शीतल तनिक रुकी है ताकि वो मुझ पर बात की प्रतिक्रिया देख कर आगे बात करें। मैं इस तरह की कहानियॉं देख, सुन और महसूस कर चुका हूँ। लेकिन शीतल अब भी मुझे वही मनमौजी दलीप समझ रही है। मैंने बात को काट कर समाप्त करने की गरज से बेहद उबाऊ स्वर में पूछ लिया है।
“कितने पैसे की दरकार है?”
“शायद तीन चार हजार लग जाएं!” शीतल के पास जैसे ये उत्तर पूर्व निर्धारित और बना बनाया रक्खा था। अब बनावटी विश्वास एक अपूर्व विजय बन कर उसकी आंखों में छलक रहा है।
“श्याम से ले लेना!” मैंने उसी रूखे स्वर में कहा है।
अब की बार ये चोट शीतल पर पड़ी है। उसका सारा मुख मंडल मलिन और कृतघ्न लगने लगा है। उसे शायद मुझ पर रोष आ रहा है। न तो मैंने उसके रूप के आघात सहे और न ही उसके दर्द से जुड़ा, न तो उसकी लल्लो-चप्पो की और न ही कोई मूक याचना की। उसे बाँहों में भर लेने का अज्ञात आग्रह या किसी आत्मीयता का सेक उसे महसूस नहीं हुआ। उमेठी सी याचनाओं को पलट कर उसने फिर कहा।
“मैं ये आप से कर्ज ले रही हूँ। इसकी पाई पाई चुका दूंगी!”
“ठीक है!”
“लेकिन तुम्हारा आभार कैसे चुकाऊंगी?” एक ठंडी आह छोड़ कर शीतल बेजान सी कुर्सी पर लटक गई है। शायद उसे आशा थी कि मैं उसे बांहों में भरे आगे बढ़ूंगा। जिस तरह अन्य लड़कियों ने मुझे किए आभार कई बार वापस किए हैं और शीतल जैसी कई ने तो गलबहियां डाल कर यही कहा है – मैं आजन्म तुम्हारी दासी बन कर तुम्हारा ये कर्ज चुकाऊंगी! कितना सरल सा उपाय है और कितनी बड़ी दगा है – ये सोच कर जब मेरे मन में नफरत के फव्वारे फूटते हैं तो सारी उदारता बह जाती है! तभी मुझे ये सुसज्जित युवतियां नागिन जैसी लगने लगती हैं। मोह पाश फेंकती कोई बनजारिनें, तांत्रिक या कोई और मायावी स्त्री जो मेरी उमर चुरा कर भाग जाना चाहती है।
शीतल ने जब मुझे कटा कटा और अलग-थलग पाया है तो मेरा ध्यान आकर्षित करते हुए कहा है।
“तुम सोच रहे होगे कि मैं ..” वह रुकी है। मैं अब भी मौन बैठा हूँ।
“बस अकेली हूँ दुनिया में .. सिर्फ अकेली! इतना भार बोझ, इतनी जिम्मेदारी, ये तंगी भरे दिन और ड्यूटी का तकाजा ..? सच कहती हूँ दलीप! मैं थक गई हूँ!” फिर से शीतल मुझे खींच कर अपने उत्तप्त अंगों में भर लेना चाहती है। मन कई बार बागी हुआ है और मैं कई बार गद्दारी करने पर आमादा हुआ हूँ पर किसी अज्ञात शक्ति ने मुझ पर रोक लगा दी है। सोफी ने कभी कुछ नहीं कहा – किसी ने मुझ से पूछा है।
“बिन कहे क्या नहीं कहा था?” एक निश्वास छोड़ी है मैंने। कुछ आद्र भाव मन में उगे हैं। मैं शीतल की थाह लेने की गरज से पूछ बैठा हूँ – तुम्हारा अपना ..?”
“अपना ..? हाहाहा ..!” खिलखिला कर शीतल अट्टहास की हंसी हंसी है। फिर कोई शूल सा चुभा है। ये प्रदर्शन, ये नाटकीयता और इन बनावटी हाव भावों से मुझे चिढ़ हो गई है। जो परछाइयों के पीछे से बोलता है मैं उससे कोसों दूर चला जाता हूँ।
“अपनों की परिभाषा आज बदल गई है, दलीप। आज अपना जो भी है – घात करेगा, बदनामी करेगा, माल हजम कर जाएगा, नीचे गिराने का भरसक प्रयत्न और गिरा कर मिटा देने की चेष्टा ही अपनों के लक्षण होते हैं!”
लगा है शीतल ने अबकी बार कुछ सच उगला है। आपसी छोटे छोटे स्वार्थ और मन-मुटाव आज इतने विद्रूप होकर फैल चुके हैं कि भाईचारा और मानवीयता के लाशें बिछी पड़ी हैं।
“मेरा अपना चाचा कहता है मैं बाहर कमाती हूँ। मैं रंडी हूँ। लोगों के साथ होटलों में जा जा कर रात भर सोती हूँ। मैं कुलटा हूँ और ..”
“और ..?” मैंने शीतल को आगे बोलने का संकेत दिया है।
“और मेरा मन कहता है कि उसके मुंह पर थूक कर कह दूं – हां हां मैं हूँ! फिर मन कहता है – यही करूं और सबको बता कर – कह कर यही सब करूं फिर देखती हूँ कि कितने शर्म में डूब कर मरते हैं!” भाव विभोर शीतल आपा खो बैठी है।
“और कर भी क्या सकती हूँ? एक अदद नौकरी है .. सो ..” आंखें सजल हो आई हैं शीतल की।
मैं एक दुर्दांत स्थिति में जा फंसा हूँ। सोच रहा हूँ – वास्तव में अपने ही दगा करते हैं। आज के अपनों की परिभाषा बदल गई है। अब ये झूठ नहीं है। शीतल जैसी लड़कियों को कोई भी शालीनता या चारित्रिक और उच्च स्तरीय व्यवहार की उम्मीद नहीं रखता। लगता है हम एक दूसरे को बिगाड़ने में लगे हैं, मिटा रहे हैं और इस गिरावट में समाज जिस हर्षोल्लास का अनुभव कर रहा है उसे बुद्धिजीवियों ने सामाजिक स्वतंत्रता का नाम दे दिया है। फ्री सेक्स, फ्रीडम, विचार प्रस्तुतिकरण का अधिकार, मत देने का अधिकार और पता नहीं कितने और अधिकारों के मध्य हम कर्तव्यों को खो बैठे हैं।
“कोई अन्य परेशानी हो तो बताते रहना!” मैंने पृथक भाव का पुट अब भी अपनी आवाज में मिलाए रक्खा है। मैं शीतल से ज्यादा लगाव पैदा नहीं करना चाहता। पता नहीं क्यों सोफी एक लक्ष्मण रेखा जैसी खिंच गई है जिसकी परिधि विध्वंसकारी भावों से बनी है। इस परिधि का विच्छेद इन सहज नाटकीय शब्दों के काबू से बाहर लगता है।
“मैं पैसे कल ले जाऊंगी। सफदरजंग हॉस्पीटल में पिताजी को लेकर जाना है .. फिर ..”
“ठीक है! आप श्याम से मिल लेना। और हां! श्याम एक अच्छा लड़का है। तुम्हारी तरह वह भी अकेला है!” कह कर मैं उठ गया हूँ। जो शीतल नहीं चाहती थी। उसके उत्पीड़न के बीचों बीच जो स्वार्थ और लालायित स्थिति उभर आई थी मुझे सचेत कर गई थी। मैं इन दाव पेचों में अब माहिर हूँ अतः मैं मात खाना नहीं चाहता! यों तो कई बार मैं जान बूझ कर ऐसे लालचों के शरीरों से खेल चुका हूँ, वायदे भी कर चुका हूँ, उन्हें छोड़ भी चुका हूँ और हर बार एक नया अनुभव समेटकर उठ गया हूँ।
पर अब ये सब अनैतिक लगने लगा है।
मेजर कृपाल वर्मा