नर्स ने आकर वार्निंग सुनाई है – ज्यादा बोलना इनके स्वास्थ्य के लिए अच्छा नहीं है। मैं हंस पड़ना चाहता था पर रुक गया हूँ। नर्स का गंभीर चेहरा और उसपर फैली एक अजीब सी मासूमियत मुझे इंप्रेस कर गई है। मैं सभी बंधन तोड़ने की शक्ति रखता हूँ पर पता नहीं क्यों ममता और प्यार के सामने हमेशा हथियार डाल देता हूँ।

“चचा आप बेकार अपने आप को अपनों की लिस्ट में लिख रहे हैं। मेरा अपना अब वही है जो भूखा मर रहा है, पिस रहा है और रात दिन काम करके भी उसे चैन की रोटी नहीं मिल रही है।”

“तो इसमें हमारा क्या कसूर है बेटे? जिसमें जितनी तमीज और अक्ल होगी वो उतना ही तो ऊपर उठ पाएगा।”

“और अगर अक्ल होने पर भी उसे विकसित होने से रोक दिया जाए – तब?”

“ऐसा कहां हो रहा है! आजकल तो ..”

“हो रहा है चचा! शायद आप अपने धन की ओर देख रहे हैं – लोगों की ओर नहीं। चंद दिन पहले मुझे भी कुछ दिखाई नहीं देता था।”

एक गहरी निश्वास छोड़ कर मैं चुप हो गया हूँ।

रीता मुझे अपलक घूर रही है। कई बार उसने मेरे बागी हुए मन के अश्व को थाम कर लगाम दी है और रुख मोड़ना चाहा है। पर वह विफल रही है। अपनी पराजय पर संकुचित होकर बैठ रही है। वह कहीं दूर देख रही है। अस्पताल की हवा में मिली क्लोरीन की गंध मेरी नाक में भरती चली जा रही है – मजबूरियों की तरह!

रीता और रतन चंद के जाने के बाद मैं अचानक दरवाजे को देखे जा रहा हूँ। पता नहीं क्यों अब मुझे बाबा के आने का इंतजार है। इतनी बड़ी घटना का उन्हें पता जरूर चल गया होगा। फिर वो आए क्यों नहीं?

बाबा जो नहीं चाहते कि मुझे कांटा भी लगे या गर्म हवा का झोंका मुझे झुलसा जाए – आज लाठियां पड़ने के बाद भी मुझे देखने नहीं आए। लेकिन क्यों? हमारे विचारों की भिन्नता हमारा रिश्ता तो नहीं बदल देती। क्या बाबा मुझसे वास्तव में नफरत करने लगे हैं? क्या मैं कुछ गलत कर रहा हूँ? कई प्रेतकाय प्रश्न हैं जो अस्पताल से उठ कर घर की ओर चल पड़े हैं। कमजोरी और मोह ने आकर आग्रह किया है – चलकर बाबा से क्षमा मांग लो। पर मैं वापस भाग आया हूं।

“न आने दो! मुझे ही क्या चिंता है?” मैंने स्वयं से बड़बड़ाते हुए कहा है।

रमा जी आकर मुझे सारी प्रतिक्रियाओं से अवगत करा गई हैं। शीतल जी जेल में हैं। और अभी भी गिरधारी मल वहीं हैं। मैं भी गिरफ्तार सा ही हूँ। मन में एक खिन्नता उमड़ पड़ी है। मन कह रहा है कि अभी उठकर भाग जाऊं और जंगलों में जाकर एक गिरोह तैयार कर लूं ताकि इन सब को एक एक करके अच्छी तरह से समझ लूँ।

“धीरज रखना है दलीप जी।” शीतल जी कह रही हैं। “जीत तो हमारी ही होगी।”

“वो तो होगी ही रमा जी!” मैंने भी दांत पीसते हुए कहा है।

स्वस्थ होते ही मुझे भी शीतल जी की तरह जेल में ले जाकर डाल दिया है।

“आओ दलीप! मुबारक हो यार सारे शहर में तुम्हारी चर्चा हो रही है। ये देखो फोटोग्राफ और पढ़ो तुम्हारे बारे क्या लिखा है।” शीतल जी ने मुझे अखबार पकड़ा दिया है।

एक सांस में मैं अखबार पढ़ गया हूँ। लिखने वाले ने खूब लिखा है पर ..

“कुछ ठोस बात नहीं निकली .. जबकि ..”

“अबकी बार निकलेगी! दलीप मैं कहता हूँ कि देश को तुम जैसे नौजवानों की जरूरत है।” शीतल ने खुश होकर बधाई दी है।

मेरा अकेलापन छट गया है। जेल का मुंह मुझे ज्यादा काला दिखाई नहीं दिया है। लोग तो यों ही डरते हैं। मैं कहता हूँ – कदम बढ़ाने से डरना ही आत्मघात है और मन के सच्चे उद्गार दबाना ही पाप है। मोह में बंध कर बैठ जाना ओर किस्मत के हाथों अपने भाग्य को सोंप देना – सरासर अन्याय है।

कौन कहता है देश में काम की कमी है, धन की कमी है या कपड़ा और घर नहीं हैं? ये सब तो हमारी अपनी कमियां हैं। जिस दिन समाज चाहे उस दिन सर्व संपन्न हो जाए। काम करने वाले चाहिए, हक मांगने वाले चाहिए देश प्रेमी चाहिए ओर उनमें एक सच्ची लगन का अभ्युदय हो जो स्वार्थपरता और अमानवीयता से दूषित न हो – बस। त्याग ओर बलिदान आज सबसे अधिक मात्रा में चाहिए जबकि पनप रहा है स्वार्थ। बेईमानी ही जड़ें जमाए जा रही है। भ्रष्टाचार तो सदाचार में बदल गया है और लोगों ने इसे राजनीति के आंकड़ों के रूप में स्वीकार कर लिया है।

लगा है – जेल किसी भी नेता के अभ्युदय में एक बड़ा महत्व रखती है। मैं भी कुछ समर्थ हुआ लग रहा हूँ। एक डर जो अब तक था – कानून का डर, अब वो भी खतम हो गया है। बिना पूछे कानून जेल तक तो ले आता है पर फिर यहां से वापस भी कानून ही बुलाता है।

“दलीप! तुम से मिलने कोई आया है।” जेलर साहब ने मुझे सूचना दी है।

मन हुआ है कि ना कह दूँ। मैं इस रतन चंद से तंग आ गया हूँ। झूठी हमदर्दी दिखाने आया होगा ओर रीता ..

“चलो! मैं आता हूँ!” स्वीकारते हुए मैंने शीतल को घूरा है। शीतल एक किताब में नजर गढ़ाए कुछ पढ़ रहा है।

“मिल आओ! बाहर की कोई खबर तो भी मिल जाएगी।” शीतल ने उसी पोज में कह दिया है।

मैंने नजर पसार कर देखा है तो मेरे आश्चर्य का ठिकाना नहीं रहा है।

“बा .. बा! आ-प?” मैं भावावेश में बह गया हूँ।

“हां बंटे! बहुत कठोर बनने का प्रयत्न तो किया पर ..”

बाबा की बूढ़ी आंखों में आंसू भरे हैं। कितने असहाय लग रहे हैं बाबा। लग रहा है – इन चार छह दिनों में उनकी चार छह साल की उमर अनभोर में खिसक गई है। चेहरे पर पड़ी झुर्रियां खुदी खाइयों सी लग रही हैं। और उनकी सजल आंखें ..

“बा .. बा!” मैं चुप हो गया हूँ। मैं माफी भी नहीं मांग पाया हूं। सोच रहा हूँ – बाबा मेरी तारीफ क्यों नहीं कर रहे हैं। मुझे उत्साहित क्यों नहीं कर रहे हैं ओर वो भी मेरे अपने बाबा? बाबा की तालियों की खनक आज मुझे आसमान में उछाल सकती है ..

“मैं तुम्हारे साहस की कद्र करता हूँ दलीप! पर बेटे, ये राजनीति एक भोंड़ा खेल है। अगर खेलना ही है तो किनारे पर खड़े होकर। बीच में कूद पड़ना तो नादानी है। आज तक राजनीति से फायदा उठाने वाले अगुआ नहीं बल्कि वो लोग रहे हैं जो अगुआ के अगल-बगल खड़े रहते हैं।”

बाबा की बात तो सच तो जरूर है पर मेरा उद्देश्य किसी भी फायदे पर आधारित नहीं है। मैं तो इसे अपना फर्ज समझ कर इसमें कूदा हूँ।

“आप ने अगल-बगल खड़ा होना सिखाया ही नहीं तो मैं क्या करूं?” मैंने बात बाबा पर लाद दी है। अब मेरा भावावेश उमड़ कर शांत हो गया है। बाबा मुझसे मिलने आ गए हैं – मैं बहुत खुश हूँ।

“क्या तुमने मेरी कोई भी बात न सुनने की कसम खा ली है?”

“ये बात नहीं है। पर आप ..”

“अच्छा ठीक है! अनुराधा का पत्र आया है। वो अगले महीने हिन्दुस्तान आ रही है।” बाबा ने सूचना दी है।

एक पर्दा हम दोनों के बीच रोक लगा गया है। न मैं खुला हूं न बाबा। हमारे लक्ष्य अभी भी भिन्न हैं। हां – संबंध और खून का तकाजा बरकरार हैं। एक बाप अपना फर्ज निभा रहा है बस। मैं जेल से आगे कहीं और जा नहीं सकता और बाबा ..

एक चुप्पी है जिसने मुझे घेर लिया है।

Major krapal verma

मेजर कृपाल वर्मा

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