दिल्ली में आते ही राजनीतिक परिवेश में मैं मिल सा जाता हूँ। लाइसेंस के चक्कर में चार पांच विधान सभा के मेंबरों तथा राज्य सभा के जाने माने कर्णधारों से मुलाकात करनी पड़ी है। यहां बातों के पुलिंदे, भारी भरकम और गूढ़ रहस्यों में लिपटी बातों के छल्लेदार हिलते डुलते छोर हैं जो जेहन में उतर कर रस छोड़ते हैं। कोई भी बात जिसमें रेप्यूटेशन या पर्सनल फेवर का पुट हो वह घर या बाहर नहीं कही जा सकती। हां! होटल के कमरे इस काम के लिए उपयुक्त हैं और वहां एक सीक्योरिटी की भावना आस पास बैठी होती है। सब से बड़ी आसानी वहां इस बात की है कि भारी से भारी बात हल्के रूप से कही जा सकती है!
“देखिए! मैं लेने देने में विश्वास नहीं करता!” इस बात का अभिप्राय हर ज्ञानी गुणी जानता है और अनाड़ी यहीं पिछड़ जाता है। आज की भाषा द्विगुणित है ओर हर इंसान दोगला है। एक मोहक मुसकान का अर्थ आज गहरा लगाव या खुशी नहीं होती बल्कि लालचीपन का भोंड़ा प्रदर्शन और गिरे चरित्र का इसे पक्का सबूत समझें!
इस लाइसेंस के पाने में मैंने सिर्फ एक होटल का कमरा बुक किया। बड़े राजनीतिक नेताओं से मुलाकात की ओर जो वातावरण खुलकर सामने आया तो दिल खोल कर बातें हुईं।
“लोग व्यर्थ में बातें उठाते हैं। अब देखिए लाइसेंस स्कैंडिल कि लोग पहले काम कराने के लिए अपने आप को भी गिरवी रखने को तत्पर हो जाते हैं और बाद में अखबारों में कॉलम के कॉलम छपते हैं – फलां नेता खा गया, फलां मिनिस्टर का भी हाथ है! अब ये भी कोई शराफत हुई?”
“हर तरह के लोग होते हैं साहब – गोली मारिए!”
“दर असल आज कल टुच्चा-पुच्चा भी मिल मालिक बनने के सपने देखता है। जब पहले ही बार में पूंजी रसातल चली जाती है तब चीखता है – नेता खा गए! ये कैसा जमाना है साहब!”
“लेकिन ये पार्टी तो करोड़पतियों की है साहब!”
“अजी छोड़िए पता किसी का किसी को नहीं!”
“यहां घाटे वाली बात नहीं है!”
“तो काम हुआ समझो!”
और काम हो गया। सिर्फ मुझे उस मुलाकात का कॉफी का बिल देना पड़ा। सौदा सस्ता रहा और कुल मिला कर कोई एक पचास साठ हजार बने थे। लिखने में गलती नहीं क्योंकि ये रकम भुगतान करते वक्त मुझे भी चक्कर आ गया था। इसलिए नहीं कि रकम ज्यादा थी पर इसलिए कि मानवीयता की मौत में पहली बार आंखों से देख पाया था। हारते ईमान, धन के लालच में घुटनों पर घिसटता समाज, हर पल उगती घृणास्पद स्थितियां और एक अबूझ बेमानी दर्प समाज कैसे और कब तक सहेगा?
भागते भागते नहीं थकता! काम से नहीं डरता। असफलताओं से लड़ने को तत्पर और तैयार हूँ। घाटे मुनाफे जीवन के पहलू बन जाएंगे पर जब भी हर फैला हाथ, सूनी हथेली के पसरे पसार देखता हूँ तो मन में घूंसा सा लगता है। मेरी फीस, मेरा मेहनताना, मेरा हक, मेरी बख्शीश, मुझे भी, मैं भी हूँ – ये कितने घातक शब्द लगते हैं मुझे! यों रुपया दो रुपया या सौ दो सौ रुपये दान करें तो बड़ी बात नहीं है। पर यों बेशर्मी से फैले हाथ मुझे भागने पर मजबूर सा कर देते हैं। सोचने लगता हूँ कितनों से भागूंगा किस किस से लड़ूंगा यहां तो सब गड़बड़ हो गया है।
“मुझसे नहीं होगा श्याम। किस किस साले को खुश करूं और किस किस साले के तलवे चाटूं?”
“दलीप! बस एक बार काम निकल जाए .. फिर तो ..”
“मैं नहीं समझता श्याम – एक बार फंस जाने पर ये सब और चिपक जाएगा। रोज के इन लोगों के नखरे उठाने पड़ेंगे। मैं उस जोशी के बच्चे को भुला नहीं पाता जिसके पीछे बाबा गिड़गिड़ाते फिरते रहते थे ..”
“लेकिन दलीप ..?” याचक बनी श्याम की आंखें मुझसे मूक भाषा में ही तमाम अर्थ कह गई हैं।
पीछे हटना कायरता है। अपने आप से धोखा है और सबसे ज्यादा डर मुझे लग रहा है – अपने गिर्द घूमती आंखों से जो अब हर पल मेरा पीछा कर रही हैं। मेरे गिरने का इंतजार कर रहे हैं ये लोग। मैं अब वापस शैल या वली के जमघट में शरीक नहीं हो सकता, टुच्चे लालच में उनका साथ नहीं दे सकता और न ही अब वो समाज मुझे स्वीकारेगा। फिर मैं कहां जाऊंगा?
“अच्छा चल कनाट चलते हैं। एक दो कॉफी लेंगे और कुछ रंगीन तितलियां देख कर मन का भारीपन उड़ जाएगा!”
श्याम ने मन बदलने की गरज से ये प्रस्ताव रक्खा है। मैं भी अब इसी के पक्ष में हूँ। पिछले दिनों की व्यस्तता और काम की भरमार बेकल सा छोड़ गई है।
“चल चलते हैं! पर देख, बोर मत करना!”
“नहीं बे! कनाट प्लेस और बोरियत? मजा आएगा यार!”
श्याम गाड़ी चला रहा है। मैंने उसे सिखा कर माहिर कर दिया है। श्याम को मैं हर बात सिखा देना चाहता हूँ ताकि भीर गाढ़ में और मौके बे मौके काम आ जाए!
“वो देख! पसंद आया माल?” कहकर श्याम ने सीटी बजाई है। आजू बाजू चलती लड़कियों के कान खड़े हो गए हैं। अनगिनत चेहरों पर मुस्कानें कौंध गई हैं। सब को मेरी गाड़ी दूर से पहचान में आ जाती है और पल भर में पता नहीं कितने परिचय और कैफियत सुनने को मिल जाती हैं। लेकिन मैं इन्हें सुनकर भी नहीं सुनता!
“चुप बे! ये समझ लेंगी कि मैं फिर इसी माहौल में लौट आया हूँ!” मैंने श्याम को डांट दिया है।
“बुरा क्या है यार?” श्याम कुछ इस तरह मुसकुराया है जिस तरह एक हारे जुआरी को चढ़ते दिनों की याद दिला रहा हो!
रौनक और मादक परिवेश सा बिखरने लगा है। मेरा भी मन गरमाने लगा है। लगा है मेरी यही इच्छा बरसों के बाद भी मरी नहीं है ओर अब मौका पा कर मुंह उचका उचका कर हर फरेबी चेहरे पर छा जाना चाहती है! मैं कम फरेबी नहीं रहा हूँ लेकिन अब ..
मेजर कृपाल वर्मा