रामलालजी की बात चलते-चलते दर्शनाजी के मुहँ से निकल गया था,” एक बार रमेश ने पापे की लिखी हुई चिट्ठी गड्डी में पकड़ ली थी, उसमें लिखिया था..”

तभी रमेश का वहाँ आना हुआ था,” के बोले से!” उसनें अपनी माँ से पूछा था..

“ कुछ ना बापू के बारे में बतान लाग री हूँ.. जब तन्ने गड्डी में चिट्ठी पकड़ी थी”। दर्शनाजी ने रमेश से कहा था।

“ हाँ! हाँ!, ओ” रमेश बोला था, और अपनी बात पूरी करने में लग गया था।

रमेश सुनीता के आगे अपने बापू यानी के रामलालजी द्वारा लिखी हुई चिट्ठी के बारे में बात पूरी करने लगा था,” एक बार मैं बापू की गाड़ी अन्दर से साफ़ कर रहा था, कि अचानक से गाड़ी के डैश-बोर्ड में मुझे बापू की लिखी हुई एक चिट्ठी मिली.. जिसमें लिखा था.. मैं पैंसठ साल का एकदम तंदुरुस्त नोजवान हूँ.. दो फ़ैक्टरियों और संपत्ति का मालिक हूँ.. मैं शादी करना चाहता हूँ। रमेश ने आगे बात दोहराते हुए कहा था,” ये हरकत करे बैठा था, ये.. वो तो मुझसे ही गलती हो गई.. जो मैंने वो चिट्ठी फाड़ कर फेंक दी.. मुझे सबके सामने उस बापू की चिट्ठी को रखना चाहये था”। रमेश की बात पूरी होने के बाद दर्शनाजी बोलीं थीं..

“ इसने फैक्ट्री में भी एक बाई रख-राखी थी, जले हुए मुहँ की इसने पापा बोल्या करदी”।

दर्शनाजी का कहने का मतलब यह था.. कि रामलालजी ने फैक्ट्री में एक बाई रखी हुई थी, जिसका जला हुआ मुहँ था। रामलालजी को पापा कह कर बुलाया करती थी। दर्शनाजी ने सुनीता के आगे एक दिन बताया था, कि एक बार फैक्ट्री में भूमि पूजन समारोह था, जिस के लिये वो खुद और रमा को लेकर फैक्ट्री गयीं थीं.. ,वहाँ उन्हें वही जली हुई बाई दिखी थी.. जो सारे टाइम रामलालजी को पापा कहकर ही बुला रही थी। दर्शनाजी ने बात की सफ़ाई देते हुए कहा था,  अब सारे दिन पापा बोल रही थी, तो मुझे तो वह बाई सीधी ही लगी थी। एक दिन रमेश दोपहर के वक्त जब फैक्ट्री पहुँचा था.. तो दफ़्तर का दरवाज़ा बन्द था.. रमेश द्वारा दरवाज़ा पीटने पर अंदर से वही जली हुई बाई निकलकर भागी थी।

रमेश ने दर्शनाजी को बताया था, कि” बापू  जले हुई बाई ने अन्दर बिठा टेलीविज़न दिखान लाग रया था”।

रमेश का मतलब रामलालजी से था, कि वो उस जले हुई बाई को दफ़्तर में बैठा कर टेलीविज़न दिखा रहे थे।

रामलालजी का नाम बाइयों के साथ जोड़कर परिवार ने उनकी कहानियाँ सुनायीं और उन्हें थोड़ा बदनाम भी किया था। सुनीता को रामलालजी को देखकर यह बात बिल्कुल भी न जम रही थी। अब फ़िर भी घर वाले बार-बार एक ही बात दोहरा रहे थे, तो हो भी सकता था। खैर! रिश्ते में तो सुनीता के रामलालजी ससुर थे.. उनके बारे में थोड़े ही कुछ बोल सकती थी। न ही दर्शनाजी को लेकर ही कुछ कहा जा सकता था.. क्योंकि सासु- माँ जो थीं।

अब इतने सारे लोग घर में होते हैं, तो सबके अलग-अलग चरित्र तो मिलते ही हैं। सबके बावजूद इस परिवार में तो एकसाथ सारी खूबियाँ थीं.. संयुक्त था, संपत्ति की भी कोई कमी न थी.. और परिवार के सारे सदस्य मंझे हुए कलाकार तो थे ही।

चलो! सबकी कहानियाँ सुनते हुए.. अब सुनीता हर चरित्र से वाकिफ़ होती जा रही थी। अब हुआ यूँ कि प्रहलाद के आने की खुशी में एक दिन दरवाज़े पर किन्नर आ गए.. और नाच गाना शुरू कर दिया.. कहीं लड़के का जन्म हुआ हो, या फ़िर और कोई खुशी की बात हो. तो ये लोग सबसे पहले उस जगह पर पहुँच जाते हैं.. क्योंकि इनकी आमदनी का जरिया ही यह कमाई होती है। पर भई! क्या बताएँ रामलाल विला में तो कमाल ही हो गया था.. जैसे ही किन्नरों के नाच-गाने की आवाज़ आयी, दर्शनाजी ने सारे घर के खिड़की दरवाज़े बन्द कर अपने कमरे में जाकर बैठ गईं.. और तो और घर के बाकी के सदस्यों का भी कहीँ पता नहीं चला था। किन्नर घर के भीतर आ गए थे.. उन्होंने घर के चारों तरफ़ घूम कर देखा था, और दरवाज़ा पीटकर आवाज़ भी लगाई थी,” ये मम्मी! आजा बाहर पोता आया है, तेरे!”।

किन्नरों की पुकार का दर्शनाजी पर कोई भी असर न पड़ा था, और उन्होनें किन्नरों के लिये घर का कोई भी द्वार और खिड़की खोलकर उन्हें कोई  भी जवाब न दिया था। पर किन्नर बिना पैसे और इनाम लिये वापस जाने वाले नहीं थे.. सो ऊपर झीने से जो कि खुला हुआ था.. सुनीता के कमरे में पहुँच गए थे। सुनीता और रमेश प्रहलाद के साथ ऊपर ही थे.. रमेश की जेब में तो सुनीता को कुछ पाया न था.. इसलिये बिना किसी बहस के सीधी भोली सुनीता ने पिता के घर से लाई हुई विदा में पाँच सौ रुपये व अपनी एक नई साड़ी किन्नरों को प्रहलाद के होने की बधाई दी थी। किन्नर पाँच सौ रुपये में बात न मान रहे थे.. पर सुनीता और रमेश ने उन्हें मना लिया था, कि उनके पास इससे ज़्यादा पैसे देने को न हैं.. और परिवार का और कोई भी सदस्य उन्हें कुछ नहीं देगा। खैर! किन्नरों ने सुनीता की मजबूरी समझ दिये हुए इनाम में ही खुश होकर बच्चे को आशीर्वाद देकर वहाँ से निकल गए थे। किन्नरों के वहाँ से जाने के बाद तुरन्त ही घर के खिड़की दरवाज़े सब खुल गए थे।

यह क्या तरीका था.. परिवार का! करोड़पति होते हुए भी एकदम वाहईयात तरीका था.. क्या पहले पोते आने की खुशी में जेब से हज़ार पाँच सौ भी न निकल रहे थे.. जो बच्चे के पैदा होने की खुशी में ही हज़ार पाँच सौ न दे पा रहे थे.. वो आगे भविष्य के लिये क्या करते। सुनीता को अपनी जेब से इनाम न देकर इस बात पर उसी वक्त परिवार में आवाज़ उठानी चाहिए थी.. छोटी-छोटी बातें ही एक दिन बड़ा रूप ले लेतीं हैं, और फ़िर संभाले नहीं संभालतीं। और वो रमेश जिसका खुद का ख़र्चा उसकी माँ के हिसाब से पच्चीस हज़ार रुपये महीने का था.. अपने बेटे के लिये अनजान बनने का कौन सा नाटक कर रहा था। बात दअरसल यह थी, कि रमेश अपने परिवार के साथ ही शामिल था.. और सुनीता के भोलेपन और सीधेपन को बेवकूफ़ का दर्जा दे बैठा था.. और इसी सीधेपन का फ़ायदा उठाना भी शुरू कर दिया था।

सुनीता को परिवार के रंग के हिसाब से रंग कर काम करना चाहये था.. वो कहते हैं न जैसा देश वैसा वेश। अगर लोग तेज़ हैं.. और आपने भी भाँप लिया है, कि आपके साथ गेम खेल रहे हैं.. तो खिलाड़ी की तरह गेम खेला जाता है, सुनीता की तरह अपने पासे दूसरे को चलने नहीं दिये जाते, नहीं तो बाजी हाथ से निकल जाती है। इस घर में सुनीता का संस्कारवान होना और सीधा-भोलापन मूर्खो की गिनती में आ गया था.. जिसकी ज़िम्मेदार केवल सुनीता ही थी। पढ़ी-लिखी और नईं पीढ़ी की लड़की होने के बावजूद उसने अपने पासे किसी और को चलने की इज़्ज़ाज़त क्यों दी.. इसको सीधापन न कहकर मूर्खता कहा जाता है।