“तुमने बनी बात क्यों बिगाड़ी?” गंभीर स्वर में बाबा ने मुझे पूछा है।

बाबा की नजरों में मैं मुजरिम हूँ। एक बागी हूँ और एक सर चढ़ा उनका बेटा जिसे प्यार दे दे कर उन्होंने खुद ही बिगाड़ लिया है। बाबा की खामोश निगाहें मुझसे कई सवाल पूछ रही हैं। और मैं एक अदम्य साहस बटोरे उनका सामना कर रहा हूँ। मेरी आंखों की चमक से बाबा तनिक सहम से गए हैं।

“मैंने बिगड़ी बात बना ली है। मुझे भी बोलने का हक है!”

“हां हां, हक तो तुम ही जानते हो लेना पर ..”

“जिम्मेदारी भी मैं ही लेकर आया हूँ!”

“कि उन लोगों को मिल बता दोगे – उड़ाओ और खाओ! फिर तुम क्या खाओगे?”

“मैं अपनी मेहनत की खाऊंगा!”

“ओह तो अब मेहनत करने पर उतर आए हो। क्या इरादा है हम भी तो जानें?”

“ये ..” मेरी जबान तालू से जा चिपकी है। मैं बोल ही नहीं पा रहा हूँ।

“बोलो बोलो!”

“मुझे भी तो काम चाहिए?”

“काम ..! कर लो मना किसने किया है!”

“मुझे ये शुगर मिल चाहिए!”

“हूँ! बड़े पैमाने से काम शुरू होगा न!”

“मैं .. चाहता हूँ .. कि ..”

“जो बाप ने कमाया है वो गंवा दूं! इतनी जल्दी भी क्या है?”

“नहीं बाबा! मैं गंवाना नहीं चाहता हूँ। मैं तो परिवर्तन लाना चाहता हूँ!”

“तो ला दो परिवर्तन। चीनी के बदले तेल नहीं बिकता। वैसे तो हम देख ही रहे हैं ..”

“आप मुझे गलत समझ रहे हैं। मेरे विचार ..”

“समाज कल्याण करना चाहते हो! विश्व को एक सूत्र में बांधना चाहते हो तो रास्ता ये नहीं है बेटे! व्यापार तो व्यापार की तरह होता है!”

“आप एक बार मुझपर भरोसा तो करके देख लें। अगर आप की एक मिल चली भी गई तो ..”

“एक गोट पिटने के बाद दूसरी पिटते देर नहीं लगती दलीप। जो बाजी जीतता रहता है उसे हार का एहसास भी साथ साथ होता रहता है ..!”

“ठीक है – मैं चला जाता हूँ।”

“चले तो जाना पर पहले त्यागी जी से माफी तो मांग आओ!”

“क्यों?”

“तुम जानते हो क्यों!”

“मैं तो नहीं जाऊंगा!”

“ये मेरी आज्ञा है!”

“अगर आप मेरी विनय नहीं स्वीकारते हैं तब मैं आपकी आज्ञा कैसे मानूंगा! मैं कौन से बोझ भार से दबा हूँ। आप ने तो मुझे बंदर की तरह पाला हुआ है। न यहां मेरा कोई अधिकार है और न कोई पूछ। जो चाहे आ कर मेरे मुंह पर निकम्मे पन की मोहर दाग जाए आपको क्या? आप तो महान बन जाते हैं – मैं भले ही अधूरा रह जाऊं या फिर अपंग बन जाऊं। मुझे तो आपके सहारों पर जीना है। अच्छा था अगर उस दिन मैं आप के साथ जेल से यहां न चला आता। चलो! अब कौन से जेल के रास्ते बंद हैं!”

कहकर मैं बाबा के सामने से हट कर चल दिया हूँ। मौन धारण किए बाबा कुछ नहीं बोल पाए हैं। सच्चाई को शायद वो नकार नहीं पा रहे हैं। और किसी अनभिज्ञ अंजामों से डर से गए हैं बाबा। मैं उन्हें एक खोखली संज्ञा समझ कर चल दिया हूँ। जो अब तक वो मुझसे बनते रहे थे अब पृथक होने लगे हैं और हमारे जीवन संगीत की लय रुक कर कोई हम तारतम्य तोड़ गई है। उनके पैरों में स्वयं का भार ढोने की शक्ति भी जाती रही है। सहारा और किनारा खिसक जाने पर नदिया क्योंकर बहे – अत: बाबा का जीवन प्रवाह रुक जाना चाहता है। उनके गम पराजित हैं और मेरी चाह अजेय है – जो मुझे आगे ही आगे धकेले ले जा रही है। अनुराधा ने आकर मेरी राह रोक दी है।

“कहां जा रहे हो भइया?”

“जहन्नुम में! फिर टोक दिया तूने? बड़ी हो गई है पर अक्ल का नाम तक नहीं है इसमें!” खीज कर जब मैंने डांटा है उसे तो वह तनिक हंस गई है।

“जाने दे इसे अनु – मत रोक मैंने गलती की जो ..”

बाद में मैंने बाबा को वाक्य पूरा करते नहीं सुना है। मैं सीधा अपने कमरे में चला आया हूँ। श्याम से मिलने की प्रबल इच्छा मुझे खाए जा रही है। त्यागी पर मुझे क्रोध आ रहा है। मन कह रहा है अभी अभी शीतल जी से जाकर मिलूंं और इस त्यागी के बच्चे की दवा दारू कर दूं।

अनुराधा और बाबा खुसुर-पुसुर पता नहीं क्या क्या बतियाते रहे हैं। अनुराधा की पुरानी आदतें नहीं बदलीं हैं। जरूर मेरे विरुद्ध साजिश कर रही होगी। सोफी भी कहीं अपनी किताबों से सर मार रही होगी। मन में आया है कि सोफी से दो बात करूं। लेकिन अंतर आत्मा ने विद्रोह खड़ा कर दिया है। उसके सामने कैसे टिक पाऊंगा। उसे तो समय नष्ट करना बुरा लगता है। चार संवादों के बाद उसकी उपेक्षा से भरी निगाहें मुझे कमरे से बाहर निकल जाने का अनुरोध करने लगती हैं। मैंने जाने का विचार छोड़ कर छोड़ने का विचार पक्का कर लिया है।

“कहां जा रहे हो भइया?” अनुराधा ने हंस कर वही सवाल दोहराया है।

मैं भी उसे वही पुराना उत्तर देने वाला था पर रुक गया हूँ। शायद सोफी भी आई है। सोफी के मुख मंडल पर एक शीतल और शांत मुसकान अछूती चांदनी की तरह मुझे कृतार्थ कर गई है। मैं तनिक झेंप गया हूँ। अगर सोफी ने बाहर जाकर काम का प्लान पूछा तो मैं निरुत्तर हो जाऊंगा – यह सोच कर झटपट दिमाग में कोई – फॉर द टाइम बीइंग – योजना सोच रहा हूँ।

“मैंने भी कल जाना है।” सोफी ने बड़े ही आद्र स्वर में सूचना दी है।

“हां भइया! कल दोनों साथ साथ चले जाना!” अनुराधा ने गवाही दी है।

“नहीं! मुझे जरूरी काम है!” कहकर मैं फिर संकोच में पड़ गया हूँ कि कहीं सोफी काम का नाम न पूछ बैठे।

“कब लौटोगे?” अनुराधा ने फिर मुझे चिढ़ाया है।

“कभी नहीं! मैं वापस आने के लिए नहीं जा रहा हूँ।” इस बार मैं गरजा हूँ।

“बाबा भी जा रहे हैं। वो तो कह रहे थे कि ..”

“क्या कह रहे थे?”

“कह रहे थे – आज से तुम सब कुछ संभालो!”

“मजाक मत करो अनु!”

“ओएहोए ये गुस्सा! देख सोफी मेरे भइया कितने गरम मिजाज के हैं!”

सोफी और अनु खिलखिला कर हंस पड़ी हैं। मैं और भी चिढ़ गया हूँ!

“अब रहने दो ये पैकिंग! मैंने बाबा को भी राजी कर लिया है। चलो उनके पास!” अनु ने मिठास घोल कर कहा है।

मैं अनुराधा को देखता रह गया हूँ। देखते देखते उसकी लंबाई बढ़ गई है। उसके विस्तार पसर गए हैं और उसमें एक गरिमा आकर व्याप्त हो गई है। महान परिवर्तन हो गए हैं अनुराधा में। तो क्या सोफी भी इन दो चार दिनों में बदली है? प्रश्न मैं लिपटी निगाहें सोफी से जा लड़ी हैं। वह सहज में मुसकुराती रही है।

“ओह अनु .. अनु डार्लिंग .. माई स्वीट स्वीट सिस्टर!” कह कर मैं अनुराधा से लिपट गया हूँ। अनुराधा ने अपने भइया के लिए बहुत कुछ किया है ये मैं आज से आगे कभी नहीं भूलूंगा!

“मैंने तुम्हारी शर्ट पहन ली है दलीप!” बाबा इस तरह बोले हैं जिस तरह कोई निराधार खड़ा पेड़ आह भर कर गिर पड़ा हो। और मैं उस गिरे पेड़ को उठाने के लिए झुक गया हूँ। मैंने बाबा के चरण छू कर आशीर्वाद पा लिया है।

अनुराधा और सोफी हमें अकेला छोड़ कर बाहर निकल गई हैं!

मेजर कृपाल वर्मा

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