शिखा का तीसरा नेत्र अचानक ही खुल गया था।

लंदन में श्रीमति इंदिरा गांधी – भारत की नव निर्वाचित प्रधान मंत्री के साथ चले आना अपने आप में एक अनुभूति थी। लंदन विश्व में एक अलग महत्व का शहर था। यहां की संस्कृति आज पूरे विश्व की संस्कृति बन चुकी थी और जहां जो भी लंदन या ब्रिटिश का था – वही सही था, मान्य था और श्रेष्ठ था।

हर देश का लंदन के साथ सम्बन्ध था। पूरे विश्व के दार्शनिक से लेकर दर्शनार्थी तक लंदन पहुंचते थे।

भारत भी लंदन के लोगों की चर्चा का विषय था। लंदन में बैठा हर विदेशी भी भारत की टोह ले रहा था। भारत गरीब था, भारत नए दौर से गुजर रहा था और विश्व का बेहद संभावित क्षेत्र था जहां अभी बड़े बड़े कारनामे होने थे।

“भाभी जी!” कोई फोन पर बोल रहा था। “अब आपके होते सोते हमें फिकर करने की जरूरत नहीं पड़ेगी।” वह कह रहा था।

“ध्यान रक्खूंगी!” श्रीमति इंदिरा गांधी ने उत्तर में कहा था।

शिखा को पिछली रात हुई पार्टी याद हो आई थी।

जैसा पूरे विश्व का सत्ता समीकरण वहां किसी न किसी नए पुराने रूप में हाजिर था ऐसा लगा था शिखा को। हर कोई भारत को ले लेना चाहता था, खरीद लेना चाहता था और किसी न किसी रूप में घुस जाना चाहता था भारत में।

मुस्लिम लीग का तो बेहद मन था कि किसी तरह से भारत का इस्लामी करण हो जाए और भारत अंतत: उनका हो जाए। शिखा को भी लगा था कि लीग की आकांक्षाएं गलत नहीं थीं। हिन्दू तो संतोष की चादरें ओढ़ कर सो रहे थे। अहिंसा, धर्मनिरपेक्ष और गुट निरपेक्ष के गुदगुदे बिस्तरों पर विश्व शांति के तरुवर की छांव में सोए पड़े हिन्दू अपने आप में सुखी और संपन्न थे। लेकिन जो तैयारियां हो रही थीं वो तो बेहद खतरनाक थीं।

“ए यंग लेडी!” कोई कह रहा था। “विद टू यंग संस – इज द फ्यूचर ऑफ इंडिया!” उसका अनुमान था। “गांधी डायनैस्टी इज द फ्यूचर ऑफ इंडिया।”

“बट अदर पॉलिटीशियंस कॉल हर गूंगी गुड़िया!” हंस गया था दूसरा साथी। “छोकरी है उनका अनुमान है। चलेगी नहीं लोग कहते हैं।”

“चलेगी!” तीसरा बोला था। “नेहरू की बेटी है। कांग्रेस की नेता है। भारत न नेहरू को भूला है न कांग्रेस उस से जुदा है।” उसने मर्म की बात बताई थी।

“तो जन संघ का क्या होगा?” शिखा ने अपने दिमाग में प्रश्न को घुमाया था। एक घोर निराशा का जन्म हुआ था उसके भीतर। “हिन्दू राष्ट्र कैसे बनेगा?” प्रश्न था।

“नो होप इन हैल!” कहीं से उत्तर आया था। “फिर से गुलामी ..?”

शिखा का मन बैठ गया था।

“उदास क्यों है शिखा?” इंदु ने बड़े स्नेह पूर्वक पूछा था। “क्या चाहिए?”

कैसे बताती शिखा कि उसे हिन्दू राष्ट्र चाहिए था जबकि वहां जो सौदे हो रहे थे वो तो गुलामी के ही थे और इस्लामी करण के थे।

“ये लोग – मेरा मतलब है कि यहां के लोग कितने संपन्न और सुखी हैं।” शिखा ने बात पलटी थी। “जबकि हमारा भारत तो ..?”

“गरीब है?” हंस पड़ी थी इंदु। “वक्त बलवान होता है शिखा। कल का क्या पता – भारत कौन बुलंदियां छूए!” चमक थी इंदु की आंखों में। कोई नया सपना था शायद जो उसने यहां आ कर देखा था।

“शिखर ही बताएगा इस सपने का अर्थ शायद!” शिखा ने सोच लिया था।

“चलकर चुनावों की तैयारी करनी होगी शिखा!” इंदु सहसा बताने लगी थी। “कामराज जी नहीं चाहते कि मैं ..”

“फिर चाहते क्या हैं?”

“कि मैं उनके हाथों में खेलूं!” हंस गई थी इंदु। “लेकिन ..” वह मुसकुराती रही थी।

अब के कामराज को भी पता चल चुका था कि वो भी खिलाड़ी नहीं था – निरा अनाड़ी था।

शिखा अमेरिका की छटा देख कर दंग रह गई थी। धरती पर बसा स्वर्ग कहा जाने वाला अमेरिका अनोखा था। भूखे नंगे भारत की प्रधान मंत्री जब राष्ट्रपति जॉनसन से मिली थी तो उन्होंने सुदामा को मुंह मांगा अनुदान दे दिया था।

“यू गेट नाइन हनड्रेड मिलियन डॉलर एज ऐड एंड इनफ फूड ग्रेन्स अंडर पी एल 480 टू फीड द कंट्री।” राष्ट्रपति इंदिरा गांधी को बता रहे थे। “बट डी वैल्यू योर करेंसी मैडम।” वो मुसकुराए थे। “इट विल हैल्प यू एंड दी आई एम एफ एंड वर्लड बैंक बोथ।” उनकी राय थी।

शिखा की आंखों में आश्चर्य था। इंदु ने इतना बड़ा मोर्चा अकेले हाथों ही फतह कर लिया था।

लेकिन भारत लौटने पर प्राप्त समाचार पर तालियां नहीं बजी थीं और गालियां मिली थीं।

“बेच कर आ रही है भारत!” मीनू मसानी ने सरेआम पार्लियामेंट में ऐलान किया था। “अब भारत ब्रिटेन और अमेरिका के रहमों करम पर चलेगा .. और ..”

“ये देश टूटेगा!” राम मनोहर लोहिया ने संवेदना व्यक्त की थी। “बिना किसी के पूछे इसने इतना बड़ा स्टेंड ले कैसे लिया?” उनका मुंह फटा का फटा रह गया था। “ये लोग कितने शातिर व्यापारी हैं – इसे पता क्या है!” लोहिया का चेहरा बुझ सा गया था।

के कामराज पर भी पहली बार जूता पड़ा था।

शिखर का भी बुरा हाल था। शिखा ने सशब्द बयान किया था – जो जो लंदन और अमेरिका में हुआ था। शिखर की आंखें भी फटी की फटी रह गई थीं।

“भारत बचाओ!” शिखर ने ऊंची आवाज में शिखा से कहा था। “विदेशी दलाल है ये महिला!” खुले शब्दों में कहा था शिखर ने। “शिखा!” उसने लंबी चुप्पी के बाद पुकारा था शिखा को। “लगा दो आग भारत में!” शिखर की आवाज में अवसाद था। “आंदोलन .. धरना .. घिराव और सत्याग्रह शुरू!”

“लेकिन क्यों?” शिखा ने उत्तर मांगा था। “किस लिए?” वो पूछ रही थी।

शिखर की त्यौरियां चढ़ी थीं। वह क्रोधित था। उसे लग रहा था जैसे ईसाई और मुसलमानों ने मिल कर भारत पर चढ़ाई कर दी थी। दोनों मिल कर खरीदने जा रहे थे देश को। और अगर देश बचाना था तो हिन्दुओं को जगाना था और उन्हें बताना था कि तुम ..

“गो हत्या!” शिखर ने नया नारा दिया था। “बंद करो गौ हत्या!” वह पागलों की तरह बोलता ही चला जा रहा था। “गौ हमारी मां है! गौ हिन्दुओं की ..” उसने शिखा की आंखों में घूरा था। “नहीं समझीं ..?” शिखर ने पूछा था।

“समझ गई!” शिखा ने स्वीकारा था। “चलेगा! जोरों से चलेगा!” शिखा मान गई थी। “और .. और क्या ..?”

“महंगाई! महंगाई भत्ता!” शिखर बताता ही जा रहा था। “भाषा – माने हिन्दी संस्कृत लाओ – अंग्रेजी हटाओ।” वह तनिक संभला था। “मुद्दे लाओ! झूठे हों सच्चे हों – मुद्दे हों! लड़ो शिखा लड़ो वरना तो हम इस बार की जंग भी हार जाएंगे!” उसने सांस संभाली थी।

जन संघ झंडे डंडे लेकर सड़कों पर उतर आया था।

लेकिन अन्य पार्टियां साथ आने में हिचक रही थीं। स्वतंत्र पार्टी तो अपने निहित स्वार्थों को लेकर ही लड़ रही थी। राजे महाराजों, धनी मानी जमींदारों और व्यापारियों की ये पार्टी थी। उन्हें तो अपने मतलब की बात ही सरकार को मनवानी थी बस। राष्ट्रीय मुद्दा उन्हें सुहाता ही नहीं था। हिन्दू राष्ट्र जैसी परिकल्पनाएं उनके दिमाग से बाहर की बातें थीं। कम्यूनिस्टों का अलग से एजेंडा था। बंगाल और दक्खिन भी हिन्दू राष्ट्र के मुद्दे पर अलग था। उन्हें तो सेक्यूलरिज्म सुहा सी गई थी। वो इसके दूरगामी परिणाम देख नहीं पा रहे थे। कांग्रेस ने मुसलमानों को खुश करने और निम्न वर्गों को आरक्षण देने की चाल चलकर वोट बैंक हाथ में ले लिया था। जन संघ की आवाज सुनकर भी लोग सुन नहीं पा रहे थे!

अत: शिखर और शिखा भी इस बार देश में आर पार की लड़ाई छेड़ देना चाहते थे। अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद और आर एस एस को आदेश थे कि देश में दंगे करें, तोड़ फोड़ करें, हंगामा करें और धरना घिराव करें।

गौ हत्या के जुर्म में के कामराज के घर को घेर लिया गया था और गृह मंत्री गुलजारी लाल नंदा के निवास पर आमरण अनशन आरम्भ हो चुका था।

पुलिस लाठियां भांज रही थी और गोलियां चला रही थी लेकिन अब मरने की परवाह थी किसे?

मेजर कृपाल वर्मा

Discover more from Praneta Publications Pvt. Ltd.

Subscribe now to keep reading and get access to the full archive.

Continue reading