“मैं .. न हारा हूँ न जीता हूँ!”
लगा है वास्तव मैं ये हार जीत कुछ नहीं है। नमक और पानी की तरह ये दोनों एक दूसरे में घुलते जा रहे हैं। हार का गम और जीत की खुशी ये जो दो आभिजात्य हैं एक लक्ष्य बनकर सामने आए हैं और कह रहे हैं – हम तो कुछ भी नहीं हैं। हम तो यों ही आदमी को काँटों में घसीटते रहते हैं। यहां न कोई हारता है और न जीतता है।
“तो फिर तो मैं जीत गया।”
लड़खड़ाती जबान में मैंने जीत की घोषणा कर दी है। अब भी मेरे दिमाग में बातों के टुकड़े हैं जो पैनी पैनी कीलों की तरह चुभे जा रहे हैं।
“सुनो! ए ए ए लफंगों सुनो!”
मेरी जबान और भी हल्की हो गई है। लेकिन थोड़ा सा नियंत्रण अभी भी शेष है।
“सुना! जीत मेरी हुई है।”
ये जैसे आखिरी निर्णय सुना कर मैं सब समस्याओं के ऊपर कुल्हांच मार कर चढ़ बैठा हूँ। अब मैं इन्हें रौंद रहा हूँ। खींच रहा हूँ। अर्थों के रूप में इनसे अर्क निचोड़ रहा हूँ और हर गमजदा इंसान के गले मिल मिल कर कह रहा हूँ – अब तुम्हें कोई तकलीफ नहीं होगी।
अब मेरे सामने बाधाएं नहीं हैं। भक्क उजाला सा किसी रेगिस्तान के छोर पर मुझे छोड़ गया है। अब मैं चलूं तो योजनों लंबी सरपट लगा दूँ। सफर सुखद रेत की डगर पर बाधा रहित बहती बयार सा लग रहा है।
“मैं रोकूंगी क्यों? आगे बढ़ने वाले कभी रुके हैं क्या?” मैं फिर से सरपट दौड़ने लगा हूँ। आगे आगे हर समस्या है उसके पीछे पीछे मैं हूँ और मेरे साथ है मेरा अंजान इरादा, धुंधली सी इच्छा और अविरल महत्वाकांक्षा! ये सभी दौड़ रहे हैं। मैं न किसी पेड़ से टकरा रहा हूँ और न किसी ऊंचे नीचे पर मेरे पैर पड़ रहे हैं। न कोई नदी नाला या पहाड़ चढ़ाई है जो पल भर के लिए मुझे रोक ले। इस सपाट से विस्तार में मन बैलाने के लिए किसी ने कोई रंग नहीं भरे हैं। भागता इंसान कभी तो पल भर के लिए रुकेगा ही? मैं रुक गया हूँ। इच्छा होने से पहले रंग भर गए हैं। सूखे रेत में हरे कच्च पेड़ रंग-बिरंगे फूल लिए उग आए हैं। आकाश का नीला रंग और टुकड़े टुकड़े हुए बादल जैसे किसी ने पकड़ कर ला खड़े किए हैं। पक्षियों का कलरव, पशुओं का विहार, हवा के झोंके, भीनी भीनी फुहारें पता नहीं कौन सा मौसम बना रहे हैं? एक अधूरी बात और गई थी जो अभी अभी बरही के पेड़ के झुरमुट से निकल कर पूरी कर दी गई है। मैं हंस पड़ा हूँ। ये मेरे अंदर की हंसी है। बाहर तो होंठ बंद हैं, आंखों पर पलकों के पर्दे पड़े हैं और मैं अर्ध चैतन्य अवस्था में एक जड़ता के निकट खड़ा हूँ। मैं पलट जैसा गया हूँ। लग रहा है इस महानगर में मैं पहले कभी नहीं आया। अपने अंदर के फैले ये विस्तार कभी खोजने का ज्ञान ही न था। मैं सुख-सम्मान और जन कल्याण जैसी बेतुकी बातों के पीछे फिजूल में भागा था। आदमी तो एक संपूर्ण रचना है। अगर पलट कर देख लें और अपने ही अंतरमन में अनुसंधान आरम्भ करें तो सब कुछ पा जाएं। कितने सुगम ढंग से ये सब मैं उपलब्ध कराता जा रहा हूँ ..
“हेएएए बानी! चली आ मेरी रानी!”
हर्षातिरेक में मैं अब मयूरा बन कर नाचना चाहता हूँ। ठंडी फुहारों ने एक झुरमुट के साथ मेरा मन बांध दिया है।
“क्यों बे? मुझे छोड़ कर यहां अकेला चला आया! यू चोर!” बानी ने चीख कर कहा है।
मुझे ये हल्की गाली कामदेव के पुष्प सायक से भी ज्यादा भेद गई है। लेकिन मेरा प्यासा मन अभी भी चातक की तरह बानी से आग्रह कर रहा है .. खूब गालियां दो और भी मोटी मोटी गालियां दो .. कमऑन माई स्वीट!
“तुम साले गधे हो, तुम उल्लू के पट्ठे हो! हरामखोर, पाजी और जाहिल हो!”
“और भी मोटी मोटी गालियां दो! कमऑन बानी ..!” मैंने आग्रह दोहराया है।
“पाजी, गधा, खोता .. उल्लू का पट्ठा! हां हां उल्लू का पट्ठा ..” अब मैं स्वयं को गालियां दे रहा हूँ। अनूठा एक रस टपक रहा है इन गालियों से। पता नहीं इस उल्टे आत्मा के विस्तार में सभी बातों का अर्थ भी उलटा है क्या?
“खूब मजा आ रहा है न?” बानी ने सवाल किया है।
“तुम आ गईं वरना ..”
“वरना ..?”
“वरना ये रचना ही अधूरी रह जाती। हम पहले क्यों नहीं आए यहां?”
“अब तो चले आए हैं!”
“हां हां!” गहरी सांस छोड़ी है मैंने जो मुझे भीतर से खाली कर गई है।
“नि:श्वास क्यों हो?” बानी ने समीप आकर आत्मीय स्वर में पूछा है।
“इसलिए कि मैं और तुम मिल कर ये रचना संपूर्ण कर रहे हैं!”
“घाटा पड़ा है क्या?”
“हां! मैं तुम से ऊब गया हूँ!” तपाक से बानी के मुंह पर मैं चपत सी मारता हूँ।
“लेकिन क्यों?”
“तुम गिरावट की पहली सीढ़ी हो। एक भ्रामक जाल तुम्हारे गिर्द लिपटा है। तुम स्वयं में एक टूटी कड़ी हो!”
“जोड़ना नहीं जानते?”
“चाहता नहीं हूँ!”
“तो ..?”
“दूर भाग जाऊंगा। तुम से संबंध तोड़ दूंगा। मैं क्यों जीऊंगा? यहां न कोई अधूरा है न पूरा और जो है सो रहे!” स्पष्ट और अभय के स्वरों में मैं बोले जा रहा हूँ। यहां सच्चाई के कहने के लिए बहुत ही सुरक्षित स्थान है। बाहर की दुनिया की तरह वो कसैली घुटन बिलकुल नहीं है जहां सच्चाई के अर्थ तोड़ मरोड़ कर दवाओं के रूप में मन के मरीजों को पिलाए जाते हैं।
“तोड़ दो ..!” बानी ने निःसंकोच कह दिया है।
“तो तोड़ दिया!” मैंने भी चोट पर चोट दे मारी है। कोई भी भिन्न प्रतिक्रिया हम दोनों पर नहीं हुई है। दो अपरिचित से बिंदु हम एक दूसरे से दूर होते चले जा रहे हैं। बीच की दूरी और दरारें नफरत नहीं भर रही है और न कोई आक्रोश मन पर हथौड़े मार रहा है। जुदाई के गम जैसी कोई संज्ञा नहीं है। आत्मा कितनी मुक्त है, कितनी तंदुरुस्त है और किसी प्रकार की बाधाएं नहीं हैं। मैं तो खुश हूँ!
मेजर कृपाल वर्मा