22 मई 1545 का बुंदेलखंड में होता सूर्यास्त शिव के किए तांडव की कहानी ले कर घर जा रहा था।
सम्राट शेर शाह सूरी का बदन बारूद की लपटों से बुरी तरह जल गया था। अपार वेदना का संचार पूरे शरीर में हो गया था। वह परम योद्धा शेर शाह सूरी जब खड़ा न रह सका था तो शर्म छोड़ कर वहीं जमीन पर लेट गया था। अभिलाषाओं और आकांक्षाओं की आंधी एकबारगी उसके जेहन में उठ खड़ी हुई थी।
“नहीं नहीं! मैं अभी नहीं मरूंगा!” शेर शाह सूरी बुदबुदा रहा था। “मैं .. मैं .. मैं तो हिन्दुस्तान को ..” उसकी जबान भी अटक गई थी। “नहीं नहीं! मैं .. मैं” बेहोश हो गया था – शहंशाह शेर शाह सूरी!
लेकिन कालिंजर का किला खिलखिला कर हंसा था। नष्ट भ्रष्ट हुई और टूटी फूटी किले की दीवारें शहंशाह शेर शाह सूरी का मखोल उड़ा रही थीं। लेकिन भागते दौड़ते और भ्रमित हुए अफगान, तुर्क, मुगल और बलूची सैनिक उन दीवारों से छुपे पड़े खजानों का पता पूछ रहे थे। पूछ रहे थे – सुंदर महिलाओं के पते और सर काटने के लिए पता लगा रहे थे राजपूत सैनिकों का ..
घोर निराशा चारों ओर से घिर आई थी और मृत पड़े शहंशाह सूरी का शरीर पुकार पुकार कर कह रहा था – रे मुसलमानों लौट जाओ अपने अपने घरों को! अजेय हैं ये हिन्दू!
लेकिन मर गये आदमी की आवाज सुनता कौन है?
एक बार मौका आ गया था – उन अफगान सरदारों के लिए जब वह अपना हकहकूक ले सकते थे, मांग सकते थे और छीन भी सकते थे। मृत पड़े शेर शाह सूरी से अब उनका कोई सरोकार न रह गया था। अब तो वो सब हिन्दुस्तान में भाग भाग कर अपने अपने सैनिक और अपने अपने राज्यों की सीमाएं बढ़ाने की सोच रहे थे।
“नहीं नहीं!” आवाज उठी थी। “इस्लाम शाह नहीं बैठेगा गद्दी पर!” सारे अमीर उलेमाओं की राय थी। “हक तो जमाल खान का बनता है!” उनका मशविरा था।
चूंकि जमाल खान कमजोर था, मूर्ख भी था और उन्हें उसे लूटने खाने में सुविधा भी थी अतः उन सब ने मिल कर जमाल खान को ही चुन लिया था। अब इस्लाम शाह विवश था। परेशान था। वह लड़ना तो चाहता था और विरोध करने का उसका मन भी था लेकिन ..
“शहंशाह शेर शाह सूरी को ससम्मान सासाराम के लिए विदा करें!” पंडित हेम चंद्र का पत्र पहुंचा था। “उनके पार्थिव शरीर को उनके इच्छित स्थान पर पहुंचाकर उनकी आत्मा को शांति प्रदान की जाए – यही शास्त्रोचित है!”
अचानक ही दिल्ली से आई पंडित हेम चंद्र की दस्तक ने हर कान के पर्दे खोल दिये थे। सब खबरदार हुए लगे थे। और जमाल खान से इस्लाम शाह सूरी बने नए शहंशाह को ये आया पत्र एक सहारा और बड़ी सहायता जैसा लगा था। इस्लाम शाह तनिक बुझ सा गया था। वह जानता तो था कि पंडित हेम चंद्र तो ..
और दिल्ली में अंधकार नहीं एक नया नवेला प्रकाश फूट पड़ा था। शहंशाह शेर शाह सूरी की इस अकाल मृत्यु को समय का संदेश माना गया था और उसी तरह मनाया भी गया था।
पंडित हेम चंद्र का आस पास अब फिर से हरा हरा हो गया था!
अब न तो निराशा थी और न ही कहीं अंधकार था। सामने भविष्य का सुनहरा सूरज उगा खड़ा था। असीमित सी भावनाएं सामने आ खड़ी हुई थीं। हिन्दुस्तान खाली पड़ा था और सौभाग्य आवाज देकर उसे पुकार रहा था। कोई था जो जोर जोर से घोषणा कर रहा था – हिन्दू राष्ट्र की!
“अब तो साकार हुआ धरा है – हमारा सपना!” केसर ने तो वक्त को सब कुछ समर्पित कर दिया था। “अब तुम्हें सम्राट बनने से कोई नहीं रोक सकता साजन!” वह हंस रही थी।
अचानक ही सूरी साम्राज्य दो खेमों में बंटा खड़ा था।
शहंशाह शेर शाह सूरी के दोनों बेटे गद्दी के हकदार थे और दोनों ही अपने अपने पक्ष को संभाल कर खड़े हो गये थे। अब दोनों ही एक दूसरे के खून के प्यासे थे और उन दोनों के सहयोगी साथी भी नई नई उमंगों से लबालब भरे थे। उन सब को भी उम्मीदें थीं कि उन्हें भी अब आगे बढ़ने के मौके मिलेंगे .. और ..
चर्चाएं थीं – उनके दादों परदादों की जीत हार की और हिन्दुस्तान में उनके आगमन और आरम्भ की। उन सब की लालसाएं भी उन्हीं की तरह लहलहाने लगी थीं और अपने अपने साम्राज्य बनाने के लिए सभी उत्सुक थे और सभी इच्छित थे!
“था क्या ये मीयां शेर खान!” चर्चा चल रही थी। “सौतेली मां के डर से भाग कर जौनपुर आ कर नौकरी की थी। थोड़ा बहुत ही पढ़ा लिखा था। बाबर आया था तो वहां जाकर प्राइवेट बन कर नौकरी की थी और फिर ..”
“बाबर के मरने के बाद उसी का भूत भर गया था इसके दिमाग में!” कोई दूसरा बता रहा था। “चालाकी से, चतुराई से और घात प्रतिघात से इसने सब जोड़ा तोड़ा और फिर सब समेट लिया!”
“अरे इसने नहीं किया कुछ। किया धरा तो सब इस पंडित का है!” एक और राय सामने आई थी। “क्या खा कर हरा देता ये हुमायू को?” प्रश्न था। “हुमायू के पास तो एक से एक बड़ा सिपहसालार था, तोपें थीं और लाव लश्कर था लेकिन इस पंडित के किए करिश्मे ने ही इसे शहंशाह बना दिया!”
“ये तो मंदबुद्धि था।” हंस पड़े थे सब लोग। “ये सारा बंदोबस्त और ये सारे नियम कानून इस पंडित की ही तो देन हैं! अगर पंडित यहां होता तो ये कभी न हारता कालिंजर!”
“अब तो फिर से आ गया पंडित का फरमान!” बशीर बताने लगा था। “सासाराम जाएगी शहंशाह की लाश!”
“लेकिन लड़ेंगे तो जरूर दोनों!” चर्चा चल पड़ी थी।
“लेकिन जीतेगा वो जिसके साथ पंडित खड़ा होगा।” एक सही और बेबाक राय थी।
“और पंडित किसके साथ खड़ा होगा?” एक और प्रश्न सामने आ गया था।
“जो भी पंडित के मन भाएगा!” सब एक साथ हंस पड़े थे।
“तो क्या हम सब झक मारते रह जाएंगे?” बशीर का सवाल था। “हमें कुछ भी नहीं मिलेगा क्या? क्या हम सब मिल कर इस पंडित को ..?”
प्रश्न का उत्तर चुप्पी ने ही दिया था। शायद पंडित हेम चंद्र का जोड़ उन सब के पास नहीं था।
“किसके साथ होगे आप जंग में?” पंडित हेम चंद्र ने राजा टोडरमल को बुला कर प्रश्न पूछा था।
“हम आपके साथ होगे शहंशाह!” हंसते हुए उत्तर दिया था राजा टोडरमल ने।
अब वो दोनों एक दूसरे को देख परख रहे थे। हेमू हैरान था कि राजा टोडरमल को उसके सारे भेद मालूम थे। इस प्रसन्नता ने हेमू को गदगद कर दिया था। ये शायद उसका सबसे बड़ा सौभाग्य था जो टोडरमल जैसा होशियार और बुद्धिमान सहायक उसके पक्ष में आ खड़ा हुआ था।
“सबका सब ज्यों का त्यों चलाएं!” हेमू ने सीधे सीधे हुक्म दिया था। “अवसर मिला है तो इस्तेमाल करते हैं!” तनिक हंसा था हेमू। “अच्छे दिनों ने एक पुश्त के बाद दस्तक दी है, राजा साहब! स्वागत करते हैं – सहयोग करते हैं! इससे अच्छा अवसर हमें शायद फिर कभी न मिले!”
“सत्य वचन राजन!” राजा टोडरमल ने बड़े ही आभार के साथ हेमू के सुझाव को स्वीकार किया था। “मेरा तन मन धन आपकी सेवा में हमेशा समर्पित रहेगा सम्राट!” उन्होंने वचन दिया था।
सासाराम से लौट कर दोनों भाई आमने-सामने मोर्चों पर आ डटे थे।
दिल्ली के सिंहासन पर बैठा इस्लाम शाह सूरी कातर निगाहों से अपने सहयोगी अफगानों, तुर्कों, मुगलों और बलूचियों का अवलोकन कर रहा था। उनमें से उसे एक भी अपना वफादार दिखाई न दिया था। वो सब के सब भूखे भेड़िए थे .. और ..
“पंडित हेम चंद्र जी को बुलवाइये!” इस्लाम शाह सूरी ने हुक्म दागा था।
ये हुक्म ही नहीं जैसे उनकी पहली फतह का डंका था जो सीधा धरे नगाड़ों पर पड़ा था और जीत का जयघोष हवा में गूंज उठा था।