अबकी बार मुझे 440 वोल्ट का शौक लगा है। मैं स्तब्ध सा उसे देखता रहा हूं। मैंने उसे पहले कभी नहीं देखा। वो अब भी अपने सुडौल हाथों में ट्रे संभाले मेरे सामने खड़ी है। रंग गोरा, बदन भरा भरा, मोहक सा रूप, एक मोहक दृश्य के सिवा कुछ और नहीं लग रहा है। मन में न कोई इच्छा और न आभार उगा है। मैंने कॉफी लेने की चेष्टा भी की है पर श्याम मेरे हाथ नहीं छोड़ रहा है। उसे उस युवती का यों खड़ा रहना आनंद विभोर किए दे रहा है। मेरे हाथ पर लगातार दबाव बढ़ रहा है। लगा है श्याम में कुछ पा लेने की शक्ति प्रति पल जन्म ले रही है। मैं झल्ला उठा हूं। गरज कर मैंने कहा है।

“छोड़ बे!” मैंने झटक कर हाथ खींचा है और कॉफी लेने के लिए संभला हूँ।

सबसे पहले वही खूसट हंसा है। फिर उसके साथ बैठा दड़ियल भी और आगे बैठा खालसा भी तथा हम सब एक स्वतंत्र हास परिहास के पात्र बने हंस रहे हैं। वो युवती भी हंस रही है। अब उसे ट्रे संभालना मुश्किल हो रहा है। श्याम हंसता हंसता उलम कर ट्रे पकड़ लेने की कोशिश में है। मैं डर रहा हूँ कि कहीं ट्रे गिर गई तो सूट का सत्यानाश हो जाएगा। एक ज्वालामुखी शांत हुआ है तो हमने ठंडी कॉफी की चुस्कियां ली हैं।

“ठंडी है!” मैंने श्याम को संबोधन करके कहा है।

“पर वो तो ठंडी नहीं है!” श्याम अभी भी शरारती मूड में है।

मैंने श्याम को प्रश्न वाचक निगाहों से नापा है।

“तुझे तो जानती है बे। कहती है – मिस्टर दलीप! क्या स्टाइल है बे?” श्याम कहता रहा है।

आस पास के यात्री बुरा नहीं मान रहे हैं। हमने मिल कर हवाई जहाज में फैली चुप्पी तराश दी है तो हर कोई खुसुर-पुसुर बातें करने लगा है। खालसा तो कॉफी से ज्यादा तन्मय होकर पंजाबी में बात करने लगा है। उसके धड़्ल्लेदार शब्दों का अवगुंठन पहाड़ सा लगता है।

“ये कौन है?” श्याम ने पूछा है।

“मैं नहीं जानता!” मैंने निष्प्रह भाव से कहा है।

“अच्छा बेटा! हमारी बिल्ली हमीं को म्याऊं!”

“सच कहता हूँ बे! मैंने इसे पहले कभी नहीं देखा।”

“तो चल! अब तो देख लिया। अब बोल माल कैसा है?”

“तुझे चाहिए?”

“हां! मेरा तो दिल है!”

“बिजनिस के लिए तो बुरा नहीं!” कहकर मैं अपने मन में भरा अवसाद उड़ेल गया हूँ।

सहज मुसकान, चंचल चितवन, तुड़-मुड़ कर चलना, अंग्रेजी को चबा चबा कर बोलना, रीती थोथी मुस्कानों का आवरण और अंदर सूखी बालू के विस्तार, कठोर और विश्वासघाती मन – सभी शूल की तरह एक साथ मेरे मानस पटल पर जा चुभे हैं। आहत हुआ मैं जहर के मेंढक की तरह चीयां उगल गया हूँ जो अब शायद श्याम के लिए दवा बन जाएगा। अचानक मुझे बानी याद आ गई है। मन एक कड़वाहट से भर गया है और एक अजीब सा घोल मैं पीने लगा हूँ। पता नहीं क्यों मैं ये बनावटी पन सह नहीं पाता। कभी कभी तो मैं अनुराधा को भी डांट डपट देता था, हालांकि मैं उससे छोटा हूँ। ये सब मां में नहीं था और जो मां में था क्या वो कहीं और होगा – मैं अभी तक नहीं जानता।

बंबई नगरी श्याम को दिव्य लोक लगा है और उसको अफसोस इस बात का है कि वो यहां पहली बार क्यों आया है। अभी उसे पता नहीं कि हमें कितनी घृणास्पद स्थितियों से गुजरना है। न जाने कितने छटे व्यापारियों के हाथों बिकना है और कितनी ही लोकल कठिनाइयां सुनने को मिलेंगी – जैसे राशन छू मंतर हो गया है ओर मिट्टी का तेल तो सूंघने तक के लिए नहीं। यहां मराठों का बोल बाला है। बंबइया एक अलग खाप है जिसमें समाज की बारीकियां घिस घिस कर छोटी हो जाती हैं ताकि उसे सभी समझ लें। और लो श्याम की पहली टक्कर का नतीजा सुन लो।

“भइया हमें कोलाबा जाना है?” श्याम ने विनम्र भाव से पूछा है।

“तो जाओ ना!”

“कैसे जाना होगा?”

“हमको कायको पूछता है? बोला ना हम शहर में नया है।” उसने श्याम को बुरी तरह लताड़ा है। श्याम का मिजाज अब छट गया है। जिस सभ्यता का परिचय वो देना चाहता था अब वो भी शर्मा गई है।

“तो अकड़ता क्यों है बे?” ठेठ दिल्ली के अंदाज में श्याम ने उसे डांटा है।

वह व्यक्ति अब गुर्रा कर खड़ा हो गया है। साज सज्जा से ही मैं पहचान गया हूँ कि वो मराठा है। चौड़ी टोपी पूरा सर ढांपे है, लंबी कमीज घुटनों तक खिंची है ओर रंग सांवला ओर दाड़ी शायद चार दिन से नहीं बनी है। उसकी आंखों में जो शेर जैसी गुर्राहट है उसका मुझे भान है। इसका नतीजा जान कर मैं आगे बढ़ा हूँ और बीच में आ गया हूँ।

“पटेल! ये आदमी बंबई में नया है तुम जाओ!” मैंने उसे स्पर्श करके हल्का सा आगे धकेला है ताकि उसकी ली समाधि टूट जाए।

मैंने यूं ही पटेल बोला क्योंकि मुझे क्या पता कि वो कौन है। उसने मुझसे भी गुर्रा कर कहा है आपला भेजा खराब आहे – समझा इस छोकरे को!

“तुम जाओ! हम समझा देंगे!” मैंने उस बला को चलता किया है।

मर्माहत हुआ श्याम मुझे घूर रहा है। शायद उसका मजाकियापन और खुला स्वभाव एक बारगी आहत हुआ है!

“हवा देख कर तीर छोड़ा करो पार्टनर!” मैंने संक्षिप्त में बात समाप्त कर दी है।

शुरुआत कुछ अच्छी नहीं हुई है। मैं वैसे तो रूढ़ियों और शकों श्रापों के चक्कर में नहीं आता पर फिर भी एक धारणा जैसी कोई चीज जन्म ले लेती है और फिर एक कुंठा पीछा करती रहती है। मन ने कहा है – अब काम नहीं बनेगा!

“चल! पहले तुझे बंबई दिखा दूं। काम तो कल करेंगे!” मैंने श्याम को आगे घसीट कर टैक्सी को पुकारा है। मुझे किसी से पूछने-पाछने की जरूरत नहीं क्यों कि मैं बंबई में चार पांच बार अपनी ही कार से आर पार हो चुका हूँ।

“सन एंड सैंड!” मैंने ड्राइवर को बताया है।

श्याम अब भी मुंह लटकाए टैक्सी में बैठा है। वो बहुत संजीदा है – मैं तो जानता हूँ!

Major krapal verma

मेजर कृपाल वर्मा

Discover more from Praneta Publications Pvt. Ltd.

Subscribe now to keep reading and get access to the full archive.

Continue reading