धारावाहिक – 14
‘नवाबज़ादे’ फिल्म की घोषणा क्या हुई थी कि सारा दिगंत दहला उठा था ।
‘देखो ।’ रमेश दत्त ने ढ़ेरों सामग्री मेरे सामने इकट्ठी कर दी थी । ‘अपना ये चित्र देखो , नेहा ।’ वह प्रसन्न था । ‘क्या प्रोफाईल है ?’ वह प्रशंसा कर रहा था । ‘अब मिलाओ जूही को ?’ वह उलाहना दे रहा था ।
‘बेजोड़ कहा जायेगा ।’ मैंने भी मान लिया था । ‘लेकिन जनाब ….?’ मैं हँसी थी ।
‘अरे, क्यों ?’ गरजा था, खुड़ैल । ‘फिल्म मुगले आजम के मुकाबले की बनेगी ।’ वह बताने लगा था । ‘सलीम और अनारकली का अमर प्रेम फिर से पर्दे पर जिंदा होगा ।’ अब उस ने मेरी ऑंखों में घूरा था । ‘कहानी रमेश दत्त की होगी , गीत लिखेंगे ‘बेजान’ , संगीत होगा ‘सुरभि ‘ का और संवाद लिखेंगे – भोला ।’ वह बताता जा रहा था। ‘सैट एक से एक बेहतर लगेगा । मनी इज नो बार ।’ उस ने अपने हाथ पसारे थे । ‘ये फिल्म तहलका मचायेगी – मैं कहे देता हॅू ।’
‘हीरो कौन होगा …?’ मैं अधीर होने लगी थी तो मैंने पूछ लिया था ।
‘दिलीप कुमार जैसा ही कोई ।’ हँसा था , रमेश दत्त । ‘भाई की चौइस होगी ।’ उस ने मुझे सूचना दी थी।
इतनी बड़ी खुशी को पचाते-पचाते मुझे लगा था जैसे मैं बीमार होने जा रही थी ।
‘कुछ भी नहीं हुआ, तुझे ।’ पूर्वी विश्वास – मेरी मॉं ने मेरा हाथ झटक कर कहा था । ‘नजर लगी है किसी डायन की ।’ उन का कहना था । ‘कल गंडा बनवा कर ला दूंगी ।’ उन्होंने बीमारी और इलाज साथ-साथ ही बता दिये थे।
लेकिन जब मुझे सूखी उल्टियां और मितली आईं थीं तो ….मैंने प्रभा को फोन किया था और उस के क्लिनिक में जा पहुँची थी ।
‘जहे नसीब …कि आज तू आई ….?’ प्रभा ने मुझे बांहों में भर लिया था । ‘ठीक से नहीं लग रही ?’ उस ने मेरी सूरत देखते ही कहा था । ‘आ, चल । देखूँ तो मुझे ?’ उस ने फौरन ही मेरा चैक-अप आरंभ कर दिया था ।
एक के बाद एक और फिर अनेकों जॉच-पड़ताल में उलझी प्रभा मुझे समझ नहीं आ रही थी । मैं सोच रही थी कि अगर कोई जंगी बीमारी निकल गई …फिर तो ‘नवाबज़ादे’ का न जाने क्या हश्र होगा ? मैं तो ….मैं तो फिर ….
‘ये ….ये क्या बवाल है , रे ….?’ प्रभा के चेहरे पर हवाईयां उड़ रहीं थीं । ‘ये ….ये …क्या बेवकूफी कर बैठी , तू ?’ प्रभा मुझे पूछ रही थी ।
‘क्यों , क्या हुआ ….?’ मैं भी घबरा गई थी । ‘मैंने तो …..मैंने तो ….’
‘तो फिर ये प्रेगनेन्सी कैसे हो गई ?’ प्रभा का प्रश्न था । ‘इट्स …सीरियस , नेहा ।’ वह बता रही थी । अब उस ने मेरी ऑंखों में झांका था । ‘रिस्की है ….मेरी बहिन ।’ प्रभा घबराई हुई थी ।
मुझे भी काटो तो खून नहीं । मेरी ऑंखों के आगे अंधेरा छा गया था । मैं बेदम थी ….बेहोश हाेने को थी ….और …. मैं …
‘रिस्की फॉर …..लाइफ ।’ प्रभा सोच कर बोली थी ।
‘मुझे मर ही जाने दो , प्रभा ।’ मैं रो पड़ी थी । ‘अब जी कर भी मैं क्या करूंगी ?’ मैं बिलख रही थी ।
‘नवाबज़ादे’ पंख लगा कर मेरे जेहन से उड़ गई थी । जो मेरे सामने उजागर हुआ था – वह था रमेश दत्त का वही घिनौना चेहरा । इसे मैं न जाने कैसे बर्दाश्त करती थी ? और अब …..? आज तो मेरा मन था कि ….उठूं और इस रमेश दत्त को इतना मारूँ …चप्पलों से कि …..
‘इसी बेईमान का किया कुकर्म है , ये ।’ मैंने मान लिया था । ‘और मैं …अब इसे ….?’ मैं क्रोध से कांपने लगी थी । मैंने निगाहें उठा कर तब उन पलों में अपने सहारे खोजे थे । और सच कहती हूँ, बाबू कि एकाएक मुझे तुम्हीं याद आये थे । तुम्हीं जान पड़े थे जिस पर मैं भरोसा कर सकती थी ।
‘गलती हो गई , बाबू ।’ मैं अनायास ही तुम से कह रही थी । ‘ये खुड़ैल मुझे बहका कर दुबई ले गया ….और मेरे साथ ….?’
‘इस का डर ताे मुझे भी था, नेहा । पर जब तुम …स्वयं ही ….?’
‘नेहा ।’ प्रभा का स्वर आया था । एक चेतावनी थी , उस के स्वर में । ‘ढोल मत बजा , मेरी राय है ।’ वह कह रही थी । ‘लैट इट बी ए क्वाईट अफेयर ।’ उस ने धीमे से कहा है । ‘वरना तो …..?’
प्रभा चली गई थी । मैं अब निपट अकेली थी । मैं बहुत नर्वस थी । मैं अब पागल होने को थी । और तब …उस दिन मैंने परमात्मा को नहीं तुम्हें याद किया था , बाबू ।’ नेहा रोने लगी थी । ‘न जाने कितना कितना नहीं पुकारा था मैंने ….अपने बाबू को और मैं बेहोश हाे गई थी ।’
और तुम्हारे अंत की यही आधार शिला बनी , बाबू ।
रोती रही थी , नेहा ।
क्रमशः –