महान पुरुषों के पूर्वापर की चर्चा !

भोर का तारा -नरेन्द्र मोदी .

उपन्यास अंश:-

लेकिन अब मेरा मन चला-चली में था ! में चल पड़ा था -दिल्ली की ओर !!

मैं गुरु जी के बोल सुन रहा था ….!!

“कल डेरा उखड जाएगा ,नरेन्द्र !” वो बता रहे थे . “काशी की ओर प्रस्थान करेंगे …!” वो बता रहे थे . “रास्ते में पड़ाव पड़ते रहेंगे ….और हम चलते रहेंगे ….” वो बहुत प्रसन्न थे . “आनंद आता है, रे !” उन का मन प्रफुल्लित था . “बहुत रह लिए ,गंगा सागर !!” वह मौन हो गए थे .

लेकिन मेरा मन चल पड़ा था ! पड़ाव-दर-पड़ाव मैं चल पड़ा था . मुझे न जाने कैसी ख़ुशी ने आ घेरा था …? मैं जिन्दगी को कदम-दर् -कदम चल-चल कर नाप रहा था …महसूस कर रहा था ! अभी तक घर की ओर मुड़ने का मेरा मन न था ? लेकिन मैं घर को भूला भी न था …?

यात्रा आरंभ हुई थी . था क्या नागा बाबाओं के पास …? अपने-अपने लंगोटे और लाठियां उठा कर चल पड़े थे ! रास्ता सभी को याद था . पड़ाव भी ज्ञात था . रास्ते में ही सब ने भिक्षा मांग कर ..अपनी क्षुधा पूर्ती कर लेनी थी ! न कोई इच्छा थी ….न कोई चाह …! राह सीधी थी …और उसी पर जाना था !!

“क्या कभी …आप को चित्रा की याद आई ….?” मैंने रास्ता चलते-चलते गुरु जी के शांत मन-प्राण को हिला दिया था . मैं उस घटना के परिणाम जान लेना चाहता था .

अचानक गुरु जी चौंके थे ! वह कहीं से हिल गए लगे थे !!

“सच-सच बत्ताता हूँ,नरेन्द्र !” उन की बोली गुरु-गम्भीर थी . “सत्य तो ये है ,नरेन्द्र कि …’हाँ’ भी ….और ‘ना ‘ भी …!” मुड कर देखा था ,उन्होंने मुझे . “‘हाँ’ तो इस लिए ,नरेन्द्र कि …कि …कमाल ही था …कि …तनिक-सी मन की चूक पर …चित्रा मेरे पास आ खड़ी होती ! मैं भी चित्रा के सौन्दर्य को निज-का -तिज देख लेता ! उस की मधुर मुस्कान मुझे पुकार लेती ! और उस के आग्रह ….? उफ़ ….!! कितना उन्माद भरा होता – उस के उन आग्रहों में ….?मैं तुम से बयान नहीं कर सकता ,नरेन्द्र !” गुरु जी चुप हो गए थे .

मैं भी चुप था . मैं भी यही सोच रहा था कि …पुरुष के लिए ‘औरत’ एक उन्माद का दूसरा नाम ही है …? औरत जब पुकार लेती है …..पुरुष को … तो उस के पैर रुक नहीं पाते …? संयम बिगड़ ही जाता है ….और ….

“संयम…साधना ….तपस्या …और त्याग ….कुल शक्तियां मिला कर …मैंने एक ही प्रयत्न किया …कि मैं चित्रा को भूल जाऊं ….?”

“क्यों ….?”

“क्यों कि …,नरेन्द्र ! वो वासना थी – -जो मुझे बुलाती थी ! चित्रा मेरी पत्नी तो न थी …? ये तो व्यभिचार ही तो था ….? बुरा ही तो था ….? अनैतिक ही तो था …? फिर मुझे इसे भूल ही जाना चाहिए था ….????”

“चित्रा का क्या हुआ ….?”

“कुछ पता नहीं ! मैंने कभी घर की ओर मुड कर ही न देखा …आज तक …! मुझे पता नहीं ,नरेन्द्र कि ..वहां ..उस के बाद क्या हुआ ….? न मैंने कभी कोशिश ही की ….! परमात्मा के चरणों को पकड़ कर मैं … निर्मोही अखाड़े में पड़ा ही रहा …और अंत में मुक्ति पा ली मैंने …संसार के व्यामोह से …!!” वो अब प्रसन्न थे . “लेकिन ,नरेन्द्र ! तुमने ये सब क्यों पूछा ….?”

“इस लिए ….गुरु जी ….” मैं हिचकी ले गया था . “इस लिए कि ….मैं …शादी-शुदा हूँ !” मैंने भीतर की बात उगल दी थी . मैं ये सत्य गुरु जी से छुपाना न चाहता था . “शादी …..” मैं चुप हो गया था .

“हो तो गई ,शादी ….?” गुरु जी ने ठोस सत्य पर उंगली धरी थी . “शास्त्रों के अनुसार तो …तुम ने अपनी पत्नी को …स्वीकार कर ही लिया …?” पूछ रहे थे ,वो .

“ह ह ह हाँ …!” मैं कठिनाई से कह पाया था . “मैंने विरोध तो किया था ….पर ….”

“ये होतव्य -होता है , नरेन्द्र ! होने से रुकता नहीं ! जो मेरे साथ हुआ ….जो मंजू के साथ हुआ ….और जो तुम्हारे साथ हुआ ….उसे तो होना ही था …?” गुरु जी ने एक अटल सत्य पर उंगली धर दी थी . ‘आगे जो होगा …वह भी होगा ही ….!” वह हंस पड़े थे . “मैं और तुम उसे रोक ही नहीं सकते ….?”

“तो …क्या …हम ….” मैं कुछ पूछ लेना चाहता था .

“आने वाले भविष्य के लिए ….साधना कर सकते हो ….प्रार्थना कर सकते हो ….लेकिन उसे मोड़ नहीं सकते …? अब …इस जीवन में …जो घटेगा …वो तो घटेगा ….!!”

“क्या घटेगा ….?” मैं तुरंत ही पूछ लेना चाहता था . लेकिन चुप रह गया था . न जाने क्यों मैं आज नहीं चाहता था कि ‘घटनीय ‘ को जानूं …?

“तुम्हारी तो अभी उम्र ही कुछ नहीं है,नरेन्द्र !” गुरु जी सहज हो गए थे . “बच्चे हो !” उन्होंने मुझे स्नेह पूर्वक देखा था . “परमात्मा ने तुम्हारे लिए कुछ नायाब ही रच रखा है !” उन का कथन था . ” मैं अनुमान …तो लगा सकता हूँ ….अर्थ नहीं बता सकता ….!!” हाथ झाड दिए थे , गुरु जी ने .

“मुझे तो यों ही ….चलने-फिरने …..घूमने-घामाने में …..आनंद आता है .गुरु जी !” मैंने हलके मन से कहा था .

“वह चाहता है ….प्रकृति चाहती है कि ….तुम खुली आँखों से उसे देखो ….समझो ….और सोचो !” एक पल के लिए रुके थे ,गुरु जी . “तुम्हारा विछोह यों ही नहीं हुआ ….?” वह अब एक सत्य को उजागर कर रहे थे .”उस की ये चाल है !” फिर हँसे थे , गुरु जी . “कभी …याद तो करते होगे ….?”

“जसोदा बैन को मैं भी कहाँ भूल पाता हूँ, गुरु जी ….?” मैंने स्वीकारा था . “एक अपराध बोध-सा भरने लगता है ….मुझ में ….” मैं गंभीर था . “न जाने क्यों ….मन खट्टा हो आता है …जब सोचता हूँ …कि जसोदा बैन …की क्या गलती ….उस का क्या दोष …..?”

“सहयोग ….समझो इसे ,नरेन्द्र !” गुरु जी ने अमृत-वचन कहे थे . “पुरुष और नारी का सम्बन्ध …जब प्राकृतिक नियमों के अनुसार होता है …तो वो स्वयं ही दो से एक हो जाते हैं ….मनसा-वाचा और कर्मणा …जुड़ जाते हैं ! केवल म्रत्यु ही उन्हें अलग करती है ….और कोई नहीं ….!!”

“लेकिन ….लेकिन …गुरु जी …..मेरा मन तो गृहस्थ में जाता ही नहीं ….?”

“मत जाने दो ! अपना कर्म तो करोगे ….? तुम्हारी पत्नी का …तुम्हारे हर कर्म में …साझा रहेगा , पुत्र ! कल तुम बड़े बनोगे ….वह भी बड़ी बनेगी …..! कल तुम ….” अब गुरु जी मुझे देख रहे थे . “कर्म करते रहो ….श्रेष्ठ कर्म …! उसे दुःख न होगा …और न ही पश्चाताप ….होगा ! क्यों कि …उन तुम्हारे श्रेष्ठ कर्मों में …उस का भी साझा होगा ….?”

“जो आज्ञा , गुरु जी !” मैंने हाथ जोड़ कर उन की आज्ञा को स्वीकारा था .

फिर हम दोनों कदम-से-कदम मिला कर अपनी यात्रा पूरी करते रहे थे ! हम चुप थे …पर कहीं भीतर से हम सुलग गए थे …!!

“दिल्ली मेरे साथ ही जाएगी,जसोदा ….?’ मैं हंसा था . “उसे तो लोगों ने कब का खोज लिया है …? उसे तो कांग्रेस ने भी एक उपलब्धि मान कर सीने से लगा लिया है . कांग्रेस के लिए तो तोप है ,जसोदा …? जगत के सामने कब और कैसे ..उसे मेरे खिलाफ …उजागर कर बैठें …कौन जाने ….?

लेकिन मैं गुरु जी के आदेशानुसार …श्रेष्ठ कर्म करूंगा ….और जसोदा को उस की सहभागिता मिलती ही रहेगी …….

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श्रेष्ठ साहित्य के लिए -मेजर कृपाल वर्मा साहित्य !!