प्रहलाद का पीलिया घरेलू नुस्खे करने के बावजूद ठीक होने के बजाय बढ़ता ही जा रहा था। सुनीता ने प्रहलाद के बढ़ते हुए पीलिये से घबराकर रमेश को फ़ोन पर गाँव में ख़बर कर दी थी.. गाँव में तो कई प्रकार के घरेलू उपाय होते ही हैं.. रमेश ने गाँव में जब प्रहलाद के बढ़ते हुए पीलिये का ज़िक्र किया था, तो किसी ने रमेश को एक तालाब के बारे में बताते हुए कहा था,” उस तालाब का पानी भरकर ले जाओ और बच्चे को इसी तालाब के पानी से नहलाना जब तक कि पूरी तरह से पीलिया ठीक नहीं हो जाता”।
एक और नुस्खा बताते हुए, एक विशेष प्रकार की माला भी दी थी, और माला देते हुए माला के महत्व को भी बताया था,” जैसे-जैसे पीलिया कम होता चला जायेगा, यह माला भी घटती चली जायेगी, पीलिया पूरी तरह से ठीक होने के बाद माला पूरी छोटी हो बच्चे की गर्दन पर आ जायेगी”।
रमेश पीलिये वाली माला और कैन में पानी लेकर प्रहलाद और सुनीता के पास दिल्ली आ गया था। रमेश के चेहरे से प्रहलाद की चिन्ता झलक रही थी, पिता जो था। सुनीता ने रमेश के कहे अनुसार ही प्रहलाद के गले में वह माला पहना दी थी, और नन्ही सी जान को कैन में लाए हुए तालाब के पानी से निहलाने लगी थी। वाकई में माला अब छोटी होने लगी थी.. और शरीर का पीलापन भी कम हो रहा था। देखते ही देखते प्रहलाद पीले से काला सा पड़ने लगा था.. कला पड़ने का मतलब ही पीलिये के ठीक होने से था। पानी और माला ने अपना पूरा असर दिखाया और प्रहलाद अब पूरी तरह से स्वस्थ हो गया था। रमेश को तालाब का पानी हरियाणे से केवल दो ही बार लाना पड़ा था। दो बार में ही बीमारी पूरी तरह से ठीक हो गई थी।
कमाल ही हो गया था, रमेश दो बार बच्चे के लिये हरियाणे से पानी भी ले आये थे, और दर्शनाजी एक बार भी अपने बेटे के संग पोते से मिलने नहीं आईं थीं। आख़िर दादी का पोते से न मिलने आने की वजह क्या हो सकती थी, अब यह तो कहा ही नहीं जा सकता कि आतीं कैसे.. तो सौ साधन हैं, गाँव से दिल्ली तक आने के लिये.. और फ़िर घर तो राजा का ही था, मोतियों की भी कोई कमी न थी। खैर! कोई-कोई इंसान इतना नाटकबाज और मायावी होता है,कि परमात्मा भी उसे समझने में नाकामयाब हो जाते हैं। पर सोचने वाली बात तो यह थी, कि इतनी छोटी सी जान से आख़िर क्या दुश्मनी हो सकती थी, दर्शनाजी की। सोच तो पैसे तक ही सीमित थी.. इसलिये क्या पता सोच-सोच कर परेशान हो रही हो, कि,” लो! भई! आ गया एक और हिस्सेदार!”।
पैसा! पैसा! और पैसा! । “आगे पीछे नीम-तले इस औरत के दिमाग़ में बस! पैसे के अलावा कुछ और या फ़िर कोई और बात असर ही नहीं किया करती थी”।
पैसे यानी के संपत्ति को लेकर इस औरत की पकड़ इतनी मज़बूत थी, कि इस एक महिला ने सारे घर में चारों तरफ़ से कोहराम मचा रखा था। रामलालजी तो पूरी तरह से ही अपनी श्रीमती के कब्ज़े में थे। रमा और विनीत संपत्ति के लालची तो थे, जो हर कोई हो सकता है, पर अभी क्योंकि रमेश का नया-नया ब्याह हुआ था, इसलिये हिस्से को लेकर रमा और विनीत के मन में थोड़ी गुंजाईश थी.. और फ़िर दर्शनाजी ने भी अभी पूरी तरह से पासे फैंकने शुरू नहीं किये थे, जो आगे गोटी काटी जा सकती थी।
इधर सुनीता अनिताजी से नन्हें बालक की परवरिश किस प्रकार की जाती है, सब सीख रही थी। शिशु को कौन से आहार खिलाये जाते हैं, और किस हिसाब से और किस मात्रा में दूध व भोजन दिया जाता है.. अनिताजी सभी कुछ अपनी बिटिया को सिखाए चल रहीं थीं। अचानक एक दिन सुनीता के पास रमेश का फ़ोन आया..” मैं और अम्माजी आ रहें हैं , इंदौर वापिस जाने का प्रोग्राम बन गया है, पर क्योंकि अभी प्रहलाद पूरी तरह से ठीक नहीं है, इसलिये तुम अभी यहीँ दिल्ली में ही रुको मैं तुम्हें और प्रहलाद को लेने दोबारा से आ जाउँगा”।
सुनीता को जैसे ही पता चला था, कि दर्शनाजी और रमेश हरियाणे से आ रहे हैं, उसनें सारे घर में यह ख़बर फैला दी थी,” अम्माजी और रमेश हरियाणे से आ रहे हैं, यहीं से इंदौर के लिये निकल जायेंगे”।
” क्या! तुम भी साथ में जाओगी!”। अनिताजी ने सुनीता से प्रश्न किया था।
” नहीं, कह रहें हैं, जब प्रहलाद पूरी तरह से ठीक हो जाएगा तब दोबारा लेने आएँगे। सुनीता ने अपनी माँ को बताया था।
मुकेशजी के यहाँ समधन और दामाद आ रहे थे, इसलिये हमेशा की तरह पूरी तैयारियाँ शुरू हो गईं थीं। सुनीता अपने मन में ही सोचे जा रही थी, कि” अम्माजी तो पहली बार ही प्रहलाद से मिलेंगी, कितनी खुश होंगी प्रहलाद को अपनी गोद में लेकर”। भोली सुनीता की भोली सोच थी।
हरियाणे से आते-आते तकरीबन रात का ही समय हो गया था.. माँ बेटे को दिल्ली पहुँचते-पहुँचते। अब सब से मिलजुलकर निकलते है, वो भी इतनी दूर से आकर तो यूँहीं वक्त बितता चला जाता है, पता ही नहीं चलता। खैर! डोरबेल बजी थी,” लो! लगता है, रमेशजी आ गए, मैडम को लेकर”। मुकेशजी ने कहा था।
दरवाज़ा अनिताजी ने खोला था,” आइये दीदी!”। अनिताजी ने दर्शनाजी को संबोधित करते हुए कहा था।
” ऐ में तो आ ही गई” हरियाणवी लहज़े में बोलीं थीं.. दर्शनाजी।
” आइये! आइये! बैठिए!” मुकेशजी के पूरे परिवार ने रमेशजी और दर्शनाजी के स्वागत में कहा था।
यह क्या! नाटक था, सुनीता एक तरफ़ ख़ड़े होकर सासु-माँ को देख रही थी। घर के अन्दर आकर भी पोते का कोई ज़िक्र नहीं, नाम तक न लिया था, जैसे दादियां होती हैं। बस! हमेशा की तरह से सोफे पर बैठकर अपनी बीती हुई यादों को लेकर रोना शुरू कर दिया था। माना कि मायके से लौटते वक्त सभी की बहुत याद आती है, और रोना भी आता ही है, पर परिवार में अभी-अभी एक नए सदस्य का आगमन हुआ है, वो भी अपना ही खून.. पर दर्शनाजी को देखकर पोता किस चिड़िया का नाम है, पता ही नहीं लग पा रहा था। मुकेशजी का परिवार बेहद शरीफ़ और खानदानी होने के कारण दर्शनाजी को दूसरी तरह से ले रहे थे।बात यह है, कि जैसा इन्सान खुद होता है, सामने वाले को भी अपने जैसा ही समझता है। अनिताजी ने दर्शनाजी का हरियाणे से लौटकर यूँ रोने की वजह समझाते हुए कहा था,’ अरे! इसमें दीदी की कोई गलती थोड़े ही है, तुम लोग समझते नहीं हो, भई! बचपन में ही पिता का साया उठ गया था, दीदी बता रहीं थीं, जब पहली बार सुनीता के ब्याह के बाद आईं थीं.. इनकी माँ ने ही इन तीनों बहनों की अकेले उस ज़माने में परवरिश की है… और तो और दर्शनाजी की माँ ने दूसरा विवाह भी न किया था। सब ने इनकी माँ से कहा था.. तेरी तीन ही बेटियाँ हैं, दूसरा विवाह कर ले एक बेटा हो जायेगा, और तेरा वंश आगे बढ़ेगा.. अगर होना होता तो इन्हीं तीन कन्याओं पर से एक लड़का हो गया होता.. दर्शनाजी की माँ ने गाँव वालों और अपने ससुराल वालों से दूसरे ब्याह को लेकर कहा था. .मैं अकेली ही तीनों लड़कियों की परवरिश कर दूँगी, बिना किसी सहारे के”।
” उस ज़माने में कितनी मुश्किल हुई होगी माँ बेटियों को अकेले, बिना पिता के साये के”। अनिताजी ने दर्शनाजी के हर बार हरियाणे से दिल्ली आकर रोने की वकालत करते हुए कहा था। अनिताजी का दर्शनाजी को लेकर आगे कहना था,” जब भी दर्शनाजी की आँखों के आगे इनका पूरा बचपन घूमता है, इनकी रोकर बुरी हालत हो जाती है”।
किसी हद तक और किसी हद तक क्या! अनिताजी दर्शनाजी को लेकर उनकी बताये हुआ उनके अतीत को लेकर बिल्कुल सहीं थीं। पर ज़िन्दगी का एक अटल सत्य और होता है.. हर इंसान का कोई न कोई अतीत ज़रूर होता ही है, अच्छा या बुरा। अगर आने वाले समय पर अतीत ही छाया रहेगा तो ज़िन्दगी आगे चल ही नहीं सकती। बीते हुए दुखों को भुलाकर या फ़िर उन्हें अपने मन की स्मृतियों में कैद कर आने वाली खुशियों को दोनों हाथों से समेटना ही ज़िन्दगी का नाम है। दर्शनाजी की कहानी सुनने के बाद उनका पैसों के प्रति गहरा रिश्ता भी समझ आ ही गया था। साफ-साफ ज़ाहिर हो रहा था, कि दर्शनाजी ने बचपन से गरीबी भुक्ति है, और माँ बेटियों ने दर-दर की ठोकरें भी खायीं होंगी। इसलिये दर्शनाजी हर वक्त पैसा और भूखा-नंगा शब्द ज़्यादा इस्तेमाल किया करतीं थीं.. जो असल में किसी और का तो पता नहीं, उन की खुद की ही कमज़ोरी थी।
खैर! दर्शनाजी के दो पल चैन से बैठने के बाद उनका मन हल्का होने व चाय – नाश्ते के बाद मुकेशजी ने सुनीता से कहा था,” अरे! भई! सुनीता बिटिया! ज़रा प्रहलाद को तो लेकर आओ! उनकी दादीजी आयीं हैं, भई!”।
यहाँ पर भी मुकेशजी ही पोते को लाने के लिये बोले थे, दादी माँ ने खुद से मिलने की इच्छा ज़ाहिर नहीं की थी।
प्रहलाद को सुनीता ने लाकर दादी की गोद में लिटा दिया था.. पोते को गोद में पा.. फ़िर से रोने लगी थी, दादी,” हाय! मेरा जीतू!!”।
जीतू! जीतू! कहकर प्रहलाद को देख दर्शनाजी एक बार फ़िर से रोने लगीं थीं। कौन था.. जीतू जिसकी याद में प्रहलाद को गोद में देख रोने पर मज़बूर हो गईं थीं.. दर्शनाजी।