भोर का तारा – नरेन्द्र मोदी !

महान पुरुषों के पूर्वापर की चर्चा !

उपन्यास अंश :-

“फिर…?”

“कहर बरपा था – लोगों पर !” दादा जी सतर्क हो कर बता रहे थे . “जनरल डायर तो पहले से ही जला-भुना बैठा था ! गिद्ध की तरह टूट पड़ा था ! उस ने जहाँ ये काण्ड हुआ था – उस गली से गुजरने वाले भारतीयों को ….रेंग -रेंग कर चलाया था …..नाक रगड़ वाई थी …. और उस महिला -अंग्रेज से मांफी मंगवाई थी ! लोगों के दिलों में इतनी दहशत बिठाई कि वो आईंदा किसी अंग्रेज पुरुष या महिला के सामने तक न पड़ें  ..रास्ता छोड़ कर अलग हो जाएं ..और उन्हें पहले जाने दें !”

“अंग्रेज भगवान् से भी बड़ा है ! तुम्हारा भगवान् तो ईंट-पत्थर का बना है …और ये – अंग्रेज भगवान् तो जीता-जागता तुम्हारा देवता है ! ये तुम्हें रोटी देता है …शिक्षा देता है …और यहाँ तक कि तुम्हें तमीज-तहजीव तक सिखाता है ! इस का अनादर नहीं होगा ! किसी भी कीमत पर अंग्रेजों का अनादर बर्दाश्त न होगा !!” ये जनरल डायर का एलान था .

गुलाम बनाने के बाद तो हक़ मालिक के ही हाथ में आ जाता है – मैं सोचने लगा था . अंग्रेजों को विश्वास हो गया था कि …भारतीय अब उन के गुलाम थे …गुलाम ही रहेंगे ….और उन के क्राउन के ज्वेल ही बने रहेंगे !!

“पाल और किचलू को पकड़ कर ….जनरल डायर ने एलान किया था – कि अब वह पंजाब से आतंक को हमेशा-हमेशा के लिए मिटा देगा !” दादा जी बताने लगे थे . 

“कौन थे …ये पाल और किचलू …..?”

“एक हिन्दू था ….और दूसरा – मुसलमान ! दोनों ने मिल कर …तीन अंग्रेजों को मार डाला था ! जनरल डायर को एक बड़ा झटका लगा था ! पूरी तरह डराने-धमकाने के बावजूद भी ….अंग्रेजों के गुलाम …बगावत करने से बाज़ न आ रहे थे …? उस ने इन दोनों को पकडवा कर …इतनी कठोर यातनाएं दिलवाईं ….कि लोगों के दिल दहला गए ! और …..”

“और …..?” मैं बहुत उद्विग्न था . उझे तो क्रोध ही आने लगा था . 

“और उन्हें जेल भेज दिया ! न जाने …कौन सी जेल में भेजा … कहाँ भेजा ….किसी को अत-पता न था !” 

“लोग भड़के तो होंगे ….?”

“हाँ ! लोगों में रोष था ! हिन्दू-मुसलमान फिर से पास आए थे . फिर से एक आग सुलगने लगी थी . फिर से लोग लड़ने-मरने के लिए तैयार होने लगे थे ! लेकिन …..”

“लेकिन …..?”

“गाँधी जी अभी तक अपनी अहिंसा पर ही अडिग थे ! वो खून-खराबा नहीं चाहते थे . वो तो चाहते थे कि …किसी तरह …मिल=बैठ कर …अंग्रेजों को राज़ी कर लिया जाए …और ‘स्वराज’ की बात आगे चले …? लेकिन अंग्रेज तो बईमानी पर उतारू थे ! किस का ‘स्वराज’ ….कैसा ‘स्वराज’ ….अब उन के प्रश्न थे ! तुम्हें आता क्या है ….? तुम आज़ाद होने के काबिल हो कब ….?- उन का कहना था !”

“फिर ….?”

“फिर क्या ….? हमारे ‘पिट्ठू’ लोग उन की हाँ-में-हाँ भरते ….और उन के ही साथ बैठ कर मज़े ले रहे थे ! जन-मानस के साथ चंद नेताओं को छोड़ कर …कोई नहीं था ! हमारे राजे-रजवाड़े तो …अपने अंग्रेज भगवान् को ही प्रसन्न करने में लगे थे ! अपने-अपने ‘ओहदे’ और ‘अलंकार’ …पाने के लिए …ब्रिटिश शाशकों के चरणों में पड़े थे ! और जो गणमान्य व्यक्ति थे अंग्रेजों ने उन्हें भी …’राय-बहादुर’ …’राय-साहब’ …’लार्ड’ ….और ‘नाईट’ ….जैसे ही कुछ बेहूदे कलाम-करार दे कर …खुश कर दिया था ! अब वो भी अंग्रेजों के ही साथ थे ! ‘स्वराज’ का सपना एक दम धूमिल हो गया था !” दादा जी की आवाज़ भी बैठने लगी थी . 

निराशा का युग था – ये शायद – मैं सोच रहा था ! विश्व विजय करने के बाद अंग्रेज स्वभावतह बर्बर हो गए थे ! उन्हें अब किसी का डर नहीं था ! वो जानते थे कि भारत अब इन का था ! उन के लिए था ….और उन से था !! 

“१३ अप्रेल सन १९१९ के दिन एक नई चिंगारी सुलगी थी …आग बनी थी …फिर बबंडर बन कर फिजा पर फ़ैल गई थी .” दादा जी किसी अद्रश्य से एक और घटना को पकड़ लाए थे . “हाँ ! यही एक घटना है …जिसे मैं मानता हूँ कि देश का इतिहास बदलने में घटी – पहली कड़ी है ! यही एक लड़ी है – जो हमें जोडती है ….हमें तोडती है …हमें मज़बूर करती है कि …हम लडें … हम मर मिटें ….हम शहीद हो जाएं …हम जान पर खेल जाएं !” दादा जी का चेहरा तमतमा रहा था . “यही एक घटना है , नरेन्द्र ! जो ……..” वो चुप थे . 

“कौन सी घटना , दादा जी ….?” मैं चुप न रह सका था . 

“जलियाँ वाला बाग की घटना , नरेन्द्र !” दादा जी संभाल कर बोले थे . “कहें कि …जलियाँ वाला बाग का हत्या काण्ड ….या कहें कि एक जघन्य नर-संहार ….जो इस ज़ालिम जनरल डायर के हाथों हुआ था …और जिस ने पूरे देश को दहला कर रख दिया था !”

“जनरल डायर ने ऐसा क्यों किया था , दादा जी ….?”

“इस लिए , नरेन्द्र कि …  वो डरा हुआ था ….कि कहीं लोग …किसी साजिश के तहत …कोई क्रान्ति न कर बैठें ….जिस की वजह से उन्हें ‘भारत’ से हाथ धोने पड़ जाएँ ? वह अब तक की हुई तमाम क्रांतियों को …सुन और पढ़ चुका था ! वह जान गया था कि ये अनपढ़ और गंवार लोग …कुछ भी करने में सक्षम थे ! वह मानता था कि …बिना ‘दमन चक्र’ चलाए …और कोई रास्ता उन के पास न था …जो लोग उन के काबू आ जाते …?”

“फिर ….”

“बैसाखी का अवसर था ! लोग शांति-सभा के लिए जलियाँ वाला बाग़ में जमा हो रहे थे . शान्ति-सभा में लोकल लीडर पाल और किचलू के बारे में एक प्रदर्शन करने पर राय कायम करना चाहते थे .”

“तो इस में अंग्रेजों को क्या आपत्ति थी ….?”

“थी ! वह नहीं चाहते थे कि ‘मार्शल लॉ’ लगाने के बाद भी लोग इकट्ठे हों ! पंजाब को किसी भी कीमत पर वो …डंडे के नीचे रखना चाहते थे ! और जब जनरल डायर को यह सूचना मिली … तो वह भड़क उठा ! उस ने हुकुम दिए …! सभा का समय शाम के साढ़े चार बजे का था . वह अपने गोरखा और बलूच सैनिक ले कर …वहां पूरी तैयारी के साथ पहुंचा ! दो आर्मड कारें थीं …मशीन गनें थीं ….राइफलें थीं …और पूरी तैयारी थी ….ताकि ….” दादा जी अब चुप थे . 

“फिर ….?” मैं तो अब पूरी तरह से आंदोलित था . 

“पूरी मोर्चा बंदी कर के ….जनरल डायर ने …उन बे-गुनाह और निहत्थे लोगों पर …गोलियां चलवाई …उन्हें मारा …उन का खून बहाया …और उन्हें भागने तक न दिया ! वहां बने कुँए में लोगों ने छलांगें लगाईं ….भागने-दौड़ने की कोशिशें कीं …पर फिर वो जाते कहाँ ….? कोई रास्ता ही न था – भागने को ! असंख्य लोग मरे …घायल हुए …और ज़मीन उन के खून से लाल हो गई ! दर्दनाक द्रश्य था , नरेन्द्र ! लोगों की चीख-पुकार …डकराहटें  ….चिल्लाहटें …और दर्दनाक मौतें …एक बहुत बड़े वीभत्स द्रश्य का सृजन कर बैठे थे ….जो न आज भूला है ….और न ही भूलेगा कभी ….?”

मैं भी सन्न था ! मैं हैरान था ! मैं परेशान था ! मुझे रोष था !मैं क्रोध से काँप रहा था ….! कैसा रहा होगा ….वो वक्त …? कैसी होगी वो लाचारी …जहाँ मौत के उन बे-रहम दरिंदों ने ..उन्हें रौंदा होगा …? बे-गुनाह ….बेबस मरते …स्त्री-पुरुष …बच्चे …और उन के खून में लथ -पथ पड़े शव …? ये सब क्या थे ….?

कौन था …जो उन की पुकार सुनता ….? कौन था …जो उन का दर्द बांटता ….? और वो कौन था …जो अंग्रेजों को गले से पकड़ कर …उन से उत्तर मांगता …?

गुलाम भारत अंग्रेजों के सामने नत मस्तक हुआ खड़ा था !

और उन का जनरल डायर ….था …उन का ‘मैन ऑफ़ मैच’ …उन का परम  वीर … जिस का स्वागत भारत से ले कर इंग्लेंड तक हुआ था ! अंग्रेज औरतों ने जनरल डायर को …अपने गहने उतार-उतार कर सौगात में दिए थे …और उन के पूरे समाज ने उसे सम्मानित किया था !! 

जब कि  …जलियाँ वाले बाग़ में …पड़ी लोगों की लाशें …सुबकती रहीं थीं …सिसकती रहीं थीं ….!!!

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श्रेष्ठ साहित्य के लिए – मेजर कृपाल वर्मा साहित्य !!