चुपचाप वाइट बीच पर वो दोनों अचानक ही आ बसे थे।
वो थे, समुद्र था – अथाह समुद्र और थी सुखद बयार जो उन्हें हर पल बहकाती रहती थी .. सहलाती रहती थी और .. और हॉं कुछ परिंदों के परिवार भी उनके आस पास आ बसे थे। कभी कभार ही कोई मनुष्य दिखाई देता था .. वरना तो ..
जैसे वो दो अजनबी थे और अकेले अकेले दोनों दुनिया की जिल्लतों किल्लतों से दूर, मांग जांचो से मुक्त, खुशी गमों के उस पार दुनिया में रह कर, दुनिया से बेखबर वो भूले भाले से और भोले भाले एक दूसरे के लिए जीते जागते आत्म विभोर दो प्राणी – सर्व सुखों से संपन्न थे।
“ओये .. बा-बू!” अचानक नेहा जोरों से चीखी थी। वह दौड़ी थी। उसके हाथ में एक पत्रिका थी। वह सीधी आराम कुर्सी पर चित लेटे विक्रांत के ऊपर आ गिरी थी। “खुड़ैल!” वह हांफ रही थी। “बाबू ..! खुड़ैल ..!” वह शोर मचाने लगी थी।
विक्रांत हड़बड़ा गया था। इतने सुदूर एकांत में खुड़ैल कहां से आ धमका – वह समझ न पा रहा था। नेहा का चेहरा भयाक्रांत था। था तो कुछ जरूर – उसने सोचा था!
“ये .. ये .. देखो! खुड़ैल ..!” नेहा ने पत्रिका को विक्रांत की आंखों के सामने तान दिया था। पत्रिका के पूरे मुख पृष्ठ पर रमेश दत्त का फोटो छपा था। बड़ा ही आकर्षक चित्र था। चित्र में मुसकुराता रमेश दत्त कोई दार्शनिक जैसा लग रहा था। “अवार्ड! अवार्ड ले रहा है – हमारी फिल्म दो प्रेमी पर!” नेहा बता रही थी। “कमीना ..” नेहा की सांस फूल गई थी।
“देखें तो!” विक्रांत ने बड़े ही सौम्य भाव से पत्रिका को देखा था। कई पलों तक वो उसे देखता ही रहा था। एक छलावे की तरह रमेश दत्त उसे पूछ रहा था – कैसे हो दोस्त?
“यहां भी पहुंच गये आप?” विक्रांत के होंठों से अचानक ही प्रश्न फूटा था। “सलाम!” उसने दोनों उंगलियां उठा कर अभिवादन किया था कासिम बेग का!
नियति के हाथ कितने लम्बे होते हैं – अचानक विक्रांत सोचने लगा था। कहीं भी जाओ, कितना भी भागो लेकिन मिलना तो होतव्य से ही होता है! फिर भागना क्यों? फिर मुंह छिपाने से क्या मिलेगा? बेहतर है कि .. मिला जाए – भाग्य और भगवान से! खुलकर खेल खेलने में ही ज्यादा मजा आता है – विक्रांत का विचार था।
“जानते हो क्या लिखा है?” नेहा बोली थी। “दो प्रेमी फिल्म का सारा श्रेय समेट लिया है खुड़ैल ने। अब अवार्ड लेगा .. और ..”
“नाम भी लेगा नामा भी लेगा इनाम लेगा और काम भी चलाएगा!” हंसा था, विक्रांत।
“फिर हमें क्या मिलेगा बाबू?” नेहा पूछ रही थी।
“इसमें लिखा होगा!” विक्रांत तनिक संभल कर बोला था। “पढ़ा नहीं ..?” उसने नेहा से पूछा था।
“पढ़ा है!” नेहा तुरंत बोली थी। “सुनो – फिल्म जगत के जाने माने निर्माता और निर्देशक माननीय रमेश दत्त जी की ‘दो प्रेमी’ फिल्म एक नया और अनूठा प्रयोग है! इस फिल्म की कहानी उस अनूठे प्रेम का संदेश देती है समाज को जहां प्रेम प्रतिबंधों के परे पलता है, पनपता है, बड़ा होता है और फिर एक अलग आयाम पा जाता है! अतः: समाज प्रेमियों को न तो प्रताड़ित करे और न प्रतिबंधित! इस प्रेम प्रक्रिया को अबाध रूप से बहने दिया जाये और ..”
“और भी कुछ लिखा है?” विक्रांत ने टोका था नेहा को।
“हॉं! लिखा है – सोना का किरदार नेहा ने बखूबी निभाया है! नारी के प्रेम पक्ष को उसने एक जिम्मेदारी से जिया है!”
“वाह वाह!” विक्रांत उछल पड़ा था। “मुबारक हो!” उसने नेहा को प्रशंसक निगाहों से घूरा था। “तुम्हें तो नहीं भूला – शुक्र है!” विक्रांत ने हाथ झाड़े थे।
“भूला तो तुम्हें भी नहीं है बाबू!” नेहा की आंखों में अजस्र प्रेम उमड़ आया था। “लिखा है – विक्रांत ने तो कलुआ के किरदार में जान ही फूंक दी है। फिल्म को आसमान की ऊंचाई तक उठा दिया है – अकेले विक्रांत ने!” नेहा हंस रही थी। “सच बाबू! बड़ा ही मोहक अभिनय करते हो!” नेहा ने गलबहिंया डाल कर विक्रांत को बताना आरंभ किया था। “मैं तो सुधबुध ही भूल जाती हूँ जब तुम ..”
“लेकिन विडंबना ये है नेहा कि आज कमीना आदमी कमा रहा है और कर्मठ आदमी हींग बेच रहा है!” घोर निराशा थी विक्रांत की आवाज में।
“हॉं बाबू! ये बदतमीज खुड़ैल हमें मूर्ख बना कर अवार्ड जीत रहा है – देखो!” असमंजस उमड़ आया था नेहा की आंखों में। “कित्ता चालाक है ये खुड़ैल?” वह कहे जा रही थी।
अब वो दोनों देश दुनिया से असंपृक्त न थे। दोनों साथ साथ एक सच के संकट को झेल रहे थे जहां होशियार आदमी चतुराई के साथ भोले भाले लोगों का श्रम चुरा कर करोड़ पति बन जाता था, ख्याति बटोर लेता था और नाम इनाम सब अपने नाम लिख लेता था!
“कैली भी कौन कम कमाएगी, बाबू?” अचानक ही नेहा ने प्रश्न पूछा था। “पर मुझे तो ये औरत बड़ी ही साफ स्वच्छ लगती है बाबू!” नेहा ने पलट कर विक्रांत की आंखों में स्वीकार खोजा था। “पता नहीं तुम ..” नेहा ठिठक गई थी।
विक्रांत ने अब नेहा को अपांग देखा था। वह आश्वस्त हुआ था कि जो उसने नेहा में खोज लिया था – वह शायद कैली में भी नहीं था! कैली प्योर प्रॉफेशनल थी जबकि नेहा एक ऐसी रोमांटिक एंटिटी थी जो हर किसी को भिन्न प्रकार से प्रभावित करती थी। दर्शकों को नेहा के न जाने कितने रूप स्वरूप भाते खाते थे – ये तो नेहा भी नहीं जानती थी।
“यह तुम से बड़ी नहीं है, नेहा!” विक्रांत ने नेहा को आगोश में समेटते हुए कहा था। “तुम एक खोज हो – मेरी खोज!” विक्रांत कहे जा रहा था।
“नहीं नहीं! तुम मेरी खोज हो नेहा!” नेहा ने अचानक खुड़ैल की आवाजें सुनी थीं तो वह चौंक पड़ी थी। “ये झूठ बोल रहा है बिहारी!” वह जोरों से चिल्ला रहा था। “तुम्हारे इन खजानों को पहले मैंने खोजा है! मैं हूँ तुम्हारा कोलंबस नेहा! सच मानो मैं तुम्हें ..” नेहा ने आंखें बंद कर ली थीं। नेहा ने अपने सोच का गला घोट दिया था। नेहा ने एक लंबी उच्छवास छोड़ी थी और फिर विक्रांत के पास लौटी थी!
“कैली की तरह हमारी भी फिल्म कंपनी का नाम होगा – नेहा फिल्मस् इंटरनेशनल!” विक्रांत बताने लगा था। “खूब कमाएंगे और फिर शादी करेंगे!” विक्रांत ने छू दिया था नेहा को। “तुम देखना नेहा कि हम ..”
“खुड़ैल की तरह ही नाम, इनाम, अवार्डस् और ..” नेहा ने फिर से एक बार रमेश दत्त के छपे उस आकर्षक चित्र को देखा था।
“खुड़ैल – माने कि ये कासिम बेग ..?” तनिक उद्विग्न हो आया था विक्रांत। “ये एक दिन निरा ही बदबूदार विगत बनेगा, नेहा!” दांती भिच आई थी विक्रांत की। “ये .. ये आदमी और न जाने कितने जीवन बर्बाद करेगा, न जाने और कितने अपराध करेगा और कौन जाने कि इसका अंत ..” विक्रांत बहुत दूर देख रहा था।
“सच ही कहा था तुमने बाबू!” नेहा के हाथ कांप रहे थे। “एक एक शब्द सच बोला था तुमने!” उसने स्वीकार में सर हिलाया था। “मैंने – हां हां बाबू मैंने अपनी इन्हीं आंखों से उन अपराधों को होते देखा है, उन्हें सहा है और मैं उन्हें भूल भी नहीं पाई हूँ!” नेहा क्षत विक्षत थी। “ओह गॉड! कितना निर्दयी है ये खुड़ैल! दया तो इसे आती ही नहीं! निरा पिशाच है – पिशाच!” उसने आंखें उठा कर जैसे विक्रांत को खोजा था। “सच मानो बाबू! इस हरामी ने ही मेरी अक्ल खराब की फिर मुझे खराब किया और फिर ..”
“डॉन्ट वरी नेहा!” मुझसे कहता रहता। “बी ब्रेव!” इसने मेरी कई बार कमर ठोकी थी। “तुम्हारे मतलब का नहीं रहा ये! जाने दो न इसे? इसी का ये सुझाव था बाबू! और मैं .. मैं बावली .. तुम्हारी नेहा ऐसी भटकी कि ..”
सच तो यही है बाबू कि मैंने ही तुम्हारी जान ले ली।
और आंख खुलते ही मैंने महसूस किया कि ये खुड़ैल तो कसाई है और अब ये मुझे बोटी बोटियों में काटेगा ..
मेरे साथ भी इसने क्या क्या नहीं किया बाबू!
सॉरी बाबू! बहक गई तुम्हारी खोज!
नेहा के आंसू न थम रहे थे ..
मेजर कृपाल वर्मा