क्यों नहीं लिखोगे इसका भी कारण मैं जानती हूँ। तुम जाते ही गोरख धंधे में फंंस गए होगे और भारत को अमेरिका बनाने के प्रयत्न में भूल गए होगे कि अमेरिका में कुछ पीछे छोड़ गए हो। जानना चाहते हो तो सुनो – दिल! जी हां ये हमारे पास गिरवी रक्खा है।
सच दलीप मैं तो उस मनहूस घड़ी को कोसती हूँ जब मैंने तुम्हें कुछ करने को कहा था। तुम्हारे कोरे मानस पटल पर – काम करो का वाक्य लिख दिया था और तुम्हारे सोते अहम को जगा दिया था। कभी सोचती हूँ मैंने ठीक किया तो कभी अपने आप के लिए गालियां निकलती हैं। मैंने जो तुम्हारी आंखों में चमक अबकी बार देखी है – भयभीत कर गई है। सच! तुम कितने कर्तव्य परायण हो और कर्मठ बन गए हो? जब भी निजी स्वार्थ का गला घोंट पाती हूँ तो शुभकामनाएं निकलती हैं। मेरा दलीप महान बने, औरों का संबल और सहारा बने, देश का महान नेता और एक कल्याणकारी पुरुष बने! इसी पुरुष महान के गले में गलबहियां डाले मैं एक सांसारिक संज्ञा बन कर सब कुछ इसी भावावेश के अगाध सिंधु में अमर चेतना का कोई बिंम्ब बन कर तिरोहित हो जाऊं ताकि दलीप और सोफी के बीच का अंतर भर जाए!
ये अंतर ..? सच डार्लिंग – आवाजें आ रही हैं, इतनी याद आ रही है, इतने विगत के प्रश्न उठ रहे हैं और इतनी प्रबल चाह से भरी हूँ कि बस चले तो इसी पल तुम्हारे आगोश में आ कर ठहाके लगाऊं, घंटों बतियाती रहूँ, घंटों मौन साधे तुम्हारा सौष्ठव, तुम्हारा तेज और आंखों में भरी चमक निहारती रहूँ। तुम्हारे बदन की महक नासा रंध्रों में समा रही है, तुम्हारा हुल्लड़पन याद आ रहा है और तुम्हारी वो मुक्त हंसी, हास परिहास का तौर तरीका – सभी मिल कर सता रहे हैं। तुम भी सता रहे हो दलीप .. दलीप तुम हर पल सताते रहते हो। लेकिन क्यों? ओ माई डियर दलीप …
न तुमने आने का वायदा किया न हमने आने को कहा! सच! तुम बहुत बदल गए हो। मैं बदलाव से डरती हूँ। सैलाब से खौफ खाती हूँ। अपने खोटों को कोसती हूँ और ये सब जानते हो क्यों करती हूँ? तुम्हें पाने के लिए। हां दलीप! अब मैं वही करती रहती हूँ जो तुम्हें अच्छा लगता है। अंजाने में अगर कभी कदम बढ़ता भी है तो छिटक कर पूछती हूँ – क्या दलीप को ये भाएगा? सोचोगे मैं तुम्हारी पसंद नहीं जानती। अगर तुम्हारी अपनी पसंद को तुम्हारी पसंद का पता न चले तो वो पसंद ही क्या रही? मेरी जान! अब हम तुम्हें जान गए हैं।
मैं एक बार मर कर जी पाई हूँ और इसका श्रेय तुम्हें है दलीप। मैं जानती हूँ कि टोनी का नाम सुन कर तुम किस तरह आहत हुए थे, निराश हुए थे और एक बोझिल मन ले कर लौट गए हो। मेरा अपना अनुभव तो यही है दलीप कि जिंदगी और मौत जिंदा रहने के ही दो तरीके हैं। कुछ मर कर भी नहीं जी पाते तो कुछ जी कर भी नहीं जी पाते। मैंने तो अब तुम्हारे लिए जी जाने का फैसला कर लिया है। तुम्हारी बन कर रहने का व्रत लिया है और अपने आप से वायदा कर लिया है – दलीप को पीछे नहीं खींचूंगी। तभी मैंने तुम्हें नहीं रोका था।
मेरा तुम पर अधिकार तो कोई नहीं पर हां प्यार के नाम पर एक पत्र की मांग है। लिखोगे न डार्लिंग? व्यस्त पलों से कट कर अपने प्यार के बहते स्रोत की स्याही से चंद लाइनें लिख देना! लिखना कि तुम .. कि तुम मेरे हो! हां दलीप! इस वाक्य विशेष से मुझमें जीने का विश्वास भर गया है। डर तो लग रहा है डार्लिंग कि कहीं तुम निराश न कर दो! काश! मैं तुम्हारी मुश्किलों में साथ होती!
हजार बार प्यार – माई डार्लिंग! माई ओनली दलीप … ओ दलीप! स्वीट-स्वीट – लुच्चा और मेरे मन का चैन! तुम्हारे सहारे जीने की आस में तुम्हारी अपनी – सोफी।
मन अज्ञात सी खुशी से भर गया है। बार-बार मैंने पत्र पढ़ा है। लगा है कोई खोई खुशी लौट आई है। मेरी बिछुड़ी सोफी लौट आई है और मैं अपने सारे संघर्षों को सफल हुआ मान बैठा हूँ। आगे बढ़ने की चाह ताजा होती लगी है। जीने की चाह और उठने की चाह सर पर चढ़ कर बोल रही है। अगर सोफी चाहती है कि मैं ऊपर उठूं तो जरूर उठूंगा! आज का ही कुचला विद्रोह, मिली सफलता और खरीदा त्यागी मुझे अजेय उपलब्धियां लगने लगी हैं। मुझे कौन रोक पाएगा – एक चुनौती जैसा वाक्य मैंने अमेरिका की ओर चालू कर दिया है ताकि सोफी से जा कर कह दे कि मैं आगे बढ़ रहा हूँ। आगे बढ़ रहा हूँ और बढ़ता ही रहूँगा। लिफाफे से निकला ये पत्र मुझे डूबते का सहारा लगा है। एक धरोहर की तरह कोई संजो कर रखने की वस्तु और किसी के सच्चे मन से आ रही दुआएं लगी हैं। मैंने पत्र को अपने पर्स में रख लिया है ताकि जब भी चाहूँ निकाल कर पढ़ लूँ।
“सर! दिल्ली से कॉल है।” इंटरकॉम पर मुक्ति ने बताया है।
“हैलो!” मैंने फोन में कहा है।
“दलीप!”
“जी हां! बोल रहा हूँ!”
“मैं भट्ठे वाला! हां-हां भट्ठे वाला! नहीं पहचाना?”
“हां-हां! बोलो नेता जी!”
“चुनाव के लिए .. मेरा मतलब कुछ न कुछ चाहिए!”
“मिल जाएगा!” मैंने स्वीकारात्मक ढंग से कहा है।
“देहली आ जाओ! तुम्हारी जरूरत है।” भट्ठे वाला ने आग्रह किया है।
“अच्छा-अच्छा! कल तक पहुंच जाऊंगा। जश्न? अरे छोड़ो भी नेता जी!”
“नहीं होगा! अरे विदेश से लौटे हो और अब मजा लो देसी माल का! भुलाए नहीं भूलेगा! हाहाहा!” भद्दे तौर पर भट्ठे वाला सस्ता हास्य उगल रहा है।
बात खत्म होने पर मैंने मुक्ति को इंटरकॉम पर बुलाया है।
“यस सर!”
“मैं कल दिल्ली जाने से पहले स्टाफ से बात करना चाहता हूँ।”
“ओके सर!”
“जानते हो एजेंडा क्या होगा?”
“नहीं सर!”
“काम! काम के घंटे! हरामखोरी और आरामपुर्सी से छुटकारा। पता नहीं क्यों मुक्ति मुझे ये सफेदपोश स्टाफ से चिढ़ होने लगी है।”
“सर .. लेकिन आई मीन ..”
“कोई लेकिन-शेकिन नहीं! जब मैं और तुम काम में सहयोग दे सकते हैं तो वाई नॉट दीज जोकर्स?”
“बात कर लीजिए सर!” कह कर मुक्ति राजी नहीं हुआ है। ये अपना-अपना स्टाइल है कि जब भी कोई बात अनिर्णीत छोड़नी हो – बात कर लेंगे का पुट लगा कर लटका देता है। विरोधी जो भी कहें पर मैं जानता हूँ कि मुक्ति एक से लाख तक मेरा चमचा नहीं है।
मेजर कृपाल वर्मा रिटायर्ड