महान पुरुषों के पूर्वापर की चर्चा !

भोर का तारा – नरेन्द्र मोदी.

उपन्यास -अंश :-

मन विक्षिप्त था . बिदक रहा था . और मैं था – असहज …!!

एक अपराध बोध था -जो मुझे भीतर -ही-भीतर खाए जा रहा था ! हुई विजय-श्री से हाथ मिला मैं ..सीधा दिल्ली चला आया था ? जब कि मुझे याद था कि …पहले मुझे माँ के चरणों में प्रणाम करने जाना था …? लेकिन न जाने कैसी ख़ुशी थी …कैसी हुलस थी …जो मैं सीधा दिल्ली की ओर चला आया था …?

जब कि मैं माँ को अपना श्रेष्ठ तीर्थ मानता हूँ …और हर हर्ष-विषाद के बाद …उन के चरणों में माथा टेकना अपना सौभाग्य मानता हूँ !

और जो मैंने दिल्ली आ कर देखा-सुना है – उस ने तो मेरे मुंह का जायका ही बिगाड़ दिया है ! यों तो यह सब अब मेरे लिए कोई नया नहीं है …पर अब …इतने संघर्ष …और सफलता के बाद …मुझे दिल्ली से भिन्न प्रकार की उम्मीदे थीं …? लेकिन यहाँ तो वही ढाक के तीन पत्ते थे …? ‘कौन है ….रे …ये …मोदी ….?’ हर कोई यहाँ तो प्रश्न पूछने खड़ा मिला था …?

नमस्ते सदा वत्सले मातृभूमे ………

त्वया हिन्दू भूमे ..

अचानक ही मुझे अपनी भारत माँ की याद हो आई थी ? मुझे अपनी ली वो शपथ भी याद हो आई थी – तेरा वैभव अमर रहे,माँ ! हम दिन चार रहें …न …रहें …? और अब मेरी द्रष्टि उठी थी …और लहू-लुहान हुई दिल्ली को देख रही थी ! देख रही थी कि …यहाँ दुष्ट आत्माएं अभी भी डेरा डाले बैठीं थीं . देश को लूटने के बाद ….नर-संहार करने के बाद …..और धर्म -परिवर्तन के कोल्हू में जन-मानस को पीसने के बाद …भी ये म्लेच्छ यहाँ से गए नहीं थे …? फिर से घात में बैठे थे …फिर से देश को बांटने-खाने …और लूटने के जुगाड़ में थे ….?

घाव…मोटे-मोटे घाव – जो इन विदेशी आक्रमणकारियों ने भारत माँ को दिए थे ..आज भी हरे थे …रिस रहे थे …और हमें चेतावनी दे रहे थे कि ..हम फिर से इन की चाल में न आ जाएं …? वरना …….

विचित्र संयोग था कि मैं …आज फिर से उसी दिल्ली को देख रहा था …जिसे मैंने अपने दो साल के गुप्त वास के बाद ..आ कर देखा था …? ठीक वही द्रश्य थे – जो मेरी आँखों के सामने आ कर ठहर गए थे …? तब भी मुझे लगा था कि …हम तो अभी तक गुलाम थे ….और दादा जी की कथित कहानियां जहाँ की तहां बैठीं थीं …और राज अंग्रेजों का ही चल रहा था ….?

और आज भी लगा था कि …हम स्वतंत्र हुए कहाँ थे ….?

खून का घूँट पी कर आज मैं फिर वाद नगर लौट रहा था …माँ के पास !

वाद नागर कुछ ज़रूर बदला है …ये मैं जानता हूँ ! कारन – मैंने ही गुजरात में …इन चंद सालों में बहुत सारे परिवर्तन ला दिए हैं ! लेकिन तब तो मुझे वाद नगर भी सोता ही मिला था …? मैं लौटा था …तो वाद नगर को पता ही न चला था …कि मैं लौट भी आया था ? चंद लोगों ने मुझे चीन्हां ..अवश्य था …पर कहा कुछ न था …!

एक डूबता-सा मन ले कर मैं घर में घुसा था !

संयोग ही था कि …उस वक्त घर पर केवल माँ ही थीं ! मुझे आया देख माँ के होंठ फडफडाए थे …ऑंखें भर आईं थीं ….बांहें मुझे आगोश में लेने के लिए …स्वत ही खुल गईं थीं …और उन्होंने मुझे …लपक कर अपने भीतर समो लिया था …! चुचाप रोने लगीं थीं ….चुपचाप भगवान को धन्यता देने लगीं थीं ….और चुपचाप ही उन्होंने …मुझे पास बिठा लिया था !

ऑंखें भर-भर कर अब वो …अपने नौ-निहाल को …निहार रहीं थीं …निरख रहीं थीं …और मैंने देखा था कि ..एक बे-जोड़ भाव उन के चहरे पर आ कर ठहर गया था ! एक प्रसन्नता थी …जो उन के चहरे को आलोकित कर रही थी …और था एक मुग्ध-भाव जो …उन के पास आ बैठा था !

कारण -मैं जानता था !

मैं वह नरेन्द्र न था जो वाद नगर छोड़ कर गया था …? मैं अब वो नरेन्द्र था …जो ..उन के सामने एक पुरुष बन कर खड़ा था ! मेरा चेहरा-मुहरा एक दम गुलाबी था ! आँखों में एक सपुंज भविष्य था . कद-काठ भी ऊँचा हो गया था …और चाल-चल्गत भी बदल गी थी . और आज मैं आशाओं के अथाह सागर का मालिक था ! माँ ने सब एक लम्हे में देख लिया था …समझ लिया था …और मुझे सीने से लगा लिया था ….!!

मुझे याद है कि में …माँ के आगोश में मुंह छुपाए …बेहद लम्बे पलों तक …उन की ममता का …उन के अजश्र-प्रेम का ….और उन की दया-माया का …आनंद लेता रहा था ! मुझे लगता रहा था कि मैं …अपने तीर्थ पर निछावर था …और उन का आशीर्वाद प्राप्त कर रहा था …?

“कब लौटे ….?” बाबू जी ने आ कर मेरा ध्यान बांटा था .

“बस ! आया ही हूँ ….!!” मैंने सहज-स्वभाव में उत्तर दिया था .

अब बाबू जी भी मुझे ऊपर से नीचे तक नांप रहे थे ! उन्हें भी मेरा बदला अंग -शोष्ठ्व बे-जोड़ लगा था ! उन्हें भी लगा था कि मैं …कुछ कमा कर लाया हूँ …? कोई नौकरी या कोई उद्योग मेरे पास था – और में एक सफल आदमी बन चुका था …?

फिर पूरा परिवार इकट्ठा हुआ था ..लेकिन जसोदा न थी ….?

“उस का भाई आ कर ले गया है …!” माँ ने मुझे सूचना दी थी और मैंने उसे सुना-अनसुना कर दिया था . न जाने क्यों मैं जसोदा से मिलना भी न चाहता था …?

“कहाँ …रहे ….?” भाई ने यों ही प्रश्न पूछ लिया था .

“घूमता-फिरता …रहा ….!” मैंने भी सहज उत्तर दिया था .

“कुछ किया भी …..?” अब की बार बाबू जी ने धीरज खो दिया था – तो पूछा था .

मैं जानता था कि बाबू जी क्या-कुछ सुनना चाहते थे …? लेकिन जो वो सुनना चाहते थे …वो मेरे पास था कहाँ …? और जो मेरे पास था -…और जो मैं कमा कर लाया था … वो लाख मेरे बताने पर भी …उन्हें दिखाई न देना था …? अतह मैं चाहता था ..कि बाबू जी के प्रश्न का उत्तर ही न दूं ?

“दो साल के बाद लौटे हो ….?” बाबू जी ने मुझे याद दिलाया था . फिर उन्होंने कुछ सोचा था . “सेहत तो ठीक बना ली है !” वो तनिक हँसे थे . “लेकिन …..”

अचानक ही मुझे अब्बा याद हो आए थे ….?

और वो परिवार भी मेरी आँखों के सामने था – जो मुझे विदा तो कर रहा था …पर मेरे जाने पर खुश न था …? और यहाँ …मेरा एक परिवार था …जो मेरे लौटने पर खुश न था …? और अब जानना चाहता था कि ….मैं कुछ कमाई भी कर के लाया हूँ ….या …कि …

“बस …यों ही वक्त निकल गया ….?” मैंने एक रूखा-सूखा उत्तर फेंका था …और घर से बाहर निकल गया था .

तब…हाँ,हाँ तब मैं वाद नगर से मिला था ….!!

वही सब था ! वही बेकारी थी …वही पिछड़ापन था …और वही अलसाई-सी सुबह-शामें थीं …और इन का कोई वजूद ही न था …? समय और वाद नगर तब अलग-अलग रास्तों पर चल रहे थे ….? किसी को किसी से कोई सरोकार ही न था ? यहाँ तक कि मेरे आने से …वाद नगर में कोई हल-चल …न चली थी …?

“अरे! ये तो नरेन्द्र …लगता है ….?” मुझे जाता देख कोई कह रहा था . “उन का ….अरे …उन …कोल्हू वालों का …वो वाला बेटा ….?’

“पर …ये तो ….भाग गया था ….?”

“अब लौट ….आया ….!!”

और एक हंसी का फब्बारा फूटा था …जो मेरे सारे उत्साह को बहा ले गया था !

“सुना है …इस की तो …बीबी भी …भाग गई …?” फिर एक प्रश्न …और फिर …हंसी-ठहाके ? “लफंगा है ….!!” लोगों ने एक मत हो कर कहा था .

“अरे ! तुम तो नरेन्द्र हो …..अगर मैं गलत नहीं तो …..?” एक व्यक्ति ने मुझे रोक कर पूछा था . “मैं …प्रभुपाद हूँ ! “उस व्यक्ति ने अपना परिचय दिया था . “तुम तो …हमारे बाल-स्वयं सेवक हो , भई ….?” प्रभुपाद जी ने मुझे याद दिलाया था . “कहाँ थे – इतने दिनों से ….?” उन का भी यही प्रश्न था .

“बाहर गया था …!” मैंने एक अदद उत्तर उन्हें पकड़ा दिया था .

“अहमदाबाद चले जाओ ….?” उन्होंने सीधा ही प्रश्न दागा था . “अगले माह जलसा है ! आप को ….”

“लेकिन मुझे तो …..”

“एडमिशन मिल जाएगा …! मैं लिख दूंगा ,नागेश जी को ! अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद् के चुनाव भी आ रहे हैं …? ठीक वक्त पर पहुँच जाओंगे …!” उन का सुझाव था .

लगा था – मेरा भाग्य मुझे …उंगली पकड़ कर ..अहमदाबाद …ले जा रहा था ….?

“लेकिन …प्रभुपाद जी ….मैं ….”

“अरे ! चिंता क्यों करते हो ….? मैं सब बंदोवस्त कर दूंगा ….!” उन्होंने विहंस कर कहा था . “भई ! होनहार हो ….नरेन्द्र !! मौका मत चूको ….? नागेश जी के संपर्क में आजाओगे …तो …बहुत कुछ सीखने को मिलेगा …?” उन्होंने बात समाप्त कर दी थी .

और अब मैं अहमदाबाद जा रहा था …..!!

“आशीर्वाद …दो …!” मैंने माँ के चरण स्पर्श कर कहा था . “अहमदाबाद जा रहा हूँ …!!” मैंने उन्हें सूचना दी थी . बाबू जी से तो तीन दिन से कोई बात ही न हुई थी .

“आता-जाता …तो रहेगा ….?” माँ पूछ रही थीं .

“हाँ,हाँ …! है ही कित्ती दूर …?” मैंने प्रसन्न हो कर उत्तर दिया था .

“और ….और …पैसे-धेले …दूं ….?” उन का मासूम प्रश्न था . “बहार बास … पैसा तो चाहिए ….?” उन का कहना था .

अनमोल प्रश्न था – मेरी माँ का ….मेरी जननी का …जिसे अपने नौ-निहाल के बारे सब कुछ पता था …? मैं गदगद हो गया था ! मैंने माँ को आगोश में ले कर …बहुत देर तक प्यार किया था !

“हैं …पैसे मेरे पास ….!” मैंने उन्हें आस्वस्थ किय था . “चिंता मत करना ….?” मैंने यों ही कह दिया था .

और बिना किसी सूचना के ….शोर के …..और बिना किसी …आल्हाद-उल्लास के …मैं चुपचाप ….अहमदाबाद रवाना हो गया था ….!!

लेकिन आज पूरे वाद नगर में कुहराम मचा है ….!!

“सी एम् का दौरा है …?” सूचना सन्ना रही थी ! “रे ….! रोक दो सारा ट्रैफिक ….!” आदेश थे .”कहो मौलाना को ….! सलाम करेगा …आ कर ….?” लगातार आदेश आते ही चले आ रहे थे .

वाद नगर की जनता उमड पड़ी थी . लोग ठठ -के -ठट…लगा कर हमारे घर-द्वार के आस-पास जमा होते ही जा रहे थे ! हमारा तो कुछ ज्यादा अच्छा हाल न था …पर हाँ ! वाद नगर तो अब अच्छे उठान पर था ! लोगों के पास संपत्तियां थीं …जमा-जोड़ भी था …और …पैसा था …और …

“माँ मैं आ गया ….!” मैंने अपने आप को अपने तीर्थ पर अर्पित करते हुए कहा था . “मुझ से गलती बन गई कि ….सीधा दिल्ली चला गया था ….?” मैंने माफ़ी मांगी थी .

“उदास क्यों है ….?” माँ का प्रश्न था . मैं हैरान था कि लाख कोशिश करने के बाद भी ..मैं अपनी निराशा को उन से छुपा न पाया था …?

“बस ! यूं ही …..?” मैंने बे-मन बताया था . “राजनीति के ….दाव- पेंच …..?” मैं गडबडाने लगा था .

“तेरा कोई क्या बिगड़ लेगा …?” माँ ने सीधा प्रश्न दागा था . “तू तो साधू है …फ़कीर है …संत है ….? सेवा ही तो करता है …? क्या उतार लेगा कोई तेरा ….?” उन के स्वर में सच्चाई थी !

और तभी अमित ने आ कर माँ के चरण छुए थे ….!!

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श्रेष्ठ साहित्य के लिए – मेजर कृपाल वर्मा स्दाहित्य !!

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