अपनी योजना को फलीभूत करने के ध्येय से मैं और श्याम काम में जुट गए हैं। हमारे सामने कितने काम हैं। किस तरह एक काम दूसरे से बंधा है और पर पूरक लगता है – ये मैं और श्याम जानते हैं।

पहला काम फैक्टरी का सौदा आसान नहीं! दूसरा जनता ग्रुप ऑफ मिल्स का लाइसेंस लेना तो जैसे धरती पलटना ही समझो! फिर जमीन खरीदनी है, मशीनें खरीदनी हैं, स्टाफ भरती करना होगा, लेबर भरती करना होगा और इस सब करने धरने के हंगामे में हमें किन बारीकियों से गुजरना है उसका तो ध्यान मात्र ही रोमांच पैदा कर देता है।

“ये तो सब करना ही है!” मैं और श्याम बार बार दोहराते हैं। मैंने मिस्टर मेहरोत्रा से परामर्श लेना बुरा नहीं समझा है।

“आप का क्या खयाल है कि ..?”

मिस्टर मेहरोत्रा सहम से गए हैं। एक अकारण दीनता उनपर आ लदी है। वो समझ रहे हैं कि मैं उन्हें निकाल फेंकना चाहता हूँ और ये मैंने एक सरलीकृत कायदा ढूंढा है। मेरे शिष्टाचार और मधुर कंठ से जो सौजन्य टपक रहा है शायद उन्होंने पहली बार ही महसूसा है!

“मैंने तो कभी अनुभव नहीं किया सर। आप ही ..” वो राय देने से मुकर गए हैं।

“अगर कल को ये जिम्मेदारी आप पर आन पड़ी तो?”

“मुझ पर ..?”

“क्यों ..! क्या नहीं संभालेंगे आप?”

“क्यों नहीं क्यों नहीं! पर सर ..”

“मन में भरा विषाद और शंका उगल दो मिस्टर मेहरोत्रा! मैं तुमसे कोई बदला नहीं चुका रहा हूं!” मैंने बेबाक ढंग से पर्दाफाश किया है।

मेहरोत्रा का मन खिल गया है। उनका दब्बू सा चेहरा अचानक ही एक अरुण आभा में सराबोर हो गया है। मेहरोत्रा ठिगने और गोल मटोल से आदमी हैं। जितने जमीन से ऊपर उतने ही जमीन के नीचे हैं। ये आम कहावत इनके बारे में प्रचलित है। सर सपाट है और सूरज की सीधी किरणों के प्रहार से चमकने लगता है। नाक चोथ जैसी चिपकी हुई है, मूँछें बिलकुल हिटलर स्टाइल की हैं और हमेशा पॉण्स पाउडर की गंध से घिरे रहने के कारण बहुत सभ्य लगते हैं। बोल चाल का लहजा मीठा है। वैसे जब कतरनी जैसी इनकी जबान मीठे विध्वंसकारी शब्द कहकर अंदर चली जाती है तो इनका घुटा चेहरा सारे भाव पी जाता है। फिर स्वयं मेहरोत्रा कभी कभी पूर्ण विध्वंसकारी लगने लगते हैं। एक शांत ज्वालामुखी, एक संवेदन विहीन इंसान और एक सभ्य चोर – सब एक साथ! मैं सब कुछ जानते हुए भी ये नहीं जानता कि इनकी इस रूप में परिणति क्यों और कैसे हुई! जानकर करूंगा भी क्या – अब क्या बदलेंगे ये घुटे लोग?

काम की तड़तड़ी में मैं सोफी को तो भूल ही गया। यों एक पल भी उसे जेहन से निकाल फेंकना दूभर हो रहा है पर मैं अब सोफी पर अपनी सफलता की मुहर दाग देने को आतुर हूं। वह चली गई है। कहां गई है मैं नहीं जानता। लेकिन इतना मुझे विश्वास है कि वो कहीं दूर खड़ी अवश्य ही मुझे परख रही होगी। मैं नहीं अनु उसे छोड़ने गई थी और अनु ने मुझे उसके बारे में कुछ भी उगल कर नहीं दिया है। बस दो एक बार मुसकुरा कर कहा है – क्यों! इतनी फिकर कब से?

सारा जोशोखरोश समेट कर मैं काम में धंस गया हूँ।

अब तक की संचित शक्ति साथ दे रही है और जो थोड़े बहुत संबंध राज नीति के नेताओं से थे अब एक परिपक्व रूप लेते जा रहे हैं। लोग मुझे अब लुच्चा लफंगा या लोंडा लपाड़ा न समझ कर एक जिम्मेदार व्यक्ति मान बैठे हैं।

श्याम की डायरी के पॉइंट कभी भी ग्यारह या पंद्रह से कम नहीं हो पाते। हम इन्हीं पॉइंटों के पीछे दिन और कभी कभी रात भी बिता देते हैं। अब फैक्टरी को ही ले लो। सौदा होते होते रात के तीन बज गए थे। आंखों में नींद के तिलूरे चटखने लगे थे पर काम को सर अंजाम देना अब हमारा धर्म बन गया है। सुबह देर तक सोने की आदत पर श्याम हमेशा की तरह पानी फेर सामने आ खड़ा होता है।

“अब क्या हुआ जनाब?”

“जमीन का सौदा जो करना है प्यारे?”

“तो कौन सी मौत आई है यार! थोड़ा और वेट कर लेते हैं?”

“नहीं! उसके बाद तो बंबई जाना है। फ्लाइट चार बजे है!”

“उसके बाद टिम्बकटू भी जाना होगा और फिर सीधा जहन्नुम में! साला .. गधा ..” मैंने श्याम को मुंह भर कर गालियां दी हैं। और श्याम है कि इन्हें आशीर्वाद और प्रसाद समझ रहा है और एक हंसी के साथ सपाक से पी गया है। एक मधुर मुसकान बन कर अब यही गालियां प्योर आत्मीयता में परिवर्तित हो गई हैं। हम दोनों बहुत जुड़ गए हैं! अपनापन, गहरा रिश्ता, एक दूसरे में अपार और अटूट विश्वास सभी कितने सुखद और गुणकारी होते हैं। इन्हीं को जब मैं टूट टूट कर बिखरते कहीं देख लेता हूँ तो हृदय अनगिनत दंशों से आहत हो जाता है। मैं फिर आंख मूंद कर प्रार्थना करता हूँ – भगवान मुझे शक्ति देना ताकि मैं ..

“क्या स्तुति की है सुबह सुबह? साला गधा सभी तो भगवान कृष्ण के स्वरूप हैं और उनकी महिमा तो अपरंपार है।” श्याम ने हाथ पसार कर अभिनय किया है। अब दोनों हंस पड़े हैं। अनुराधा चाय रख गई है। अब मैं जल्दी-पल्दी तैयार हो जाना चाहता हूँ वरना तो श्याम से लेट होने के जुर्म में समय धन है पर लैक्चर और अंत में लानत मलानत के बाद माफी भी मांगनी होगी!

“तू भी साले एक ही घटिया है! सुबह से शाम तक डांटता है और रात को भी चैन नहीं लेने देता। और सुबह सुबह ऐसे मौके पर दर्शन देता है कि अगले चौबीस घंटे बुक हो जाते है!”

“तो कोई रख ले ना छम्मक छल्लो! हमारी आंखें भी ठंडी हो जाया करेंगी!”

“तू क्या समझता है रक्खूंगा नहीं?”

“नहीं नहीं! जरूर रक्खो। और हां आज आगरा तो चल ही रहे हैं! बस आज ही बुक करा दो!”

“तुझे इसी काम की तनखा मिलती है क्या?”

“सॉरी सर!” श्याम ने बड़े ही सुरुचि पूर्ण ढंग में मेरा मन खोल दिया है।

“याद रक्खो! शिकारी मरा नहीं मार कर खाता है, समझे?” मैंने एक घोषणा कर दी है।

मेजर कृपाल वर्मा

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