रमेश दत्त उर्फ कासिम बेग विक्रांत के भीतर कहीं गहरे में बैठ कांटों की तरह टीसें पैदा कर रहा था – लगातार।
विक्रांत के दिमाग में विचारों के बवंडर भरे थे। एक के बाद एक विचार आ रहा था और विध्वंस करने के लिए उसे सलाह दे रहा था। अंत तक लड़ने की सलाह उग रही थी। कभी भी न हारने की सौगंध वह बार बार उठा रहा था। लेकिन एक दिशा भूल उसे रोके खड़ा था। लड़े तो कैसे? लड़े तो किससे? विवश था विक्रांत और छटपटा रहा था।
उसने महसूसा था कि रमेश दत्त उर्फ कासिम बेग ने बड़ी ही चतुराई और बड़ी ही चालाकी से उसकी दोनों भुजाएं काट कर उसके सामने फेंक चलाई हैं। और अब वह उसे जंग के लिए ललकार रहा है। काल खंड को उसने बैन करा दिया है और नेहा रूठ कर घर चली गई है। अब वह बिन भुजाओं का एक अपंग है जिसका जंग में हार जाना अवश्यंभावी है।
कासिम बेग को उसने अट्टहास की हंसी हंसते सुना है।
“भाई जी!” सुधीर ने विक्रांत को आवाज दी है। “भाई जी आपकी मदद चाहिए।” सुधीर की मांग है। “हम यों न हारेंगे।” सुधीर कह रहा है। “इन नट भांडों का भांड़ा फोड़ कर दम लेंगे!” सुधीर का एलान है। “यहां – इस बंबई में क्या क्या पक रहा है – हम अब इसे उजागर करेंगे।” सुधीर ने विक्रांत की आंखों में देखा है।
“क्या क्या पक रहा है?” विक्रांत ने सहज होते हुए पूछा है।
“क्या नहीं पक रहा है!” सुधीर तड़का है। “काम करते हैं यूपी के भइये, बिहार के बबुआ और तमाम हिन्दी भाषी क्षेत्रों के लोग और मजे उड़ाते हैं – डॉन, स्मेकिए मारवाड़ी और महाजन! कौड़ियों में पेमेंट करते हैं और करोड़ों में कमाते हैं। बेचारे कलाकार, संगीतकार, गायक और लेखक चालों में पड़े पड़े उम्र गंवा देते हैं, मिट जाते हैं .. लेकिन ..”
“तो हम क्या करें?” विक्रांत बोला था। “हम .. हम भी तो हो लिए बर्बाद, सुधीर।” विक्रांत की आवाज में कसक थी। “कितनी लगन से और मेहनत के साथ काल खंड बनाई थी .. लेकिन ..”
“चाल है! उस मुसलमान कासिम बेग का किया करतब है, भाई जी!” सुधीर भभक आया था। “और अब आप कमान संभालें! मैंने सब फिट कर दिया है। सात तारीख को हुतात्मा चौक पर मीटिंग है। सारे लोग – माने कि जिन्हें पुरबिए कहा जाता है – और जो लोग भूखों मर रहे हैं – मीटिंग में आ रहे हैं। आप इनका मार्ग दर्शन करें।” सुधीर का आग्रह था।
“करूंगा!” विक्रांत जैसे नींद त्याग कर उठ खड़ा हुआ था। “अवश्य मार्ग दर्शन करूंगा!” वह कह रहा था। “मैं .. मैं यूं न मरूंगा ..” कासिम बेग का नाम उसने लेना उचित न समझा था।
अब ये द्वंद्व एक का नहीं अनेक का था। अब ये समस्या उन सब की थी जो अनाम नरक में कीड़े मकोड़ों की तरह पड़े पड़े जिंदगी बसर कर रहे थे।
सात तारीख को पूरी बंबई में हड़ताल थी। फिल्म उद्योग के पीड़ित, उपेक्षित और शोषित लोग सड़कों पर उतर आए थे।
“हमारी पीड़ा के पारावार नहीं हैं।” विक्रांत हुतात्मा चौक पर खड़े होकर अपनी जौमदार आवाज में अथाह जन समूह को संबोधित कर रहा था। “कमाते हम हैं, रतजगा हम करते हैं, मेहनत हमारी होती है, विचारक हम हैं, कहानीकार हम हैं, संवाद हम लिखते हैं और अभिनय भी हमारे सर आता है। लेकिन लोगों हमारी कमाई ये सेठ खा जाते हैं! ये वो लोग हैं जो हमारे साथ दगा करते हैं। ये न देश के सगे हैं न समाज के! इनका धर्म केवल रोकड़ा कमाना है – बस! ये सारे निर्माता, निर्देशक और सेठ साहूकार अलग से बड़े बड़े सितारों को खरीद कर बेशुमार धन कमाते हैं जबकि हम गरीब लोग जिनका खून पसीना लगता है, सड़कों पर पड़े हैं। हम भूखे नंगे किस तरह गुजर बसर कर रहे हैं ..”
तालियां बजी थीं। जनता ने विक्रांत के नाम के नारे लगाए थे। बंबई दहला गई थी। छुप कर देखते धन पति और सेठ विक्रांत जैसी आफत के विकल्प खोजने में जुट गए थे। लेकिन ..
“आप नाराज हैं – क्यों कि आपकी काल खंड बैन हो गई है?” प्रेस का आम प्रश्न था जो विक्रांत से उत्तर मांग रहा था।
“काल खंड बैन हो गई है पर मरी तो नहीं है! काल खंड सिनेमा घरों में नहीं अब सर पर चढ़ कर बोलेगी! देश को जगाएगी, आवाज देगी काल खंड और देख लेना लोगों एक दिन ..”
“नेहा भी छोड़ गई है आपको?” प्रश्न आया था। “क्या अब आप नेहा से शादी करेंगे?”
“मैं शादी नहीं करूंगा!” विक्रांत ने बेबाक ढंग से कहा था। “मैं .. मैं अब देश सेवा करूंगा! मैं .. मैं उनके लिए जंग लड़ूंगा – जिनका कोई माई बाप नहीं है।”
बंबई में आज हुतात्मा चौक से एक संगीन संदेश उठ कर फिजा पर फैल गया था।
बंबई में हुई हड़ताल के कारण सारा प्रशासन और पुलिस हरकत में आ गई थी। फिल्मों की शूटिंग बंद थी। सिनेमा घरों के बाहर भी धरने घिराव हो रहे थे। जिन निर्माताओं का अपार धन डूबने डूबने को था – उनकी नींद उड़ी हुई थी। किसी को कोई विकल्प नजर नहीं आ रहा था।
पब्लिक और प्रेस में फिल्मी कलाकारों की दर्दनाक कहानियां कही जा रही थीं। मधुबाला और मीना कुमारी से लेकर परवीन बाबी और सारिका तक को याद किया जा रहा था। और कौन कहानीकार यतीम होकर मरा तो किस संगीतकार की मुफ्त में जान गई – बड़ी ही करुण कहानियां थीं और इन सबके लिए जिम्मेदार बड़े बड़े निर्माता और निर्देशक ही थे।
“ये विक्रांत ही आफत का परकाला है!” कासिम बेग पूरी बंबई में घूम घूम कर बता रहा था और यह भी बता रहा था कि बिना विक्रांत का विकल्प खोजे अब फिल्मों में काम काज होना संभव नहीं था।
“मैं शादी नहीं करूंगा!” विक्रांत का ये उद्घोष नेहा के कानों में बवंडर उठा रहा था। “मैं देश सेवा करूंगा। मैं उनके लिए लड़ूंगा जिनका कोई माई बाप नहीं है।”
“बाबू जो कहता है वही करता है।” नेहा ने स्वयं को समझाया था। “वह झूठ नहीं बोलता है!” नेहा ये भी जानती थी। “अब .. अब” नेहा का दिमाग अब विचार शून्य था।
“अब तुझे नहीं छूएगा विक्रांत!” खुड़ैल का दिया श्राप भी नेहा को आ आ कर सता रहा था। “मैं .. और मैं तुम्हें नेहा ..”
“क्यों नहीं छूएगा बाबू?” नेहा ने एक कमजोर प्रश्न अपने आप से पूछा था।
“इसलिए कि तुम अपवित्र हो चुकी हो! तुम सती सावित्री नहीं हो! अगर सीता को राम वनवास भेज सकते थे तो क्या तुम्हें विक्रांत छोड़ नहीं सकता?” तुरंत ही नेहा को उत्तर मिल गया था।
अब क्या करेगी नेहा – वह समझ ही न पा रही थी। उसका दिल दिमाग घोर निराशा के सागर में डूबा जा रहा था। उसे अब अपना अंत आता दिखाई दे रहा था।
“यों कब तक अफसोस में डूबी रहोगी जिज्जी।” समीर नेहा के पास आ बैठा था। “लो डालो एक गोली गले में!” वह हंसा था। “दोनों बहन भाई मिल कर अपनी कंपनी खड़ी करेंगे। आप के नाम पर तो कूड़ा भी बिकता है जिज्जी! और फिर दत्त साहब भी तो हमारे साथ हैं! हमें फिकर क्या है?” समीर ने नेहा की हिम्मत बंधाई थी।
अचानक ही नेहा को कासिम बेग और आजमगढ़ साथ साथ याद आ गए थे।
अच्छा खासा मजमा लगा था आजमगढ़ में। अनगिनत धंधे और मुंह मांगी औरतें थीं कासिम बेग के पास। वह भी अगर उस रेवड़ में शामिल हो जाएगी तो कौन बुरा है? धन माल की कमी तो है नहीं – कासिम पर। खूब लूट लूट कर अपना पेट इस ने नाक तक भर लिया है। उसके नाम महल बनवाने को कहता है – तो हर्जा क्या है?
आजमगढ़ का सपना बड़ी देर तक बैठा रहा था – नेहा के पास!
“ये हिन्दू बड़े कमीने होते हैं, नेहा!” कासिम बेग की आवाज थी। “औरतों के साथ तो ये जुल्म ढाते हैं। औरत – सती सावित्री .., औरत – पवित्र और अनछुई? ये साले निरे पागल हैं।” जोरों से हंसा था कासिम बेग। “अरे भाई! औरत तो भोग की वस्तु है – योग की नहीं! औरत से इश्क चाहिए, औरत से संतान चाहिए! औरत भूखी नंगी भी खुश रहती है बशर्ते कि ..”
“हम बहन भाई मिल कर फिल्में बनाते हैं जिज्जी!” समीर नेहा को समझा रहा था। “लोग तो करोड़ों कमा रहे हैं। आप के नाम पर तो नोट बरसेंगे – मैंने देख लिया है जिज्जी! पैसे हों फिर कहानी खरीद लो, संवाद लिखवा लो और एक चोखा सा डायरेक्टर ले लो! और है क्या इसमें?” वह हंस रहा था। “झाड़ू मारो सब को!” समीर ने तोड़ कर दिया था।
नेहा को अब गोली का असर हुआ लगा था। उसकी नींद खुली थी। उसका मन जगा था। उसकी जीने की तमन्ना सामने आ खड़ी हुई थी। बाबू के पैर तो वो न पकड़ेगी – उसने निश्चय किया था और ..
“पैसे हों ..” समीर का कहा संवाद दिमाग में फिर से गूंजा था। “फिर तो सब कुछ संभव था।”
अचानक नेहा को आत्म ज्ञान हुआ था। पैसे तो उसके पास थे। बाबू का सारा धन माल उसी का तो था। बाबू तो अब देश सेवा करेगा और उनके लिए लड़ेगा जिनका ..
“हम बहन भाई अब अपने लिए जीते हैं, जिज्जी!” समीर कह रहा था। “हम किसी के भरोसे थोड़े ही हैं!”
अचानक ही बाबू का पूरा का पूरा धन माल नेहा के पास आ खड़ा हुआ था। पहली बार नेहा ने पैसे होने के सुख का अनुभव किया था। पहली बार नेहा ने माना था कि पैसा ही तो था जिसके लिए हर कोई पागल हुआ घूम रहा था।
बाबू जैसा पागल तो केवल बाबू ही था।
नेहा जोरों से हंस पड़ी थी।
मेजर कृपाल वर्मा