिभाषा संपूर्ण समर्पण है! पश्चिम के प्रेम की परिभाषा नकली है। सौदेबाजी के बीच प्रेम का अंकुर उगता ही कहां है? प्रेम जैसी कोमल भावना भौतिक व्यवहार के आघात सह कहां पाती है?” द आउट लुक ने मत पेश किया है।

टोटल प्रोपेगेंडा है – रमेश दत्त ने माथे पर उग आई पसीने की बूंदों को रूमाल से पोंछा है!

“प्रणाम दत्त साहब!” रमेश दत्त को जैसे किसी ने नींद से जगा दिया हो, ऐसा लगा है। प्रेस के लोग आन पहुंचे थे। रमेश दत्त तनिक संभला था। वह जानता था कि अब – जीने की राह पर, ये लोग उसकी टांग खींचेंगे। “आपके तो दर्शन के लिए तरस गये दत्त साहब!” एक पत्रकार ने उलाहना दिया था।

“क्यों चढ़ा रहे हो भाई!” दत्त साहब ने उन सब को एक साथ देखा था। सबने अपने अपने लहोकर संभाले हुए थे और अब झटपट काम से लग पड़े थे। “मानेंगे नहीं धूर्त!” दत्त साहब ने उन सब को कोसा था।

“कहते हैं दत्त साहब कि मनुष्य होने के मतलब ही कुछ और हैं!” प्रेस ने प्रश्न दागना आरम्भ कर दिया था। “और ये भी कहते हैं कि मनुष्य का प्रकृति के साथ सहयोग से जीना एक अनूठा दर्शन है! लेकिन आपकी परिभाषाएं तो बड़ी अटपटी हैं! इन्हें जूसी भी कहते हैं लोग। और लोग कहते हैं कि जो और जैसा दत्त साहब अपनी फिल्मों में परोसते हैं वह तो सर्वथा और अन्यथा भी वर्जित होना चाहिये?”

रमेश दत्त को जंच गया था कि प्रेस ने अचानक ही आकर उसे कठघरे में खड़ा कर लिया था और अब वो उसे हलाल करने लगे थे!

“सीधी बात कहो और करो भाई!” दत्त साहब ने अपने मंजे स्टाइल में कहना आरम्भ किया था। “जीने की राह – जो इन्होंने सजेस्ट की है वो मात्र एक खयाली पुलाव है!” दत्त साहब तनिक हंसे थे। “है क्या जीना? स्वाभाविक क्रिया और प्रतिक्रिया ही तो है! स्त्री पुरुष का हेल मेल भी स्वाभाविक है – जहां वो हंसते हैं, गाते हैं, रोते हैं, सोते हैं, नहाते खाते हैं और वक्तन-फवक्तन लड़ भिड़ भी लेते हैं!” दत्त साहब ने पत्रकारों को फिर से देखा था। “ये है वो चटपटा जिसे मैं फिल्मों में परोसता हूँ! और अब ये कहते हैं कि नहीं – बिना मसाले डाले दाल खाओ और स्वाद ..?” तनिक से मुसकुराए थे दत्त साहब। “अरे भाई! बनाने वाले की भी तो बात मान लो! मत गढ़ो बेतुकी परिभाषाएं!”

“दत्त साहब! वो जो सनातन का ..”

“माफी चाहूँगा मित्रों! मैंने जो कहना था – कह दिया!” दत्त साहब उठ गये थे!

बढ़ चढ़ कर छपा था रमेश दत्त का ये बयान! प्रेस ने इसे अपने ढंग से उछाला था!

“खूब रोया है, खुड़ैल बाबू!” नेहा बेहद प्रसन्न थी। “हाहाहा! ये जो सड़ांध लोगों को परोसता है .. न ..?” नहा ने विक्रांत को अपांग देखा था। “गंदा ..! गंधाता है – भीतर बाहर से ये आदमी, बाबू!” नेहा कहती रही थी।

“अभी तो इसके और भी बुरे दिन आने हैं, नेहा!” विक्रांत एक सोच के बाद बोला था।

“कीड़े पड़ेंगे – कमीने की काया में!” नेहा ने जैसे श्राप दिया था रमेश दत्त को!

“अफसोस ही होता है नेहा कि हमारे भारत में कितने कितने बुरे दिन देखे हैं?” विक्रांत ने कहा था। “शायद अब आ कर उगेगा – उजाला ..” वह तनिक प्रसन्न हुआ था।

लेकिन अफसोस बाबू कि वो उजाला उगा ही नहीं और अंधकार ने फिर से हमारे जीवन में अंधेरी रात ला दी! ऐसा जाल फेंका इस बेईमान खुड़ैल ने कि मैं फंस गई बाबू!

सॉरी बाबू! मेरे सर ही आ बजा समूचा गुनाह!

आई एम वैरी वैरी सॉरी बाबू!

रोने लगी थी नेहा!

मेजर कृपाल वर्मा

मेजर कृपाल वर्मा

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