महान पुरुषों के पूर्वापर की चर्चा !

भोर का तारा – नरेन्द्र मोदी .

उपन्यास अंश :-

“जलियाँ वाला में हुआ नरसंहार मेरे लिए दूसरा सबक है !” गाँधी जी ने कहा था .

मैं अचानक ही दादा जी की आवाजें सुनाने लगा था . मैं सुनने आगा था कि कैसे …गाँधी जी को हुए जलियाँ वाला बाग के नर-संहार ने झिंझोड़ कर …नींद से जगा दिया था ! आत्मा की गहराईयों तक वो दरक गए थे ! पूरा देश ही नहीं …अब तो पूरा विश्व ही …आहात हो गया था …..अंग्रेजों के मानवता पर किए इस प्रहार से !!

“और पहला सबक क्या था , दादा जी ….?” मैं पूछ बैठा था .

न जाने क्यों मुझे अपने पूर्वजों की लड़ी इस युद्ध -कथा को …सुनने में अपूर्व आनंद आता था ! मैं एक पल भी रुकना न चाहता था …झुकना न चाहता था …और न पलकें तक झपकाना चाहता था ! मैं चाहता था कि मैं ….इस समूची संघर्ष-गाथा को ….समाहित कर …एक सच्चे देश-भक्त के रूप में फिर से पैदा हो जाऊं …और ……

“पहला सबक मिला था …जब उन्हें …गोरों के आदेश पर …प्रथम श्रेबी के डब्बे में सफ़र करने के जुर्म में …उठा कर डब्बे से बाहर …प्लेट फ़ार्म पर पटक दिया था ! तब घोर असमंजस ..और निपट निराशा को …झेलती उन की आँखें फटी की फटी रह गईं थीं !”

“पर ऐसा क्यों हुआ था , दादा जी …? कहाँ हुआ था ये -हादसा ….?” मेरी जिज्ञासा जोरों पर थी . मैं सब कुछ दादा जी से विस्तार में सुन लेना चाहता था .

“इस लिए , नरेन्द्र कि …गोरों के अलावा …कोई भी गैर प्रथम श्रेणी के डब्बे में सफ़र नहीं कर सकता था !”

“क्यों …?”

“उन का राज था , भाई ! उन का कानून था , बेटे ! उन की रेल गाड़ी थी …और मेरे मित्र …सभी था …उन का …! एकाधिकार था – अंग्रेजों का ! उन्होंने सारी सुख-सुविधाएं अपने लिए सुरक्षित कर लीं थीं . वो नहीं चाहते थे कि ‘गोरों’ के साथ ‘काले’ आ बैठें ?” हंस गए थे , दादा जी .

“‘गोरों’ के साथ ‘काले’ …क्या मतलब हुआ इस का , दादा जी ….?” मैं तुनक था .

“अंग्रेज किसी और को बराबरी नहीं देना चाहते थे !” दादा जी विहंस कर बता रहे थे . “उन्हें भ्रम था -श्रेष्ठ होने का …गर्व था – संपन्न होने का …अहंकार था – सत्ता का ….और डर था – इसे गँवा देने का ! अतः वो चाहते थे कि …उन के अलावा …सब को निम्न श्रेणी मैं गिना जाए …गुलाम बना कर रक्खा जाए …भाड़े का टट्टू बना कर जोता जाए …और उन के श्रम के एवज उन्हें चंद सुख-सुविधाएं दे कर …बहका लिया जाए ! और जब गाँधी जी को उठा कर प्लेट फार्म पर पटका गया था …तो …उन्होंने इस होती साजिश को सूंघ लिया था !” दादा जी मेरी आँखों में कुछ ढूंढ रहे थे . “घटा तो …गाँधी पर ….पर थे वो अकेले ….निःसहाय …और ये घटना भी …साउथ अफ्रीका में घटी थी !”

“साऊथ अफ्रीका में वो क्या करने गए थे …?”

“लड़ने गए थे ….कानून की लडाई …लड़ने गए थे …वहां ! अपने ही कुछ वहां रहते देश-वासियों ने ..उन्हें पुकारा था …बुलाया था …कि उन के साथ होते जुर्म से …वो कानूनी तौर-तरीकों से लड़ें !”

“क्यों ….?”

“क्यों कि …गाँधी जी एक बैरिस्टर थे ! उन्होंने लंदन में रह कर ही तो अपनी कानूनी पढ़ाई पूरी की थी ? उन्हें अंग्रेजी आती थी . कानून भी आता था . वह भी अंग्रेजों की ही तरह सूट -टाई पहन कर रहते थे . और उन्हें भी भ्रम हो गया था कि वो अंग्रेजों की बराबरी में आ गए थे !”

“और अब उन का ये भ्रम टूट गया था ….?” मैंने प्रश्न किया था .

“हाँ ! उन का ये बराबरी का भ्रम टूट गया था …और उन्हें एहसास हो गया था कि …अंग्रेज एक बुरी बला का नाम था !” दादा जी ने बात का निचोड़ मेरे सामने रख दिया था .

मेरी आँखों के सामने अब जलियाँ वाला बाग न था …साऊथ अफ्रीका उभर आया था ….और अब मैं प्लैट फार्म पर पड़े गाँधी जी को ही निहार रहा था ! मैं देख रहा था कि किस तरह अंग्रेज नंगी मानवता की पीठ पर …कोड़ों से प्रहार कर रहे थे …और उठती चीखो-पुकार से उन का कोई लेना-देना न था !

“डर के काम नहीं चलेगा , मित्रो !” गाँधी जी ने अपने सहयोगियों-साथियों से सच-सच कहा था . “अंग्रेज हमें न मांगने से कुछ देंगे ….और न ही हमारा आग्रह सुनेंगे …! हमें लड़ना तो पड़ेगा …!!” उन के अंतिम वाक्य थे .

सभा में सन्नाटा छा गया था . सभी मौन थे . सभी जानते थे कि लड़ना इतना आसान काम न था ? अंग्रेजों के पास तब क्या नहीं था …? कौन लड़ सकता था – उन से ? गाँधी जी भी लड़ाई की बात कह कर स्वयं सकते नें आ गए थे !!

“क्यों ….?” मैं अब उत्सुक था कि जानू कि …गाँधी जी ने आखिर किया तो क्या किया …?

“गाँधी जी की आँखों के सामने अंग्रेजों का पूरे का पूरा इतिहास आ खड़ा हुआ था , नरेन्द्र !”

“कौन सा इतिहास , दादा जी …?”

“वही इतिहास जो उन्होंने स्वयं बनाया था …स्वयं बढ़ाया था …खून-पसीने से सींचा था …और सुंदर सपनों से संजोया था ! सदियों से वो लड़ते आ रहे थे …! जीत-हार का मजा लेते-देते …यहाँ तक पहुंचे थे ! अब उन के हाथ एक साम्राज्य आ लगा था . और उन्हें अब पानी पर तैरना आ गया था …हवा में उड़ना उन्होंने सीख लिया था …उन के पास ‘गन – पाउडर ‘ था …तोपें थीं …बंदूकें थीं …और थे लाम-बद्ध हो कर लड़ने वाले पूर्ण प्रसिक्षित सैनिक ! ‘मिलिट्री’ उन की एक कल्ट थी …और उसे ढोते उन के जनरल किसी भी तरह के युद्ध को जीतने में समर्थ थे …दक्ष थे ! ‘असंभव’ शब्द उन के शब्द-कोष से निकाल दिया गया था ! और यह सब गाँधी जी से छुपा न था ?” दादा जी चुप हो गए थे .

“साऊथ अफ्रीका …मेरा मतलब …दादा जी ….कि ….?”

“हिन्दुस्तान की तरह ही …अंग्रेजों ने साऊथ अफ्रीका को भी हथिया लिया था . सब मुफ्त में मिल गया था , इन्हें ! लम्बे-चौड़े फार्म हाउस बना-बना कर …अंग्रेज यहाँ रहने लगे थे . पूरे जहाँ से ला-ला कर गुलाम यहाँ बसा लिए थे …और कौड़ियों में खरीद लिए थे !”

“फिर कैसे लड़े इन से गाँधी जी ….?” मेरा मुंह सूख गया था . मैं चिंतित था . मैं महसूस रहा था कि जरूर ही गाँधी जी की जान पर बात बनी थी ? इतनी बड़ी लड़ाई अकेला आदमी लड़ता भी तो कैसे ?

“गाँधी जी का सोच सत्ता के सामने खड़े हो कर …विकल्प खोज रहा था …! वो बिलकुल गोली के सामने खड़े थे और सोच रहे थे कि ….क्या हो …जो जंग जीती जाए …? कतार दर कतार …उन के जहन में एक शक्ति रेंगती चली आ रही थी …! उन्हें एहसास हो रहा था कि …जरूर ही वो इस जंग को जीत लेंगे …पर …..”

“नहीं,नहीं ! यह काम आसान नहीं है ! ढोल से भी खाल जाएगी , गाँधी भैया ?” एक हिनुस्तानी बोल रहा था . “देश से पैसा कमाने यहाँ पहुंचे थे …जान गंवाने नहीं …? लौट जाएंगे , देश !” उस का निर्णय था .

“लौट सकोगे ….?” प्रश्न जुडी सभा से उगा था . “जाने कौन देगा , तुम्हें ….? अब तुम इन के गुलाम हो, तोता राम !”

“फिर तो मर के ही पिंड छूटेगा ….?”

“हाँ ! अब तो …करो …या मरो ….!!” एक खतरे की तरह शब्द गूंजे थे !

गाँधी जी ने महसूसा था कि ….सभा में उपस्थित सभी लोग पूरी तरह से डरे हुए थे . उन्होंने स्वयं इस डर पर पहले काबू पाया था …और फिर लोगों को समझाया था !

“मैं पहले मरूंगा ….सब के आगे चलूँगा …और पहला प्रहार मैं सहूँगा ! मैं ‘सत्याग्रह’ का स्वयं संचालन करूंगा ! मैं आप की मांग उन के सामने रखूंगा ! अगर हमारी मांगें नहीं मिलतीं तो …हम ‘अवज्ञा’ आन्दोलन छेड़ देंगे …और फिर …इन के सब नियम-क़ानून …ताक पर रख कर ….स्वतंत्र हो जाएंगे ….!!”

………………………………………

श्रेष्ठ साहित्य के लिए – मेजर कृपाल वर्मा साहित्य !