आज पहली बार था जीवन में जब पूर्वी विश्वास के पैर जमीन पर नहीं पड़ रहे थे।
विक्रांत घर आया था। होने वाला दामाद था – विक्रांत! यह तो अब सर्व विदित था कि नेहा और विक्रांत की शादी काल खंड की रिलीज के बाद होगी। खबर थी कि शादी के बाद दोनों हनीमून मनाने यूरोप जाएंगे और उसके बाद त्रिकाल – ग्लोबल वैंचर की शूटिंग होगी।
“जीजा जी!” समीर चहका चहका डोल रहा था। “क्यों न आप और दीदी रंगीला के लिए ..?”
विक्रांत ने स्नेह पूर्ण निगाहों से समीर को देखा था। एक प्यारा प्यारा सौहार्द था उसकी आंखों में। होने वाला छोटा साला जो था – समीर। न जाने क्यों समीर उसे बेहद प्यारा लगा था। और लगा था .. जैसे ..
“तेरी रंगीला बन जाएगी!” विक्रांत ने उसे लढ़ाते हुए कहा था।
“पक्का ..?” समीर ने हथेली फैला दी थी विक्रांत के सामने।
“पक्का ..!” विक्रांत ने भी उसकी हथेली पर अपना हाथ दे मारा था।
बाबा, पूर्वी ओर नेहा तीनों ने इस छोटी सी घटना को एक साथ देखा था! तीनों के चेहरे चांद सूरज से चमक उठे थे। रंगीला फिल्म बनना जैसे इस परिवार की एक अभिलाषा बन चुकी थी और अब वो अभिलाषा पूरी होने जा रही थी।
“बहुत काम रहता है।” बाबा ने विक्रांत के पास बैठते हुए कहा था। “ये तो पगला है!” उन्होंने समीर की ओर इशारा किया था। “आप अपना काम खराब मत करना!” उनकी सलाह थी। “आप के तो सितारे ..” भावुक हो आए थे बाबा। “नेहा का भाग्य है।” उनकी आंखों में खुशी तैर आई थी। “मेरी बेटी ..” कुछ कह नहीं पा रहे थे बाबा।
“रुद्र तो कभी लौटा ही नहीं!” पूर्वी विश्वास ने उलाहना दिया था। “सीमा की शादी के बाद से ही .. कभी कोई नहीं आया!” वह बता रही थीं। “गरीब ससुराल हो तो – दामाद झांकता नहीं है। सोचता है – जरूर कुछ मांग जांच सामने आएगी!” शिकायत थी पूर्वी विश्वास की।
“लेकिन हम तो छुट्टियां आप के पास ही बिताया करेंगे अम्मा जी!” विक्रांत ने उन्हें खुश किया था। “आप जैसा स्वादिष्ट भोजन तो ..”
“लेकिन नेहा तो कहती है कि .. कि .. माधवी कांत बड़ी ही ..”
“अरे छोड़ो उनकी बात!” विक्रांत ने बात काटी थी। “निरी डिकटेटर हैं!” विक्रांत का उच्च स्वर गूंजा था। “मजाल है जो मक्खी भी ..”
सब लोग हंस पड़े थे। नेहा भी चुपके चुपके हंसी थी। चलती चर्चा में सभी आनंद ले रहे थे। दो परिवारों के एक होने का ये पर्व जो था।
“अच्छा बताओ!” विक्रांत ने नेहा को भीतर वाले कमरे के एकांत में पकड़ा था। “शादी के लिए कैसे कपड़े बनवाएं?” वह पूछ रहा था। “मैं .. मतलब कि मेरे लिए ..”
“वही कुर्ता पायजामा जो तुमने जीने की राह में पहना था।” तपाक से नेहा बोल पड़ी थी।
“अरे भाई!” ताली बजा कर हंसा था विक्रांत। “अरे भाई! वो कुर्ता .. वो चमरोंधी जूतियां ओर वो ..!” अब उसने नेहा को आंखों में घूरा था। “वो सब तो परदेसी की करामात थी।” विक्रांत ने बताया था। “लेकिन .. लेकिन .. तुम तो ..”
“वही साड़ी मैं भी पहनूंगी!” नेहा ने तुरंत कहा था।
“नहीं नेहा नहीं!” विक्रांत बीच में कूदा था। “तुम्हारे लिए शादी का परिधान तो मैं बनवाऊंगा!” उसने नेहा को आगोश में ले लिया था। “मेरा एक सपना है कि मेरी दुल्हन एक परी के परिधान में सजी-वजी सबके सामने आए। और तुम तो हो ही परी ..”
“मक्खन मार रहे हो! लेकिन क्यों ..?” मचलते हुए नेहा ने पूछा था। “मैं .. म .. म ..मैं” नेहा कुछ कह नहीं पा रही थी। शर्मा कर वह विक्रांत की बांहों में समाती ही चली जा रही थी।
बाबा चुपके से विक्रांत के पास आ बैठे थे। बहुत प्रसन्न थे। वह चाहते थे कि होने वाले दामाद के साथ खूब सारी बातें करें। विक्रांत उनको बेहद पसंद था।
“कलकत्ता में जब आजादी की जंग जुड़ी थी तो मैं शामिल हो गया था। लेकिन फिर पुलिस पीछे लग गई। तब मैं बंबई भाग आया था।” बाबा बता रहे थे।
“और यहां आ कर ..?”
“नौकरी की थी।” बाबा बोले थे। “तीन आने माहवारी की नौकरी!” हंसे थे बाबा।
“तीन आने – माहवारी ..?” विक्रांत तो उछल पड़ा था। “क्या कहते हैं बाबा साहब!”
नेहा उन दोनों को छुप कर देख रही थी।
“सच कहता हूँ विक्रांत बाबू!” बाबा फिर से बताने लगे थे। “अरे, वो जमाने ही और थे!” खुश खुश बाबा बोले थे। “छह पनसेरी नाज बिकता था। और .. और का कहते हैं – वो भी दूध .. और ..”
“लेकिन नौकरी ..?”
“तब तो नौकरी का मोल था बाबू!” सीना तान कर कहा था बाबा ने।” उसी नौकरी के दम पर तीन बच्चे ओर हम पले!” उन्होंने अपनी गौरव गाथा बताई थी। “अब तो समझो कि भाई करोड़ों में नहाते गाते हैं! राम जाने ..”
बाबा की आंखें एक अनूठे आश्चर्य से लबालब भरी थीं।
“आप अम्मा जी से कब मिले?” विक्रांत के स्वर में शरारत और किए प्रश्न में एक चुहल थी।
प्रश्न सुनकर बाबा तो बाग बाग हो गए थे लेकिन अम्मा जी उठ कर चल पड़ी थीं। नेहा प्रसन्न थी। इस प्रश्न का लक्ष्य तो उसे भी पता नहीं था। देखते हैं – अब बाबा क्या बताते हैं। नेहा भी उत्तर सुनने को आतुर थी। बाबा कई पलों तक इधर उधर झांकते रहे थे। तनिक हिचक रहे थे तो शर्मा भी रहे थे। एक विचित्र विगत था – जो आज इतने दिनों के बाद उनसे उत्तर मांग रहा था।
“उन दिनों की तो बात ही और थी विक्रांत बाबू!” बाबा तनिक संभल कर बोले थे। “कहां था चलन मिलने मिलाने का। कठोर पहरों में रहती थीं लड़कियां!” बाबा बता रहे थे। “इनका मुख तो कभी नहीं देख पाया था। हां! पैर जरूर देख लिए थे।” बाबा हंसे थे। “बहुत .. सुघड़ और सुंदर पैर थे।”
“फिर ..?” विक्रांत ने आनंद लेते हुए पूछा था।
“बस! अंदाजा लगा लिया था कि ..” बाबा चुप हो गए थे।
“आप पुरुषोत्तम हैं पिताजी!” विक्रांत ने हाथ जोड़े थे, उनके चरण स्पर्श किए थे और उन्हें प्रणाम किया था। नेहा गदगद हो उठी थी। विक्रांत का ये श्रेष्ठ आचरण एक बारगी उसे मां माधवी कांत की याद दिला गया था। कितने श्रेष्ठ संस्कार दिए थे उन्होंने अपने इस होनहार बेटे को!
अब दीवाली दूर ही कितनी थी। काल खंड रिलीज होगी और वो दोनों ..?
“शादी के बाद तो नेहा को पाना असंभव है।” रमेश दत्त उंगलियों पर हिसाब बिठा रहे थे। “और काल खंड रिलीज होने के बाद .. कोरा मंडी तो ..?” रमेश दत्त का दिल धड़कने लगा था।
गुलिस्तां में अकेले बैठे रमेश दत्त चिंताओं के महा सागर में तैर रहे थे। आज वहां भीड़ भाड़ न थी। शायद उनकी तरह ही लोगों ने भी उनकी डूबती किश्ती को देख लिया था। उनका आज बेहद मन था कि किसी तरह से भी नेहा से मिल आएं! लेकिन कोई सूरत ही न बन रही थी कि ..
“मैं जोहारी को भेज रहा हूँ!” भाई का फोन आ रहा था। “बकने से कोई फायदा नहीं!” भाई ने संक्षेप में कहा था और फोन काट दिया था।
रमेश दत्त को काटो तो खून नहीं। जोहारी का नाम सुनते ही उसके होश फाख्ता हो गए थे। सीधा सीधा मतलब था कि जोहारी ..
“आजमगढ़ का सब कुछ बेचने के बाद भी पैसा पूरा नहीं होगा!” हिसाब लगा कर देखा था दत्त साहब ने। “ओर ये जोहारी तो जान ले लेगा।” वो जानते थे।
“क्यों .. क्यों .. क्यों न जोहारी को?” एक तरकीब सामने आई थी। “अगर ये जोहारी किसी तरह से विक्रांत से ..?” पहली बार दत्त साहब को डर लग रहा था।
आज न जाने कैसे पहली बार रमेश दत्त कासिम बेग न होकर रमेश दत्त ही थे। उन्हें अचानक ये अहसास हुआ था कि वो भी कहीं से हिन्दू ही थे। मां को छोड़ कर भाग गए हिन्दू पिता का पता ठिकाना तो उन्हें नहीं पता था लेकिन .. लेकिन ..
“पापा होते तो मेरा नाम भी राधे श्याम या कि घनश्याम ही होता!” तनिक सी राहत महसूस की थी दत्त साहब ने। “लेकिन अब तो इस्लाम के इस दल दल में नाक तक आ धंसा हूँ।” उन्होंने उठी एक टीस को महसूसा था। “खून-खराबा .. मार धाड़ .. ओर ये बला की हाय हत्या – उन्हें तो विरासत में मां से ही मिली थी। “क्यों नहीं ..?” साहस कर उन्होंने स्वयं से पूछा था। “अगर विक्रांत को ये जोहारी ..?”
शाम कब ढली क्या पता। रात कब की गहराने लगी थी – नहीं पता! एक अजब डर, बेचैनी और आशा निराशा के बीचो बीच डोलते रमेश दत्त कोई किनारा न ढूंढ पा रहे थे। अचानक ही एक राय सामने आई थी – अंत। एंड ऑफ इट ऑल! बहुत हुआ? अब .. अब .. ये कुत्ता घसीटी छोड़ो! जोहारी तो मानेगा नहीं – वो जानते थे।
बजाए एक नींद की गोली खाने के आज उन्होंने पूरी क पूरी शीशी हथेली पर उड़ेल ली थी और अब जग में भरे पानी को ..
“हेलो!” आधी रात को ये कौन था जो उन्हें फोन कर रहा था। “कौन ..?” डरते डरते दत्त साहब ने पूछ लिया था।
“मेरे हाथ एटम बम लग गया है!” आवाज मुसाफिर की थी। “आप गजब के भाग्यशाली हैं नवाब साहब!” मुसाफिर कह रहा था। “मैं .. मैं अभी भी घर में घुसा हूँ। और बाहर निकलूंगा तब तक आप सांसें सम्हाले रहना। जीता रहा तो आप के पौ बारह।” फोन काट दिया था मुसाफिर ने।
“ये .. ये क्या बक रहा है?” रमेश दत्त कुछ समझ ही न पाए थे। “सांसे सम्हाले रखना क्या मतलब है? इसे कैसे पता कि मैं .. मैं .. मरने जा रहा था?”
कुछ सोच समझ कर रमेश दत्त ने एक ही नींद की गोली खाकर सोने का प्रयत्न किया था।