एक निराशाजनक वातावरण बनता जा रहा है। सभी मुझे अब सशंक निगाहों से भेदे दे रहे हैं। इनके लिए मैं अब बेगाना बन चुका हूँ। काम और निष्ठा की बातें आज किसी की समझ में नहीं आतीं। अगर अभी मैं उठ कर कह दूं – एक विराट सभा रामलीला ग्राउंड में बुधवार को होगी। हम अपने अधिकार मांगेंगे, सरकार से लड़ेंगे और अगर हमारी सुनवाई न हुई तो सब कुछ जला कर राख कर देंगे तो सभी मेरे साथ होंगे। मैं फिर एक महान नेता बन जाऊंगा!

मैं इस घुटन और चुप्पी से ऊब कर उठ कर चलना चाहता हूँ। किसी ने भी मुझे रोकने का उपक्रम नहीं किया है। श्याम भी उठ कर मेरे साथ चल पड़ना चाहता है। तभी किसी ने भीड़ में से कहा है – ये भी पलट गया साला!

मैंने मुड़ कर नहीं देखा है। क्रोध के मारे मैं लाल हो गया हूँ। सर भन्ना रहा है और मेरा हाथ झापड़ मारने को आतुर है पर मैं आज अपने आप पर नियंत्रण किए हूँ।

“अमीर आया था – थूक कर चला गया!”

फिर एक व्यंग किसी की विषैली जबान ने उगला है। आज हिन्दुस्तान में जबान जो उगलती हैं उसी के बड़े बड़े अपरूप हैं ये राजनीतिक विद्रोह और इनसे जो क्षति होती है उससे इन विषैली जबानों को एक पैशाचिक आनंद मिलता है। आज कुछ भी कहने में हम नहीं झिझकते पर जहां करने का सवाल आता है वहां न कोई नेता आगे बढ़ता है और न जनता!

“सरमायादारी – हाय हाय!”

नारों से कमरा गूंज कर रह गया है। मैं जैसे इस अपंग और कृपण संगठन से दूर भाग रहा हूँ, इसके खोखले, बेकार और बेबुनियाद नियम मुझे भरमा नहीं पाए हैं। मैं इसे संगठन नहीं मानता। जिस संगठन में शक्ति जलाने या पीछे खींचने के लिए पैदा की जाए उसे मैं विनाशकारी ही समझता हूँ।

मैं चुपचाप कार चला रहा हूँ। श्याम भी कुछ नहीं बोल रहा है। अब मुझे दुख भी हो रहा है। शायद मैंने तनिक समझदारी से काम लिया होता तो ..। पर फिर मुझे शीतल जी की पार्टी से घृणा हो रही है। मैं अब कोई पार्टी जोइन नहीं करना चाहता।

एक किरन थी जिसमें आशा लिपटी थी और अब मुझे वो भी दिखाई नहीं दे रही है। लग रहा है मैं घोर अंधकार में कार चलाए जा रहा हूँ। मेरी यात्रा फिर निरुद्देश्य बन गई है। मैं फिर अकेला पड़ गया हूँ।

रह रह कर मन चाह रहा है कि अनुराधा आज ही आ जाए। उसके दोनों बच्चे अब बड़े हो गए होंगे। कितने प्यारे हैं दोनों! बस कार में बिठा कर अब मैं सारे दिन उनके साथ ही घूमा करूंगा!

फिर भी मेरा टीसता मन मुझे ही खा जाना चाहता है। मैं घबरा कर पुकारता हूँ – श्याम! चल कहीं भाग चलें!

“पागल तो नहीं हो गया बे? अबे तूने तो आज जो किया है वो कोई सात जन्म में भी नहीं कर पाता। वास्तव में इन गधों ने मिल कर तू भी गधा ही बन जाता! मां कसम तूने मेरे मन की कर दिखाई!” श्याम ने कहते हुए मेरी पीठ पर थपकी दी है।

लगा है – डूबते को तिनके का सहारा मिल गया!

आज श्याम मुझे कितना बड़ा सहारा लगा है और मेरा कितना बड़ा हमदर्द है – मैं कह नहीं सकता!

“जो असलियत थी – मैंने सामने कह सुनाई!” मैंने श्याम को तनिक सी सफाई दी है। मेरा मन थोड़ा हलका हुआ है।

“पर बेटा! ये असलियत इनके लिए तो जहर है! रोगी कड़वी दवा पीने से मरना अच्छा समझता है।”

“ये ऐसे रोगी हैं श्याम जो खुद तो मरे पड़े हैं और अन्य सभी को भी उसी मौत की खाई में खींच लेना चाहते हैं।”

मैं अपनी भावुकता के साथ बेसहारा बह जाना चाहता हूँ। एक तिनके की तरह मझधार में धंस कर मैं सारे घुमाव-फिराव जान लेना चाहता हूँ। चोट खाए अपने सत्य सम्मान और उच्च स्तरीय सिद्धांतों को एक बार फिर से दोहरा कर समीक्षा कर लेना चाहता हूँ!

“क्या मैं अकेला लड़ पाऊंगा?” एक सवाल है जिसे मैंने अपने आप से ही पूछा है। इस सवाल के उपरांत एक क्रम में सामने खड़े सभी झंझावात और समस्याएं हैं जिनसे सामना होगा!

समाज तो अब भी अनपढ़ है। उसमें अपने भले बुरे की गहराई नापने की क्षमता नहीं है!

सृजनात्मक शक्ति का नाम निशान नहीं। विनाशकारी शक्तियां पनप रही हैं और ..

राष्ट्रीय भावना का अभाव है और वैयक्तिक तथा पारिवारिक सुख समृद्धि का युग पनप रहा है जिस में स्वार्थपरता बढ़ गई है।

समाज आज भी टुकड़ों में वर्गीकृत है और इन वर्गों की अगवानी कर रहे हैं शीतल जी जैसे नेता गण।

“पहले इन्हें खत्म करने का उपाय सोचो दलीप!” कोई है जो चुपके से मुझसे कह रहा है।

“अकेला ..?”

“हां हां! जो होनहार व्यक्ति होते हैं वो हमेशा हमेशा अकेले ही जीते हैं! उनके साधक तो होते हैं लेकिन वो आपने साध्य खुद होते हैं।”

मुझे अकेले जीने की बात बुरी लग गई है। जब भी मैं अपने सपनों में रंग भरता हूँ तो मेरी तूलिका किसी सुंदर से चेहरे में रंग, रूप, लावण्य और गहराइयां भरती रहती है। फिर वह चेहरा सजीव होकर बोलने लगता है। मेरी अपनी कल्पना ही मुझे रास्ता दिखाने लगती है। मैं इस रचना से कुछ पा लेना चाहता हूँ और वो भी मुझसे कुछ पा कर कभी दूर नहीं होना चाहती!

“कौन जाने दलीप! न जाने क्या क्या साकार होगा?” एक लंबी सांस छोड़कर मैं विचारों के पीछे दौड़ना रोक देता हूँ। इस गतिरोध से मुझे एक जोर का धक्का लगा है!

बाबा मेरा लटका चेहरा पहचान कर पास आ बैठे हैं। मैं चुप हूँ। बाबा ही बात छेड़ते हैं!

“क्या रहा पार्टी की मीटिंग में?”

“बस यों ही थी।” मैंने बेरुखी से उत्तर दिया है।

“हूँ ..! तुम्हें उनका रवैया पसंद नहीं आया होगा?”

“हां!”

“तो उसे अपने अनुकूल बना डालो! देखो दलीप! आज बहुत सारी बातें जो बाहर फैल रही हैं तुम्हें पसंद नहीं आएंगी। लेकिन तुम्हें एडजेस्ट तो करना होगा!”

मेजर कृपाल वर्मा

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