“बट .. श्याम?” मैंने जैसे शीतल के मुंह पर चप्पल दे मारी हो।
“हर बार श्याम को क्यों बीच में घसीट लाते हो?” चिढ़ कर शीतल ने पूछा है।
“इसलिए कि .. कि .. वो तुम्हारा मीयां है।”
“दैट इज डिफरेंट!” शीतल ने बेशर्मी से ही कहा है।
“मुझसे क्या चाहिए?”
“प्यार!”
“वॉट नॉनसेंस! मैं तुम्हें प्यार नहीं करता शीतल!”
“पर मैं तुम्हें प्यार करती हूँ दलीप! मैं तुम पर मरती थी और आज तक अपने आप से समझौता नहीं कर पाई हूँ। सच मानना – मैं हर दम श्याम के सहवास में तुम्हें ही चाहती रही हूँ। पल भर भी तुमसे जुदा होना ..”
“बको मत! शीतल! मैं जानता हूँ कि तुम ..”
“हां-हां! मैं गिरी हूँ! पतिता हूँ! फूटी हांडी हूँ और .. और करो जलील .. और चुभो दो शूल! शायद तुम्हारे ये दिए घाव ही मुझे शुद्ध कर जाएं!” शीतल कांपने लगी है।
शीतल का साहचर्य प्रेम और सानिंध्य सभी साकार हुआ लग रहा है। यों मैं भी कभी उसे दिल से नफरत नहीं कर पाया पर जब से वो श्याम की पत्नी बन गई मैं कट गया था। अगर श्याम बीच में न आया होता तो उन दिनों शायद .. शीतल को मैं पा गया होता!
“अब क्या फायदा?” मैंने बात का सारांश पकड़ लिया है।
बोतल से शराब उड़ेल मैं गिलास भरता रहा हूँ। शीतल मेरे एक दम करीब आ खड़ी हुई है। सेंट की खुशबू मुझे अपरिचित नहीं लग रही है और मुझे बाध्य कर रही है कि मैं शीतल के अंगों से उठती इस गंध का पीछा करूं और वहां पहुंच जाऊं जहां ये खत्म हो जाए! आज सोफी भी मेरे बचाव में सहायता नहीं कर रही है। शीतल के हुस्न का तिलिस्म मुझ पर सवार हो गया लगा है।
“तुम नहीं जानते मैं किस तरह तुम्हारे लिए तिल-तिल मिट रही हूँ?”
“मैं कहना चाहता हूँ कि तुम मुझे मिटाने पर तुली हो!”
“हां! तुली तो हूँ – प्यार की चाह ने मुझे बावला कर दिया है दलीप! मैं तुम पर अपना अधिकार मान बैठी हूँ।”
“ये तो सीनाजोरी है?”
“हां! और इसी सीनाजोरी से मैं तुम्हें जीत लेना चाहती हूँ।”
“नाकामयाबी हाथ लगेगी!”
“मैं जानती हूँ। तभी तो अब मांगने चली आई हूँ – जस्ट लाइक – अंतिंम इच्छा! कहने चली आई हूँ – सब कुछ पीछे छोड़ तुम्हारे पास! आज मत निराश करना – आई बैग यू दलीप!”
फिर एक मोह की फांसी गले में आ पड़ी है। शीतल ने मेरा हाथ अपने हाथों में भर लिया है। मैं एक अजीब सी मन: स्थिति का सामना कर रहा हूँ। शीतल में क्या सच है और क्या झूठ है – पता नहीं कर पा रहा हूँ। मुझे उसकी फरेबी आंखें धोखा लग रही हैं पर गदराए अंग समेटने को मन बेईमान हुआ जा रहा है। अपना संयम न खो बैठूं इस गरज से मैंने आंखें फेर ली हैं।
“लो! तुम्हारा काम मैं करती हूँ!” कह कर शीतल अपना परिधान उतार फेंकने में लग गई है।
मैं दीवार पर टंगे खजुराहो के नग्न चित्र देखते-देखते डर रहा हूँ कि ये पाषाण पर खुदे चित्रों की कलाकृतियां आज सच्चाई के दर्शन कर कहीं रूठ न जाएं! जो शायद ये कहती है वो शीतल नहीं करती। जो गहराईयां कलाकार इनके अंतर में उतार पाया है वो शायद शीतल में विद्यमान नहीं हैं।
“अब चलो!” शीतल मुझे बेडरूम की ओर धकेल रही है।
“शीतल!” मैंने भर्राए स्वर में पुकारा है। लगा है मैं अब भी डर रहा हूँ।
“इंतजार करती हूँ! आ जाना! लास्ट टाइम दलीप प्लीज आई प्रोमिस ..”
शीतल नंगे पैरों चुपचाप बेडरूम में चली गई है। पर्दा ने मेरी मदद की है और अब मैं मुड़ कर सिहरते एक लाज के रक्षक प्रहरी को देख पाया हूँ। मन में अजीब द्विपक्षीय द्वंद्व चल रहा है।
“हो सकता है वो मुझे प्यार ही करती हो? कामातुर पुराने पुरुष मुझे फुसलाया है ताकि मैं शीतल के गर्माए अंगों से जा लिपटूं – एक बाघ की तरह टूट पड़ूं और अपनी बलिष्ठ बांहों में भींच-भींच कर शीतल को खुश कर दूं!
“जाओ ..?” खजुराहो की पेंटिंग्स मूर्त हो कर सीधी डगर बता गई हैं।
“तुम कह रहे हो?” मैंने मुड़ कर सवाल किया है।
“तुम्हारा लालची मन कह रहा है। तुम्हारा हिला विश्वास और टूटी ख्वाहिश अब तुम्हें जिला न सकेगी!”
“गलत! सोफी एक दम गलत! साला दलीप अब नहीं डरेगा! सो ब्लडी वॉट?” मैं अपने आप को झूठन खाते कुत्ते की तरह दुतकार कर बोला हूँ – यू आर ए एक्सिलेंट इडियट!”
शीतल की अनुपस्थिति मुझे सोचने का मौका भर दे गई है। पर्दे के पीछे अंडे जैसा गोरा स्निग्ध शरीर अब भी कम आकर्षक नहीं पर इसे संवरण करने की शक्ति प्राप्त कर मैं अंदर गया हूँ।
“आ गए न ..?” शीतल जैसे पतली चादर के अंदर एक अदृश्य ज्वाला में फुक रही है। तिल-तिल कर मुझे अंगों के उभार जाहिर कर गई है।
वही टीस मन में फिर भर गई है। आज पता नहीं क्यों मैं दोहरी इस चाल चलता लग रहा हूँ। घास पर पड़े स्टूल पर रक्खा शीतल का ब्रा और ब्लाउज अपनी जवानी लुटाते लग रहे हैं। जब पैर संभालने से रुक गई है तो मैं दीवार से टिक कर खड़ा-खड़ा शीतल को घूरने लगा हूँ। आखिरी दाव पर आ कर मैं रुक गया हूँ।
“इतनी देर ..?” शीतल जल से बाहर खींच ली मछली जैसी तड़पती लगी है।
“नो ब्लडी लास्ट लाइफ! यू – अंडरस्टेंड ..?” मैंने भरपूर चीखते हुए कहा है ताकि बेडरूम में भरी कामुक चुप्पी कट जाए।
“दलीप ..!” सहमी शीतल ने मुझे मनाना चाहा है।
“चली जाओ! गेट आउट फ्रॉम हेयर यू ब्लाडी बिच!” हांफते कांपते मैं दीवार के सहारे टिका वाक्य पूरा कर गया हूँ।
कितना जूझने के बाद ये कह पाया हूँ मैं?
मेजर कृपाल वर्मा रिटायर्ड