पर नियति मेरे हाथ में न थी !!

महान पुरुषों के पूर्वापर की चर्चा !

उपन्यास अंश :-

मैंने मन को शांत किया . मैंने अपने धीरज को खोजा . मैंने सोचा ….कुछ दिन और इस आश्रम में गुजारूं ! मुझे उम्मीद थी कि मुझे कोई न कोई विकल्प तो मिलेगा ज़रूर ! क्यों कि मैं अभी तक घर लौटने के बारे में नहीं सोच रहा था ! घर का मोह तो मुझ से कोसों दूर था ! मैं ….अकेला …मस्त ….निफराम …..बिलकुल स्वस्थ …और एक दम ठीक-ठाक था !!

“यों तो गुजरेगी नाघी, नरेन्द्र ….?” मेरा विवेक बताने लगा था . “निरुद्देश्य …तो जीना ही ..व्यर्थ है , मेरे भाई !”

“चलो ! कुछ खोजता हूँ ….” मैंने स्वयं से कहा था …..और आश्रम की लाइब्रेरी में चला गया था .

मैं चाहता था कि और भी खोज करूं , मैं चाहता था कि ..कुछ इस तरह के रत्न मुझे मिलजाय  …जिन के पीछे-पीछे मैं चलपडूं …और एक जीवन का आयाम ….पा जाऊं …!! 

लाइब्रेरी में घुसते ही मेरी निगाह एक बहुत सुंदर स्त्री के चित्र पर जा टिकी थी ! पहली नज़र में ही मैं ताड़ गया था कि ….ये स्त्री भारतीय न थी . उस का मुझे  रूप- स्वरुप बता रहा था कि …वह कोई विदेशी महिला थी ! उस की गहरी नीली आँखों में मुझे …अनाम-से समुंदर तैरते लगे थे ! उस के प्रियदर्शी स्वरुप में …मुझे अनेकानेक आदर्श लहराते दिखाई दिए थे . वह हर-हर माइनों में बेजोड़ थी ! वह अवश्य ही कोई देवी थी ….कोई दिव्यता थी …जिसे जानने को मेरी जिज्ञासा …कूदने-फांदने लगी थी ! 

इस छोटे परिचय से मेरा पेट नहीं भरा था ! ये स्त्री …या कि …ये समाज सेविका …मुझे माँ शारदा से …बिलकुल भिन्न लगी थी ! मुझे लगा था – इस स्त्री के अन्तर में …एक आग है ….जलाने वाली आग ! और ये आग आज तक भी धधक रही है ! न जाने क्यों …ये आग बुझ नहीं पाई है …? और शायद ….आज भी ये किसी के आने के इंतज़ार में है !! 

“स्वामी विवेकानंद ….शिकागो से ….लंदन आए थे ! तभी सन -१८९७  में …उन की मुलाक़ात …एलिज़ावेथ से हुई थी ! स्वामी जी का वेदान्त इतना विख्यात हो चुका था कि …यूरोप के लोग पागलों की तरह …उन के अनुयाई बनने लगे थे . अब तक एलिज़ाबेथ भी उन की दीवानी हो चुकी थी ! उस का एक पूर्व प्रेमी मर चूका था ! उस का मन अशांत था . ये एक टीचर थीं . लेकिन दो साल बाद एलिज़ाबेथ अपना घर-बार छोड़ कर …स्वामी जी की शरण में ….सन १८८९ में चली आई थीं .

“ब्रह्मचर्य ….हमारे बीच की ….पहली शर्त होगी …., निवेदिता ! ” स्वामी विवेकानंद के कंठ-स्वर मुझे सुनाई देने लगे थे . 

“मुझे स्वीकार है, स्वामी जी !” निवेदिता का मधुर स्वर भी मैंने सुना था . 

“निवेदिता ….मीन्स ….द ….गोडस …सरवेंट  ….!” स्वामी जी ने उन्हें समझाया था . “मैंने तुम्हें ‘निवेदिता’ नाम सोच-समझ कर दिया है ! अब से तुम भगवान् की सेविका हो …..”

“और …..आप …की ….?” 

“हम तो दोनों सेवक हैं ! हमारा धर्म मानव सेवा है ! समाज के सुख-दुःख हमारे …सुख-दुःख हैं , निवेदिता !” उन्होंने बताया था . 

स्वामी विवेकानंद को लम्बी उम्र नहीं मिली . उन का तो मिशन तक पूरा नहीं हुआ ….! निवेदिता ने उन के अंत समय में खूब सेवा की . लेकिन कुल ३९ साल की उम्र में …उन्हें अपने प्रिय भारत को छोड़ कर जाना ही पड़ा ….!! 

“जाना तो …मुझे भी …पड़ेगा …ही ….?” मैं स्वयं से कह रहा था . “लेकिन …अपने मिशन को ……”

“बड़े बोल ….मत बोलो , नरेन्द्र !” ये आवाज़ निवेदिता जी की थी . “मैंने भी तो स्वामी जी के जाने के बाद एक जंग छेडी  थी …!”

“कौन सी जंग …..?” 

“आज़ादी की जंग ….!” अब निवेदिता जी बता रही थीं . “मैं लार्ड कर्जन से सीधा-सीधा भिड़ गई थी ! मैंने ब्रिटिश साम्राज्य का खुल कर विरोध किया था ! मैंने प्रचार किया था ….मैंने बंगाल में पड़े दुर्भिक्ष के समय ….लोगों की खूब सेवा की थी ! मैंने माना था कि ….मैं …देश को आज़ाद करा कर ही दम लूंगी ! मेरे साथी – विपिन चन्द्र पाल ..टिगौर …..” वह अनेकानेक नाम गिनाती की चली जा रहीं थीं .  

एक नया माहौल मेरी निगाहों के सामने आ कर ठहर गया था ! 

लगा था – मैं कुछ खोजने में सफल रहा था !! 

उस रात ….हाँ,हाँ ….उसी रात …मैं अकेला ही गंगा तट पर बैठा-बैठा विरहा के आंसूओं से रोता रहा था ! न जाने क्यों …उस रात मुझे जसोदा की याद आई थी ….? न जाने कैसे ….और क्यों …मैं जसोदा को इन दो हस्तीयों के सामने ….बार-बार पेश करता रहा था ….? और मैं मानता रहा था कि ….जसोदा …कहीं भी त्याग-तपस्या में …इन से छोटी न थी !! 

पर नियति तो मेरे हाथ में न थी …..!!!

…………………..

क्रमश :-

श्रेष्ठ साहित्य के लिए – मेजर कृपाल वर्मा साहित्य !!