घबराया श्याम घर पर मेरी तलाश में आ गया है। मेरे सामने रुआंसा सा चेहरा बनाए खड़ा है। कोई बात है पर वो उसे उगलना नहीं चाहता।
“कुछ फूटो भी – बात क्या है?” मैंने रुआब से पूछा है।
“बे बात तो तू जानता है! धंधा जाता रहा! अब ..”
“बस ..?”
“ये कोई छोटी बात है क्या? आज कल ..”
“बस बस! भाषण नहीं और न आज कल के हालात पर खुलासा सुनने की गरज है। तुम्हें काम मिल गया!”
“सच ..?”
“झूठ तो हम बोलते नहीं!”
“कहां लगा रहा है बे?” श्याम ने जैसे अपनी महान इच्छा का साकार रूप देख लिया हो – खुश और आश्चर्य चकित हो कर मुझे घूरे जा रहा है।
ये नौकरी भी क्या बला है! ये पैसा भी कितनी कमीनी चीज है – मैं सोचे जा रहा हूँ! जिसके पास हो न वो खुश और जिसके पास न हो उसकी तो बात ही क्या?
“आज से हम तुम्हें अपना प्राइवेट सेक्रेटरी चुनते हैं।” मैं जान कर अपना खोखलापन जाहिर नहीं करना चाहता।
“मजाक मत कर दलीप। यार देख – तुझसे क्या छुपा है। घर पर ..”
“ये लो एडवांस – दो सौ! बाकी काम देखकर पगार बता दी जाएगी और बाद में तरक्की भी होगी!”
“काम क्या करना होगा?”
“जो मैं कहूँगा!”
“फिर भी ..?”
“मुझसे विश्वास तो नहीं उठ गया?”
“नहीं बे! पर मैं .. तू जानता है कि मैं ..”
“पैसे की कमी मैं पूरी करूंगा और जो अन्य कमियां हैं वो तुम खुद पूरी करोगे, समझे!”
“समझ गया यार! तू तो सीधी बात अभी से नहीं करता! मैं मर गया ये नोट लेकर। अबे! कोई लौंडिया फसाता तो ..”
हम दोनों हंस पड़े हैं। मुझे राहत मिली है। श्याम को खरीदना मुझे आवश्यक लगा है। वैसे भी श्याम में बुराइयां हैं तो मजबूरी का सहारा लेकर चली आई हैं। वरना तो सोना है – श्याम!
“हुजूर अब क्या करना होगा?”
“चुप बे साले! जो हम बताएं वो सुनना है – पूछना नहीं है। समझे?”
“समझ गया मालिक!”
“तो अब पिक्चर चलेंगे। कल एयरपोर्ट से अनुराधा को रिसीव करना है। उसके बाद उसके साथ आने वाली चिड़िया को दाना फेंकना है। और जब दाना निगल जाए तब जाल बिछा कर उसे फसाना है। उसके बाद ..”
“हां ..! उसके बाद ..?”
“नहीं समझे?” मैंने बात को मजाक के तौर पर दोहराया है।
“सब समझ गया!”
“ऐसे नहीं बेटा! नोट बुक पेंसिल रखने की आदत डालो!”
“जी मालिक!” कहकर श्याम अपने रोल में पूर्णतः सफल सिद्ध हुआ है।
पिक्चर में बैठ कर भी कुछ देखने की लालसा नहीं हुई है!
मुझे पता है कि शैल और सभी साथी हॉल में बैठे हैं। उनका दो एक रिमार्क मुझ तक पहुंचा दिया गया है। मैं भी अपनी ढिठाई के चरमोत्कर्ष पर पहुंच कर उन्हें चिढ़ाने का कोई उपक्रम सोच रहा हूँ। स्पर्धा के साथ साथ राग द्वेष भी मिल कर मुझसे प्रतिशोध लेने के लिए कह रहे हैं। अगर मैं दबूं भी तो क्यों, किस लिए और किससे?
“सेक्रेटरी!” मैंने रौब से पुकारा है।
“जी मालिक!” श्याम भी ऊंचे स्वर में मेरा अभिप्राय समझ कर ही बोला है।
“ठंडा कोक!”
“जी मालिक!” कहकर श्याम अपनी वफादारी का सबूत देने दौड़ा है।
अब मैं बहुत खुश हूँ कि श्याम मेरे मनसूबे समझ कर पूरा करने चला गया है। उसका उत्तर – जी मालिक अब भी सिनेमा हॉल की दीवारों से टकरा टकरा कर एक अनुगूंज कर रहा है और उनके दिमाग से बाहर नहीं निकल पा रहा है। इसकी प्रतिक्रिया प्रतिद्वंद्वियों पर क्या हो रही है ये मैं देख नहीं पा रहा हूँ पर महसूस तो कर रहा हूँ! उनके दिल ईर्ष्या से जल रहे हैं और मुझे इस अमानवीयता में उगा आनंद सराबोर कर रहा है। और हां मैंने अब दुश्मनी भी पक्की मान ली है।
कटाक्ष, टोंट, हल्की गालियां, कुछ भोंड़े और अवांछित मुहावरे हम सब के बीच पराजित होते रहे हैं। कुछ अगल-बगल वालों ने भांपा है तो कुछ सिनेमा मैनेजर ने भी ताड़ लिया है। एकाएक लोग मुझे मुड़ मुड़ कर घूरने लगे हैं। मध्यांतर की स्लाइड रजत पट पर छप गई है तो मुझे आ कर किसी ने धीमे से टहोका है।
“आप को मैनेजर साहब ने याद किया है!” पैगाम मिला है मुझे।
लंबे लंबे कदमों से चिप्स के फर्श को पैरों तले रौंदता, दाएं बाएं लगे पोस्टरों को देखता और आजू-बाजू घिरी भीड़ से असंपृक्त सा मैं एक सांस में चार छह सीढ़ियां चढ़ कर मैनेजर के सामने आ खड़ा हुआ हूँ – एक चुनौती की तरह!
“बैठिए मिस्टर दलीप!” मैनेजर ने आग्रह किया है। वह डरा हुआ है।
“कहिए ..?” मैंने उसे घूरते हुए प्रश्न पूछा है।
“आप क्या पीएंगे?” उसने पूछा है।
“आप बुलाने का अभिप्राय पहले साफ कर दें तो ..”
“मेरी विनती है कि ..” शब्द मैनेजर के गले में फंस गए हैं।
“हां हां कहिए!”
“पिक्चर हॉल में दंगा मत कराइएगा!” मैनेजर ने एक सहम के साथ शब्द उगले हैं।
“तो मैं चला जाता हूँ!” मैंने कठोर स्वर का प्रयोग जान बूझ कर किया है।
“नहीं नहीं! मिस्टर दलीप भला आप पिक्चर छोड़ कर क्यों जाने लगे? इतनी अच्छी पिक्चर है। फिर मैं ..”
“आप ने विनती जो की है ..”
“मैंने आप के लिए बॉक्स खाली करा दिया है। और आप आगे से जब भी आएं मुझे रिंग दे दिया करें ताकि मैं ..”
“ओ के मिस्टर मैनेजर – डन!” खुश होकर मैंने उत्तर दिया है।
लगा है – जेल जाने और उपद्रव करने के बाद लोग मेरी शाख समझ गए हैं। मैनेजर का दीन हीन सा चेहरा और उसकी गिड़गिड़ाहट मुझे अपार सुख पहुंचा गई है। अब शायद मैं यही दृश्य शैल के साथ दोहराना चाहूंगा लेकिन कब यह कह नहीं सकता।
मैं और श्याम बॉक्स में जम कर बैठ गए हैं। एकांत पाकर श्याम ने भी थोड़ी सी चापलूसी की है!
“अगर मेरी जगह यहां .. यानी सेक्रेटरी होती तो ..”
“तो क्या होता?”
“जो होता सो होता!” श्याम ने कोहनी मेरी बगल में कूच दी है।
हम दोनों हंस पड़े हैं। अचानक मुझे अनुराधा के साथ आने वाली वही लड़की याद हो आई है। अनजान को जान लेने की जिज्ञासा भी एक बड़ी प्रबल इच्छा होती है – मैं अनुभव कर रहा हूँ!
मेजर कृपाल वर्मा