टेंट मुझे एक घिरी चारदीवारी लगी है जहां मैं खुला रण क्षेत्र छोड़ कर पलायन कर आ छुपा हूँ। मेरा अपना अज्ञान और हीनता अंदर से झकझोड़ रही हैं और इन असहज पलों की कुंठा मैं झेल नहीं पा रहा हूँ। सोफी से यों कट जाना, पलट जाना और उसे भूल जाना संभव नहीं लग रहा है। शायद अन्य घटनाओं की तरह मैं ये घटना नहीं भूल पाऊंगा!

“सम्मेलन का समय हो गया है। प्रतिनिधित्व भी आपको ही करना है।” प्रदीप ने बड़े ही सहज स्वभाव से मुझे सूचना दी है।

प्रदीप हंसमुख है और बड़ा ही धैर्यवान भी। बार-बार मन में उसके चेहरे पर बिखरे शांत भाव पढ़ने लगा हूँ। मुझे भी धैर्यवान होना चाहिए – मैं ये फैसला कर पाया हूँ।

“अच्छा तुम चलो मैं आया!” संक्षेप में मन का विषाद छुपा कर मैंने कहा है।

“आज की वार्ता का विषय है – विश्व शांति!”

“क्या – विश्व शांति?” मैंने चौंक कर पूछा है।

“जी हां! सभी लोग अपने-अपने विचार प्रस्तुत करेंगे और बाद में आप को अपने कुछ सुझावों के साथ उन्हें जोड़ तोड़ कर कोई ठोस बात बतानी होगी!”

“मुझे क्यों?”

“जी हां आपको!” कहकर प्रदीप तनिक हंस गया है।

लगा है वो मेरे मन की शंका भांप गया है। इतना बड़ा अभिमान कि मैं कोई ठोस कदम लेने को कह दूं – मजाक सा लगता है मुझे। प्रदीप कुछ सुझाना ही चाहता था कि मैंने जिम्मा ओट लिया है।

“ठीक है! मैं ठोस कदम लेने को कहूँगा। लेकिन ये कदम उठाएगा कौन?”

“हम सब। पूरा विश्व!” प्रदीप ने अटूट विश्वास के साथ कहा है।

मैं हंस पड़ना चाहता हूँ पर प्रदीप अपना अपमान न मान ले इसलिए संभल गया हूँ। विश्व शांति के लिए डॉक्टर किसिंजर को नोबल पुरस्कार मिला है पर शांति कोई पुरस्कार के पीछे रख कर भूल गया है। लोग अगर सनातन तक चिल्लाते रहें कि हमें शांति से रहना है तो भी क्या होता है। शांति और शांति से भरे तालाब में अंतर क्या है? एक छोटा पत्थर तक गिर कर किस तरह पानी में हिलोरें पैदा कर खिंचाव पैदा कर देता है उसी तरह कोई एक नेता, कोई एक राष्ट्र या कोई एक धर्म या जाति विश्व शांति में बाधक बन जाते हैं और फिर युद्ध, शीत युद्ध, तनाव पूर्ण स्थितियां – सीमांत पर पड़ी फौजें – बर्बरता का शिकार निरीह बच्चे और औरतें – लोग क्या कुछ नहीं करते?

“ओके! हो जाएगा!” कह कर मैं तनिक हंसा हूँ ताकि प्रदीप को मुझ पर भरोसा हो जाए!

प्रदीप चला गया है तो मैं सोच में पड़ गया हूँ। मेरे अपने अंदर तो अभी भी शांति नहीं है। सोफी से सब कुछ पाकर भी मैं शांत नहीं हूँ। जो पल जिया था अब सार हीन लग रहा है तथा कुछ नए आयाम खोजने को लालसा बन रही है। जब मैं स्वयं को शांत और संतुष्ट नहीं बना पा रहा हूँ तो विश्व को क्या संदेश दूंगा?

मन में घुटता विद्रोही दलीप कहना चाहता है – शांति कोई स्थाई संज्ञा नहीं और न ही कोई स्थाई भाव जो हमेशा-हमेशा के लिए मानस मनों में भर जाए। शांति के लिए प्रगति रोक देना पाप है। मुकाबले खतम कर देना मानवता का अंत है। लड़ाई और वैमनस्य आदमी और राष्ट्रों को आगे बढ़ने की चाह देते हैं और एक दूसरे के मुकाबले में ही तो मानव सबल बनता है वरना तो सभी एक अकर्मण्य जीवन जीयें और अधोपतन की स्थितियां छा जाएं! हम लड़ेंगे, हम कभी हारेंगे नहीं, हम कभी पीछे कदम नहीं रक्खेंगे पर हां हमारे लक्ष्य संकुचित नहीं होने चाहिए, हमारे इरादे शाश्वत और चाह मानव की भलाई के पक्ष में हो तो लड़ना बुरा नहीं।

“लड़ाई बुरी बात है। जिस राष्ट्र को उठने में सदियां लग जाती हैं वही दिनों, हफ्तों और महीनों के हिसाब से गिर जाता है, टूट जाता है और अंत में मोहताज हो कर दूसरों पर बोझ बन जाता है।” एक युवक जो पीले कुर्ते में काली पगड़ी और खुले बिखरे बालों में आकर्षक लग रहा है – कहता जा रहा है।

“बड़ी मछली छोटी को खाती है। ये नियम मछलियों के लिए है। लेकिन हम मछलियों के लिए नहीं। हम में मछलियों से भिन्न बुद्धि है। दया, क्षमा और ज्ञान जैसी विभिन्न बातें हमसे जुड़ी हैं जो बताती हैं कि युद्ध करना गलत है।”

“युद्ध करने से न कोई समस्या सुलझती है और न कोई लाभ होता है। कितने ही लोग जान झोंक देते हैं, बेघर हो जाते हैं और बेशुमार विध्वंस हमें ध्वस्त छोड़ जाता है!” दूसरे ने समर्थन किया है।

“दोस्तों ..!” एक और युवक है जो काली वर्दी में गोरा बदन ढांपे है और कोई सम्मानित जनरल लग रहा है – बहुत ही विश्वास के साथ अपने विचार सामने रख रहा है। “लड़ना बुरा नहीं है पर लड़ने के तरीके गलत हैं। खास कर आधुनिक तरीके जो विज्ञान ने हमें अभिशाप के रूप में हमें दिए हैं। अगर लड़ना बुरा होता तो यों निरंतर लड़े भिड़ते आज हम यहां कैसे पहुंचते? लड़ाई ने हमारे अंतर भरे हैं। जीतने की चाह ने ही नए धरातल खोजे हैं। और जितने भी अनुसंधान हैं सभी लड़ाइयों के प्रतिफल हैं। हम सब लड़ते हैं – कुछ अपने आप की बुराइयों से तो कुछ आस पड़ोस के बुरे लोगों से। कुछ देश के गद्दारों से तो कुछ विदेशों में जाकर उनकी गलत-सलत नीतियों से। लड़ाई से ही शांति संभव है पर हमें लड़ाई का तरीका नया ढूंढना होगा!”

एक स्तब्धता ने सारी सिमिटी भीड़ को किसी जड़ जंगम और पहाड़ वनस्पतियों से जोड़कर अकेला छोड़ दिया है। सभी अब अपने अंतः खोज रहे हैं और उन सारे मौकों को दोहरा गए हैं जब वो लड़े हैं। मैं अब भी लड़ रहा हूँ। सोफी किसी गैर के साथ बैठी है। वो गैर बार-बार सोफी को स्पर्श करता है, उसका हाथ दबा भिंच देता है और कोई मजाक मार जाता है। मैं रोष में भुना जा रहा हूँ। ईर्षा मुझे खाए जा रही है और बार-बार मेरा मन कर रहा है कि मैं लड़ पड़ूं, अपने अधिकार छीन लूं और इस गैर को हमेशा के लिए सबक सिखा दूं!

“तरीका कोई भी हो – लड़ाई तो लड़ाई है! छोटी लड़ाई ही बड़ी लड़ाई का अपरूप है! एक आदमी का क्रोध और वैमनस्य तथा नफरत सारे राष्ट्र को नष्ट कर देती है। जो लड़ते हैं – वो सभी लड़ने के पक्ष में नहीं होते। एक आदमी धर्म, जाति या देश के नाम पर सब को लड़ा कर इतिहास में अमर हो जाता है पर जो मिट जाते हैं वो?” प्रतिशोध में एक चश्मा लगाए व्यक्ति ने कहा है। वह कांप रहा है।

वह शायद लड़ाई के नाम से ही घबरा गया है।

मेजर कृपाल वर्मा रिटायर्ड

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