आसमान तक देखने आता है …. मेरा खेल !

.उपन्यास -अंश :-

विचित्र लोक सतरंगी भीड़ से भरा था !

गाइड राजन का परिचय विदेशी सैलानियों से करा रहा था . 

"मैं , जूली !" एक बेहद सुंदर और आकर्षक महिला ने राजन से हाथ मिलाया . "एंड …यू आर ए बिजनैस टाइकून फ्रॉम कैल …..?" उस ने साथ में प्रश्न पूछा . "यू हैव ….टन स …ऑफ़ मनी , आई ऍम टोल्ड ……" वह मुस्करा रही थी .

"फ्रॉम …..बलगेरिया …….?" राजन का प्रति-प्रश्न था .

"ओह, हाँ ….! लेकिन …कैसे जाना ….?" जूली उछल पड़ी थी .

"घोड़ों का व्यापार है ! आता-जाता रहता हूँ ….!!" राजन का संक्षिप्त उत्तर था . 

विदेशी भीड़ में राजन एक देशी नुश्खे की तरह फ़ौरन ही घुल-मिल गया . उस का मन बदल-सा गया ! वह प्रसन्न था . उन के साथ ट्रैकिंग पर जाना उसे बुरा न लगा . उस ने कमर पर हैवर सैक बांधा , जूते चढ़ाए ,रस्सी को कमर से बांधा और छड़ी को हाथों से सहलाते हुए उसे चाबुक याद हो आया ! पर आज उसे घोड़े को नहीं , स्वयं को हांकना था – उसे एहसास हुआ था ! 

दुर्गम पहाड़ी चढ़ाई चढ़ना – किसी भी कला से कम नहीं होता ! राजन ने चढ़ते-चढ़ते ही साथी सैलानियों से चढ़ाई चढ़ने के सारे नुकते सीखे . शारीर से पसीना चू रहा था . पर आज राजन को आनंद आ रहा था . सहसा उसे कजरी की याद आई . कैसे पसीने-पसीने हो जाती थी ….कजरी ….और कैसे सरपट दौड़-दौड़ कर ….धरती के सामानांतर दौड़ती थी ….और उसे विजयी बना देती थी ….! तब तालियाँ बजतीं थीं …..उस का जय-जयकार होता था ….फोटो खिंचते थे …प्रैस के प्रश्न …..और फिर …..? हाँ, सावित्री ……!!

"ये तत्ता पानी है !" गाइड ने घोषणा की थी . "यहाँ लंच लेंगे ….!" वह कह रहा था . "दो घंटे का ब्रेक है . यू कैन ….रिलेक्स ….!!" उस ने मुस्कराते हुए कहा था . 

सैलानियों में प्रसन्नता की एक लहर दौड़ गई थी . सब के हारे-थके चहरे एक साथ प्रदीप्त हो उठे थे ! सब ने धडाधड कमर पर बंधे हैवर सैक ज़मीन पर पटके थे ….और स्वयं भी सब बे-परवाह हो ज़मीन पर लम्बे लेट गए थे . अपार आनंद का आगमन हुआ था ! शारीर अचानक ही मांटी के संपर्क में आ मंहक उठे थे !!

"मिस्टर राजन ! गाँधी के बारे बताओ , कुछ !" गोम्स ने पूछा था . वह पेरू से आई थी और भारत घूमने आती रहती थी . "मुझे गाँधी में बहुत दिलचस्पी है !" उस ने राजन को बताया . "सच में …मैं भारत आती ही इसलिए हूँ ….कि …आई …शुड …नो …गाँधी ….!"

राजन ने गोम्स को नई निगाहों से घूरा था . वह चकित था …..कि गोम्स भारत में गाँधी को खोजने हर साल आती थी !

"क्यों …..?" राजन ने चतुराई से गोम्स का प्रश्न बचाना चाहा . कारण – वह स्वयं तो गाँधी के बारे कुछ भी नहीं जानता था . उसे तो सिर्फ इतना ही पता था कि …..गाँधी को गोली मारी थी ….और स्कूल की छुट्टी हो गई थी ! 

"इसलिए कि ….आज का विश्व बारूद के ढेर पर बैठा है ….!" गोम्स ने राजन की आँखों में झाँका था . "हर कोई विध्वंश की बात करता है …..सत्य-अहिंसा की नहीं ….! पर मैं कहती हूँ ….असली अस्त्र तो सत्य-अहिंसा है ….ये परमाणु बम नहीं ….!!" गोम्स रुकी थी . अब उसे राजन की राय चाहिए थी . 

"सत्य-अहिंसा तो आज भी प्रासंगिक है !" राजन ने चतुराई के साथ कहा था . "गाँधी का तो कोई जोड़ ही नहीं ……!!" वह मुस्कराया था . 

गोम्स प्रसन्न थी . उसे अपना इच्छित उत्तर मिल गया था . लेकिन राजन कहीं बहुत गहरे में आहात हुआ था . उसे अपने पर क्रोध हो आया था . उसे आज एहसास हुआ था कि …..वो अपनी जिन्दगी के 'आयाम' पारुल से आगे और कुछ भी तय नहीं कर पा रहा था . उस सैलानियों की भीड़ में उस ने देखा था ….कि हर व्यक्ति अपनी एक खोज को लेकर ही आगे बढ़ रहा था ….उसे मन-प्राण से जी रहा था ….और देश,समाज तथा विश्व को कुछ देने का प्रयत्न कर रहा था …..! जब कि  ….राजन ……?

शरीर थकान से चूर-चूर हो चुका था . पसीने चू-चू गए थे . रोम-रोम खुल गया था ! अब उसे भूख लगी थी….और मन था कि पहाड़ को ही खा ले ! प्यास थी कि समुंदर को ही पी जाना चाहती थी ! कितने दिनों के बाद आज उसे जीने की याद आई थी ? लगा था – वह तो जीवित था ….! नदी,पहाड़ . हवा ,प्रकाश …सब के साथ-साथ ….वह भी जीता जा रहा था …..अनवरत !!

विदेशी पर्यटकों के साथ उस का खूब मन लगा . न जाने कब और कैसे बारह दिन बीत गए ….! सहसा उसे ज्ञान हुआ था कि …इस बीच उसे पारुल दिखाई तक न दी थी ! उसे बहुत गहरी नींद आती थी …..और जब खुलती थी तो दूसरा दिन होता था …..नया सवेरा होता था ….!!

"पर पारुल तो मुझे हर कीमत पर चाहिए …….!" राजन ने अपना वायदा दुहराया था . "बिना पारुल को लिए …मैं एक कदम भी ……." उस का अडिग फैसला था . 

और जब पारुल एक इच्छा की तरह उस के सामने आई तो …..उस ने सीधा आदेश दिया , "कल कलकत्ता जाना है ! गेट रेडी …..!!" राजन का आग्रह कम हुक्म ज्यादा था !

दोनों एक दूसरे को निरखती-परखती निगाहों से देखते रहे थे ! 

पारुल कुछ खोज-बीन करती लगी थी . राजन उसे चाहत पूर्ण नुगाहों से आमंत्रित करता रहा था . वह किसी जल्दी में था . उस के लिए पारुल को पा लेना ही धेय  था ….लक्ष था !!

"न …जा पाउंगी …..!" पारुल ने आह रिता कर कहा था . "दशहरे का उत्सव है . बड़ी ही धूम-धाम से मनता है ." पारुल तनिक मुस्कराई थी . "बहुत ….बहुत खर्चा होता है ….!!" पारुल अपने मुद्दे पर लौट आई थी . "तुम भी रुक जाते तो …..?" पारुल का आग्रह था . "यू नो …..मनी …इज ….." पारुल कई पलों तक राजन की आँखों में झांकती रही थी .

राजन की बात समझ में आ रही थी . पर वो समझना नहीं चाहता था . वह तो किसी तरह भी पारुल को लेकर …काम-कोटि से उड़ जाना चाहता था . दशहरे के उत्सव से न उसे कुछ लेना था ….न कुछ देना ! 

"आप के आँगन में मैंने नोटों का पेड़ लगा दिया है !" राजन को अचानक ही कर्नल जेमस की आवाजें सुनाई दे रही थीं . "अब न डूबेंगे ….तुम्हारे ….जहाज !! चाहे ….जित्ता  …उलीचना …."

बात सच थी . सेठ धन्ना मल तो चाह कर भी उतना धन न जुटा पाते ….जितना कि उन्हें मिला ….और उन के पौ-बारह हो गए थे ….!!

"कहो तो ….तुम्हारी काम-कोटि में नोटों का पेड़ लगा दूं ….?" राजन ने प्रस्ताव सामने धरा था . 

"वो कैसे …..?" पारुल ने उत्सुक होते हुए पूछा था . 

"कैसीनो …..!" राजन मुस्कराया था . "सच कहता हूँ, पारुल ! तुम्हारी ये काम-कोटि …मात्र एक छोटी रियासत नहीं ….विश्व का जाना-माना 'ट्यूरिस्ट' सेंटर बन जाएगा !" उस ने चहक कर पारुल को अपांग देखा था . "सच कहता हूँ, पारुल ! इतना धन बहेगा कि तुम्हारी ये ब्रह्मपुत्र भी छोटी पड जाएगी ……"

"गप्पी हैं , आप !!" पारुल ने चुहल की थी . "मैं वास्तव में मुशीबत में हूँ ." वह कह रही थी . 

"सेठ धन्ना मल भी तो मुशीबत में ही थे ….! उन का भी सब टाट-कमंडल गिरवी धरा था …..बिकने ही वाला था …!"

"फिर …..?" 

"फिर क्या ……? तुम देख नहीं रही हो ……कि सावित्री फिर से करोड़ों में किलोल कर रही है …..! और मैं …..? मुझे देख लो ….! मैं तो सच्चा कर्मयोगी हूँ, पारुल !" उस ने बड़े ही अपने पन से कहा था .

"तो रुक जाओ …..?" पारुल ने फिर से आग्रह दुहराया था . 

"नहीं !" राजन गंभीर था . "मुझे इंग्लैंड जाना है ! रेस है ….!! पैसा आएगा ….टनों में ….!!" वह नई  निगाहों से पारुल को निरखने लगा था . "चलो ! मेरे साथ इंग्लैंड चलो …!! देखना नज़ारे …." राजन हंस रहा था . "फिर तुम्हें लास वेगास दिखाऊंगा ……धरती पर पसरी जन्नत …!! वहां की हूर  ….वहां का वैभव ….! और फिर देखना मुझे पत्ते बांटते हुए ….."

"सावित्री ……?" पारुल का प्रश्न था . 

"हाँ,हाँ ! वह साथ ही थी ….!! जब हनीमून पर ….मैंने लास वेगास में सीन खड़ा किया था …..और ढेरों सारा धन लेकर लौटा था ….." वह मुस्कराया था . "ये बात भी सही है कि ……अगर कर्नल जेमस न होते तो ….शायद ….."

"जेल में होते …..?" पारुल ने पूछा . 

"हाँ ….!" राजन ने स्वीकारा था . "मामला ही संगीन बन गया था …..! लेकिन मैं ….मैं हारता नहीं हूँ, पारुल !" राजन ने डींग भरी थी . "मैं यही कह रहा हूँ कि ….काम-कोटि ….में एक बार मैंने अगर कैसीनो खोल दिया ….तो देखना कि …दुनियां भर के लोग यहाँ आयेंगे ….! यहाँ की रात दिन से भी बड़ी होगी ….! जगमग-जगमग आसमान की आँख में जड़ी काम-कोटि …..अपना अलग से स्थान पा लेगी ….! और फिर धन …..? जुआरी को जीत-हार प्यारी होती है ….., धन नहीं ! धन को तो वह लात मार कर फ़ेंक देता है ! कमाती है – कैसीनो !! रात-रात भर नोट वरसते  हैं ….., पारुल ! सच कहता हूँ कि …तुम ….." रुका था , राजन .

"पत्ते …..! जुआ …..? और ……" पारुल ने आपत्ति उठाई थी . "न …., बाबा ….! ये झमेला मेरे बस का कहाँ है …..?"

"और मैं जो हूँ ….?" राजन पारुल के ऊपर लरज-सा आया था . "मैं …..मुझे ……..मेरे ….." वह कुछ कह न पा रहा था .

"तुम भी कितने खिलाड़ी होगे …..! धंधे के लिए तो ……..?" 

"खलाड़ी हूँ, पारुल !" राजन ने अब संभल कर कहा था . "पत्ते मेरे इशारों पर नांचते  हैं …..! मैं जब खेलता हूँ तो ….आसमान तक देखने आता है ….मेरा खेल !!"

"पर मैं नहीं  ….मानती ……!" मचल कर कहा था , पारुल ने . 

"तो ठीक है ! आज रात को हम ….विचित्र लोक में ….पत्ते खेलते हैं . आखिरी रात है . बाँटते हैं , पत्ते …..?" राजन का सुझाव था . 

"मुझे नहीं आते ……."

"मैं सिखाऊंगा ….!"

"हार गई तो …..?" आँखें नचाते हुए पारुल पूछ रही थी . 

"मेरी …..!!" राजन का सपाट उत्तर था . 

"जीत गई तो …..?" पारुल ने भी पाशा उलटा था . 

"मैं तुम्हारा ……!!" राजन ने बाहें पसार कर पारुल को आगोश में आने को कहा था . 

"चित्त भी मेरी …..पट्ट भी मेरी ……!" पारुल भी पहेली बुझा रही थी . "अंटा मेरे बाबा का ….!!" वह जोरों से हंसी थी . "जुआरी हो …..!!" उस ने सीधा राजन की आँखों में घूरा था . "मैं नहीं आती …..!!" वह साफ़ नांट गई थी .

राजन हारा था ….या कि जीता था ……हिसाब नहीं लगा पा रहा था ….!!

………………..

श्रेष्ट साहित्य के लिए – मेजर कृपाल वर्मा साहित्य !! 

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