पीछे की पहाड़ी के शिखर पर गुनगुनी धूप में हम दोनों आ बैठे थे!
मनोहारी दृश्य हम दोनों के सामने मुआयने के लिए आ खड़ा हुआ था। वादियां थीं, घाटियां थीं, नदियां थीं और था मेघों से गले मिलता खुला गगन! चिड़िया हम से बतियाने चली आई थी। उन्हें शायद भनक लगी थी – हमारे प्रेम की।
“प्रेम की तो परिभाषा ही भूल गये हैं लोग! क्या हैं – आप, क्यों हैं – आप, किस लिए हैं आप, आप बताएं तभी तो आपसे प्रेम होगा? और वो भी उस वक्त तक जब तक आप उपयोगी रहेंगे! अगर आप लुढ़के – तो गये कूड़ेदान में!” विक्रांत ने मुड़ कर मेरी ऑंख में झांका था।
“कहना क्या चाहते हो?” मैंने पूछा था।
“यही नेहा कि मैं यही सोच कर फिल्मों में आया था कि समाज को – बहकते इस गुमराह हुए समाज को एक नई दिशा दूंगा। मैं समाज के रवैये को ही बदल दूंगा। इस तेरे मेरे की रैट रेस को रोक दूंगा। और ये जो विश्व व्यापार के नाम पर डकैतियां डाली जा रही हैं – इनका गुमान गिन दूंगा – जगत के सामने और .. और एक रिवॉल्यूशन ला दूंगा, गांधी की तरह .. ताकि ..” चुप था, विक्रांत। अब कहीं दूर पसरी घाटियों में कुछ तलाश रहा था।
“फिर ..?” मैंने उसका ध्यान बांटा था।
“यही कि – मुझे तो काम मिलना ही बंद हो गया! सबने निकाल दिया, दुतकार दिया और कह दिया कि, “बेकार हो तुम मिस्टर विक्रांत! जाओ, लौट जाओ अपने घर! बैठो अकेले। कौन पूछता है .. तुम जैसे ..” विक्रांत ने फिर से निगाहें मोड़ी थीं और मुझे सायास देखा था। “बताओ नेहा, तुम्हीं बताओ – मेरा दोश बताओ तुम! बताओ – मैं कहॉं गलत हूँ?”
“बहती बयार को रोक कर खड़े हो गये हो, बाबू!” मैंने टीस कर कहा था। “जहॉं लोग रात-रात भर पार्टियों में मशगूल हों, दीन ईमान और दुनियादारी को भूल कर नंगे नाच रहे हों और नाक तक अइयाशियों में डूब-डूब कर नहा रहे हों उस हाल में तुम .. बाबू उन्हें संन्यास लेने का संदेश दे देना चाहते हो? हाहाहा! यही गुनाह है तुम्हारा बाबू!”
विक्रांत विचलित हो गया था। और भी आहत हुआ लगा था। उसे लगा था कि वो कहीं किसी गलत रास्ते पर चलकर मीलों दूर निकल आया था।
“क्या करूं ..?” उसने धीमे से पूछा था। “लौट जाऊं ..?” उसका प्रश्न था।
अब मैं सकते में आ गई थी। क्या बताती उस सीधे सच्चे क्रांतिकारी को? यह तो अब चौड़े में आ खड़ा हुआ था। यह तो अब लुट-पिट चुका था। यह तो अब .. नहीं-नहीं हारा तो नहीं था ये तो मैंने खोज लिया था!
“लड़ते हैं!” मैंने विक्रांत को छू कर कहा था। जैसे मैंने एक कसम उठा ली थी और जैसे मैंने अपने इरादों को ललकार कर खड़ा कर लिया था!
“पर कैसे, नेहा ..?” विवश था विक्रांत। विकल था। परेशान था!
“पहले पोपट लाल से हारी जंग जीतते हैं!” मैं अब गंभीर थी। “लौटाते हैं – हारे वक्त को!” मेरा सुझाव था।
“मैं समझा नहीं, नेहा!” विक्रांत ने आंखें पसार कर मुझसे खुलासा करने को कहा था। शायद जो मैंने कहा था – वो असंभव ही था!
“यही बाबू कि मैं पोपट लाल से ‘मॉं के आंसू’ मांग लेती हूँ। और मैं शर्त रख दूंगी कि मेरे साथ तुम आओगे! देखते हैं – क्या कहता है पोपट लाल ..?”
“वह नहीं मानेगा, नेहा!” विक्रांत का स्पष्ट उत्तर था।
“मानेगा, बाबू!” मैं उबल पड़ी थी। “उसका तो बाप भी मानेगा!” मैं अब अपने मूड़ में थी और मैंने पोपट लाल को तुरंत फोन मिलाया था।
“नेहा जीईईई …!” पोपट लाल के मुंह से लार टपक आई थी। “हुक्म बोलो .. मेरी सरकार!” वह पूछ रहा था।
“आपसे .. वो .. यही तय करना था कि ..?”
“हो गया वो तो! छोड़ दिया उसे तो ..?”
“नहीं! वो .. मैं .. चाहती हूँ कि ..”
“आ जाइए नेहा जी! अभी आ जाइए! फुरसत में बैठा हूँ। खुलकर बातें कर लेंगे तो .. बन जाएगी बात!” उसका प्रस्ताव था।
हैरान था, विक्रांत! परेशान भी था। पोपट लाल से वह फिर से भिड़ना न चाहता था। लेकिन मुझे तो सब समझ आ रहा था!
“चलते हैं!” मैंने बाबू को मना लिया था। “कुछ तय जरूर हो जाएगा!” मेरा सुझाव था।
“नहीं! मुझे देखते ही भड़क उठेगा!” विक्रांत ने कहा था। “मॉं के आंसू को अभी तक सीने से चिपकाये बैठा है!”
“तभी तो ..!” मैं चहकी थी। “यह कोई खाने वाला शेर नहीं है बाबू! पैसों का भूखा भेड़िया है!” मैं जोरों से हंस पड़ी थी। “पैसों के ख्वाबों में जीते हैं ये लोग!” मैंने अपनी राय दी थी।
पोपट मंजिल – जैसे एक मुकाम था हम दोनों के लिए और हम दोनों ने ही उस आलीशान महल को नजरें भर-भर कर देखा था। हर मायने में वह फिल्मी था! हर कोण से देखने पर केवल फिल्मों के जिस्म ही वहां दिखाई देते थे। न जाने कितने एक्टर और एक्ट्रेस वहां आ जा चुके थे और न जाने कितने किरदारों को पोपट लाल लील गया था।
“मेरे अहो भाग्य, नहा जी!” पोपट लाल हमारे स्वागत में खड़ा था। “पधारिए – मेरी मडइया पर!” उसने हंस कर मारवाडी लहजे में कहा था। “बैठिए!” बैठक में पहुंच कर उसने आग्रह किया था!
और वह बैठक भी किसी वैकुंठ से कम न थी!
ठंडा गरम आने जाने लगा था। एक खूबसूरत सी लड़की थी जो हमारे आतिथ्य में संलग्न थी। पोपट लाल इस मामले में बेहद चतुर था। उसे आता था – फिल्मी हस्तियों को रिझाना, पटाना और पी जाना! हर कलाकार का जायका और उसका रुझान पोपट लाल को जबानी याद था – मैं भी यह जानती थी!
“मैं चाहती हूँ कि ‘मॉं के आंसू’ मैं ले लूँ, एक चैलेंज के बतौर!” मैंने ही पहला तीर छोड़ा था।
“नेकी और पूछ पूछ!” हंसा था पोपट लाल। “आसमान गिरेगा तो मैं झोली भर भर कर समेटूंगा!” उसने एक किलक लील ली थी।
“मैं और विक्रांत ..” मैंने दूसरा वार किया था।
“नहीं! नहीं चलेगा नेहा जी!” उछल पड़ा था पोपट लाल। अब आ कर उसने बाबू को गौर से देखा था। “बिगाड़ देगा फिल्म को!” उसने शिकायत की थी।
“कहानी पलट देते हैं!” मैंने सुझाव सामने रक्खा था। “कहानी वो जो दर्शकों को बार बार बुलाए! वो – वो जो आप ‘नवाबजादे’ में देखते हैं! वो जो – समाज को सही संदेश दे!” मैंने अब पोपट लाल की लालची आंखों में झांका था। “जानते हो कित्ता कमाया है नवाबजादे ने?” मैंने पोपट लाल से प्रश्न पूछा था। “हैरान रह जाओगे पोपट लाल जी .. कि ..” मैं रुकी थी। पोपट लाल ने भी गहरी सांस ली थी। “तिजोरियां नाक तक नोटों से भर जाएंगी लबालब!” मैं हंस पड़ी थी।
पिघल गया था – पोपट लाल!
“लेकिन .. लेकिन नेहा जी ..” पोपट लाल के गले में जैसे कुछ अटक गया था – वह कह नहीं पा रहा था। “नेहा जी कहानी – रमेश दत्त की है! उसने बताया था। “और रमेश दत्त को कौन नहीं जानता फिल्म जगत में?” वह घबरा गया था। “जैसे ही उसे पता चलेगा – न बांस रहेगा न बांसुरी!”
“सब कुछ रहेगा पोपट लाल जी!”
“नहीं, नेहा जी! ये नहीं बनेगा!” साफ नाट गया था पोपट लाल।
याद है न बाबू – जब हम दोनों के सामने ये खुड़ैल हिनहिनाते घोड़े की तरह आ खड़ा हुआ था?
“तो चलते हैं!” मैं उठ खड़ी हुई थी – रमेश दत्त को पछाड़ने के लिए। “ये लो चेक! भर लो अपना वसूल!” मैंने पोपट लाल के सामने चेक बुक फेंक चलाई थी।
“बैठो न नेहा जी!” पोपट लाल गिड़गिड़ाया था। “बात बनेगी – अगर हम पूरी टीम बदल दें! आप दोनों भी इसे परम गुप्त रक्खें बाकी मैं संभालता हूँ!” उसने कहा था। “भर लो अपना एमाउंट!” अब उसने चेक बुक निकाली थी।
और याद है, बाबू .. उस रात हमने अपनी जीत का जश्न कैसे मनाया था? कैसे कैसे ख्वाब देखे थे – हमने, कुछ तो याद होगा तुम्हें? हम उस रात सो कहां पाए थे?
सब सपने सच हुए बाबू .. लेकिन हमारा प्यार मिट गया! खुड़ैल ने ही खा लिया हमारा सब! हमें परास्त कर दिया .. बरबाद कर दिया! लेकिन नहीं – मैं भी इसे जीता न रहने दूंगी .. बाबू! वायदा रहा मेरा – तुमसे मिलने से पहले मैं इसे मिटा दूंगी ..
सॉरी बाबू! मैं .. मैं ..
रोने लगी थी नेहा ..
क्रमशः
मेजर कृपाल वर्मा