हर दिन एक छोटा सा पल लगता है। सारे दिन लगा कर भी काम एक आधा इंच ही खिसक पाता है। मजदूरों की भरती में और जूनियर स्टाफ के चयन में इतनी कठिनाई है ये मैं अब सही अंदाजा लगा पा रहा हूँ।
“ये चिट्ठी गृह मंत्री की है। सामने एक हस्त लिखित चिट पसर जाती है। मैं गौर से पढ़ता हूँ।”
“स्ट्रोंगली रिकमंडिड – पत्र पर लिखा है और नीचे किसी के दस्तखत बने हैं। लेकिन किसके लिए, किस आधार पर और किन शर्तों पर – ये कुछ नहीं लिखा है। मैं प्रश्न वाचक निगाहों से इन महाशय को घूरता हूँ।”
“ये असल में गृह मंत्री का भतीजा है। अब आ कर असली बात खुली है।”
“मैं विराज जी का खास आदमी हूँ!”
“मैं एम एल ए राधे लाल ने भेजा हूँ। वो खुद भी आपके पास आ चुके हैं।”
“मेरे चाचा एक्साइज कमिश्नर हैं। ये है उनका पत्र – आपके नाम!”
आज की ये ही योग्यताएं हैं और इनके यही प्रमाण पत्र हैं। यही खास मैरिट है जिसपर हर पद के लिए चयन हो रहा है। ये भाई भतीजा वाद, चौकीदार की पोस्ट के लिए भी रिश्वत और सिफारिश आज देश के बुद्धिजीवी वर्ग पर कठोर हथौड़ों का आघात सा लगता है। समाज में एक नैराश्य भर गया है जिसने टैलेंटिड आदमियों को हताश किया है और वो अपने ही हाथों पिट गए हैं। कोई कितनी ही डिग्रियां ले ले, इनाम जीत ले, विदेश जा कर आ जाए या कितने ही ठोस सत्यों का निचोड़ पी कर स्वतिबोध शिराएं उगा ले – सिफारिश और रिश्वत की लड़ियां जोड़े बगैर सफल होगा ही नहीं।
मैंने ऐसा कुछ भी नहीं किया है। जिस काम के लिए मुझे कामगारों की जरूरत है उसी पैमाने से नाप कर मैं उन्हें ले रहा हूँ।
“क्लर्क – ठीक है! टाइपिंग, शॉर्ट हैंड, ड्राफ्टिंग और साथ मैं चाल चलन तथा एक जरनल नॉलेज का टेस्ट मैंने रक्खा है। इसमें भी लोगों ने कितनी धांधलेबाजी करने की कोशिश की है – ये भी मैं जानता हूँ। इन सब के अनुभव ने मुझे बताया है – हमारा धर्म ईमान और चरित्र सिद्धांत डूब चुके हैं। नकल करना, चार सौ बीसी और पेपर आउट कर लेना अब आम रिवाज है और इसे एक साहसिक कार्य समझा जाता है। करने वाले भूल जाते हैं कि ये कितना घातक है – उनके लिए ही नहीं आने वाली पीढ़ियों के लिए भी। जब तक समाज में स्वस्थ और प्रतिस्पर्धा पूरक मुकाबलों को चेताया न जाएगा उन्नति नहीं होगी। हमें अपने छोटे छोटे स्वार्थों को धीरे धीरे दफनाना होगा तभी हम ऊपर उठेंगे। रेत पर छपा मार्ग दर्शन हमें उलटना पड़ेगा!
“आदमी झक्की है। हट धर्मी है। लेकिन इसका बाप तो ऐसा नहीं था। ये कांग्रेस के खिलाफ है, जनसंघी है, बनिया है और लौंडिया बाज है। इसे हर रोज फ्रेश माल चाहिए।” आदि आदि विरोधी बातें मेरे बारे में प्रचलित होती रही हैं। लेकिन मैंने भी भाई भतीजे वाद को बड़ी ही बेरहमी से कुचलने की कसम खाई है कि मुझे जिसने भी चिट दिखाई उसे मैंने जॉब न देने की कसम खा ली और जिसका भी टेलीफोन आया मैंने उसे ना कह दी।
लाख डॉक्टरों के उपचार इलाजों के बावजूद भी बाबा की हालत नहीं सुधरी है। बीच में रतन चंद जैसे आदमी सौहार्द और सौजन्य का परिचय देने पधारते रहे हैं और अपनी लड़की को मेरी सम्मति से जोड़ने का विफल प्रयत्न चलता ही रहा है। बाबा ने रीती आंखों से इन सबको निराश करके भेजा है।
“दलीप …!”
“हां बाबा!” अवरुद्ध कंठ से मैं प्रयत्न करने पर ही बोल पाया हूँ।
“जो कर रहा है – करते रहना। हार मानना ही आदमी की मौत होती है बेटा। तुम्हारी उमर और पीढ़ी लड़ने वालों की है – इसमें कोई शर्म की बात नहीं है।”
मैं कुछ नहीं बोला हूँ। बाबा जैसे मेरे मन में छुपा एक एक अरमान मुझे गिना गिना कर याद करा रहे हैं – एक बच्चे की तरह! जैसे समय को दोहराया जा रहा हो – मैं नतमस्तक हुआ सब सुनता रहा हूँ!
“जहां भी तुम्हें दोष नजर आए – उंगली उठा कर इंगित करना और जहां भी गुण और अच्छाइयां हों – समेट लेना!” बाबा का स्वर डूबता जा रहा है।
रात ढलने को है। अनुराधा चली गई है। मेरे मन में एक भय सा भरने लगा है। आज बाबा सात दिन के बाद चुप्पी काट कर बोल रहे हैं। उनकी आवाज देकर बुलाने की हिम्मत पस्त हो गई है।
“दलीप …!” बाबा ने मेरा हाथ अपने हाथ में भर लिया है।
बाबा के हाथों में जान नहीं है। एक चौंका देने वाली चपलता कहीं नदारद हो गई है और एक मौन जैसी खनक है जिसे मैं महसूस रहा हूँ।
“शादी किसी अच्छी लड़की से करना! अच्छाई – अच्छाई होती है और बुराई कभी अच्छाई नहीं बन पाती है!”
अनुराधा बाबा की आवाज पहचान कर आ गई है। मैं अनु की ओर देख नहीं पा रहा हूँ। अगर हम दोनों ने देखा तो – तो लड़ेंगे। काश आज मां होती! अनु भी कोई सहारा नहीं लगा रही है। हम दोनों अबोध से अनाथ होते जान पड़ रहे हैं।
“अनु अब तुम्हारी छोटी बहन है। तुम्हें मेरी भी जिम्मेदारियां लेनी होगी। उसे कभी निराश मत करना दलीप!”
मैंने अब अनु को ऊपर से नीचे तक देखा है। लगा है – मेरी मां इसी के वेश में सामने आ खड़ी हुई हैं और दुलार का अपना हाथ आगे बढ़ाए हैं! नारी का बहुरंगी और सत रंगी रूप देख कर मैं दंग रह गया हूँ। बार बार सोफी, शीतल, बानी और अनु में अंतर परख रहा हूँ। अनु ने अंजाने में मां से सब कुछ ले लिया है – मैं अब आ कर निर्णय कर पाया हूँ। बाबा ने हम दोनों को और भी जोड़ दिया है – मैंने महसूस किया है।
“भगवान तुम दोनों को अपार सुख दे – मेरे बच्चों .. मेरे बच्चों .. अनु .. दलीप मेरे पास आ जाओ!”
बाबा अचानक ही सांसारिक मोह माया से कट गए हैं। वो स्वतंत्र हो गए हैं। उनकी आखिरी इच्छाएं बहुत कम थीं और अपने जीवन काल में ही उन्होंने बहुत सारी पूरी कर ली थीं।
अनु और मैं घंटों एक दूसरे का सहारा लिए सुबकते रहे हैं। अनु की हिलकियां लंबी और स्पष्ट सुनाई दे रही हैं जबकि मैं एक ढक्कनदार वस्तु के अंदर बंद हुआ सा मूक और घुटा घुटा चोरी छुपे सुबक जाता हूँ। बाबा चले गए। हमें अब उनकी छत्र छाया नंगा कर गई है और लगा है यातनाओं की टीक दोपहरी का सूरज चढ़ आया है और हमें सता रहा है।
मेजर कृपाल वर्मा