“हेलो श्याम!” मैंने ही खैरियत पूछी है।
“हेलो सर!” श्याम औपचारिक ढंग से ही बोल पाया है।
“मुबारक हो! कब ..?”
“कल शादी है!”
“रिसेप्शन?”
“सब कुछ कल ही है। शीतल को भी छुट्टी नहीं मिल रही है और मैं भी ..”
“नौकरी कराने का इरादा है?”
“काम नहीं चलेगा सर!”
“हूँ!” जैसे मैं कोई स्थिति तौल रहा हूँ।
“आप आएंगे ना?”
“बहुत लोग होंगे मेरी जरूरत ..”
“बहुत होगे पर आप जानते हैं मेरा तो कोई नहीं है!” श्याम गंभीर और भावुक है।
लगा है उसके पास मुझसे कहने को बहुत कुछ है और मेरे पास? चाह कर भी मैं न उसकी सुनूंगा और न अपनी कहूँगा क्योंकि अब हम एक दूसरे की बात मान नहीं पाएंगे क्योंकि हमारे बीच का विश्वास उठ कर आप और सर की दीवारें चुन गया है। शीतल के रूप और अदाओं का सम्मोहन श्याम को ढीला नहीं छोड़ सकता और मैं सच्चाई उगल कर वैर मोल न लूंगा!
“जरूर आऊंगा!” कहकर मैंने एक लंबा निश्वास छोड़ा है।
एक पश्चाताप से मन भर गया है। काश शीतल की जगह कोई सीधी सादी कुल वधू की सज्जा में लिपटी श्याम जैसी सरल हृदया, अक्षत यौवना और सुंदर नारी होती तो मैं जश्न मनाता और किसी गुलगपाड़े की आवृत्तियों में नहा नहा कर स्वयं नाचता और गाता – मेरा यार बना है दूल्हा! पर अब? मैं एक मौन की चादर ओढ़े किसी अवांछित वर्तमान को आते देखता रहूँगा।
“मुझे विश्वास था।” श्याम उसी भावुकता से कह पाया है।
“गुड! एंड गुड नाइट!” कह कर मैं आगे बढ़ गया हूँ।
विश्वास शब्द पर ही मुझे चिढ़ होने लगी है। लोग इसे किसी रोटी घास की तरह इस्तेमाल में लाते रहते हैं। श्याम के और मेरे बीच का विश्वास कब का उठ गया। शायद श्याम और शीतल यह नहीं जानते कि मैं शीतल के पहले कदम से आखिरी चाल तक सब कुछ जानता हूँ। अंधकार में तो सभी अंधे होते हैं और जो अंधा होता है उसे सूझतों की क्षमता ही याद नहीं आती।
मैंने बार में बैठ कर ड्रिंक बनाई है, मैगजीन को कुरेदा है और कुछ पढ़ने लगा हूँ। सहसा टेलीफोन बजा है।
“हेलो!”
“सर! मैं मुक्ति बोल रहा हूँ!”
“आ गए?”
“जी ..! आप घर आए थे?”
“हां! भाई मान गए तुम्हारी हॉबी!”
“थैंक यू सर! कोई और काम था?”
“हां हां! कल मैं दिल्ली जाऊंगा। पी एम से मिलना है।”
“सर! और वो डांगरी?”
“डांगरी …? ओ हां! वैल डन! कल इसे पहन कर ही जाऊंगा!”
“और कोई काम सर?”
“नहीं! गुड नाइट!” कह कर मैंने फोन काट दिया है। सुबह डांगरी पहन कर मैं एक अद्भुत तैराकी जैसा लग रहा हूँ। डांगरी का कपड़ा, उसमें लगी जिपें और जेबें तथा कॉलर सभी मुझे मोहक लगे हैं। मुक्ति की छांट, सूझबूझ और फुर्ती पर मैं एक बार और खुश हो गया हूँ।
“जंच रहे हैं सर!” मुक्ति ने मुझे प्रशंसक निगाहों से घूरा है।
मैं और मुक्ति दोनों मिल में डांगरी पहने घूम रहे हैं। कभी किसी मशीन के नीचे तो कभी किसी कारीगर के पास। कभी किसी से पूछताछ तो कभी किसी को उपदेश निर्देश का सिलसिला चलता रहा है। मुझे इन कारीगरों की आंखें दाना खाती चिड़ियाओं जैसी ही लगती हैं – कृतज्ञ, आभार मानती और कोई संबंध स्थापित करती!
“इसका प्रभाव आप अगले महीने देख लेंगे!” मुक्ति ने मुझे बढ़ावा दिया है।
“मैं इसी सज्जा में देहली जाऊंगा!” मैंने अपनी चाह प्रकट की है।
मुक्ति मुझे घूरता रहा है। तनिक हंसा है। ऊपर से नीचे तक मुझे देख कर उसने कहा है – देहली में क्रांति न आ जाए सर?
“वही तो लानी है मुक्ति!” मैंने अपना संकल्प दोहराया है।
मुक्ति का मन खिल सा गया है।
“बहुत जरूरत है इसकी, सर! लोग बेचैन हैं।” आह सी रिता कर मुक्ति ने कहा है।
मुक्ति के चेहरे पर बिखरे भाव पढ़ कर मैं सहम गया हूँ। किस तरह वह हर बुराई और हर पर्दे के पीछे छुपे भ्रष्टाचार से लड़ पड़ना चाहता है – साफ जाहिर है! शीशों के पीछे से हमारा सफेद पोश स्टाफ हमें सशंक आंखों से घूरता रहा है। लगा है – मेरे इस ग्रुप ऑफ मिल्स में क्रांति चुपचाप धंस आई है।
अपने वायदे पर मैं देहली पहुंच गया हूँ। रैली में भाषण भी दिया है और डांगरी एक अजीब आकर्षण बन गई है। दनादन फोटो, प्रश्नों की बौछार और प्रशंसाओं के पुल बंध गए हैं!
“हमें तुम जैसे युवकों की जरूरत है दलीप!” पी एम ने मात्र – वात्सल्य जैसा कुछ उड़ेल कर मुझे कृतार्थ कर दिया है।
एक भावनाओं का सागर हिलोरें मारने लगा है। मैं – लगा है – पी एम के एक इशारे पर मर मिटने को तैयार हूँ। सहसा मां सामने खड़ी आशीर्वाद देती रही हैं, बाबा हंसते रहे हैं और मैं भी हंस पड़ा हूँ।
नवीन हलका पड़ गया है। मुझे लगा है कि मुझे बुला कर उसने गलती की है। एक ईर्ष्या और घृणा उसके मन में भर गई है।
“तुम्हें पी एम से मिलने इस तरह नहीं आना चाहिए था!” नवीन ने कहा है।
“जल्दी में था यार – बस चला आया!” मैंने चतुराई से वार बचा दिया है।
“यू लुक सा सिली ..” नवीन ने सारी घृणा एक ही वाक्य में भर दी है।
“आई एम सा सॉरी नवीन!” मैंने माफी मांगी है ये जान कर कि मेरा कोई दोष नहीं है।
लगा है – कुछ किस्मत के सितारे मेरे भाग्य में बदे हैं। नवीन के माथे लगने वाला श्रेय मैं झपट ले गया हूँ। वास्तव में लगा है कि देहली में युवा हृदयों में एक क्रांति घुस गई है!
“आप स्वयं काम करते हैं?” एक आम प्रश्न है जो हर किसी ने मुझ से पूछा है।
मेजर कृपाल वर्मा रिटायर्ड