यह कनाट प्लेस का विख्यात कॉफी हाउस है। मुझे लग रहा है कि उसमें उमड़ती असंख्य भीड़ देश की उमड़ती आबादी का कीर्तिमान है। कहां से आएंगे इतने जॉब? कैसे कमा पाएंगे हम इतने भूखे पेटों के लिए? ये बेतुके सवाल मेरे अंत: से उठ कर कोका कोला के उबलते झागों में मिल गए हैं और शांत हो गए हैं। कनाट प्लेस का सर्किल एक गोल छोटा सा अहाता मुझे और भी छोटा लगने लगा है और मुझे लग रहा है कि इसका ये छुटपन मेरे विचारों के विस्तारों पर कुठाराघात है। मैं तो अथाह बनूंगा। बड़ी जिम्मेदारियां संभालूंगा। संघर्ष रत जीवन जीऊंगा। फिर मैं सिकुड़ कर क्यों बैठूं? अपनी बौखलाहट धीरे धीरे मन में सिसकता अविश्वास और हाथ पैरो पर धीरे धीरे रेंगती कंपन को मैं पी जाना चाहता हूँ ताकि श्याम भी मेरी कोई कमजोरी न पकड़ सके!

भीड़ अनवरत चलती ही चली जा रही है और ठीक उसी तरह एक के बाद दूसरा विचार आता जाता रहा है। कोई टिका है तो कोई पिटा है, किसी ने मुझे साधा है तो किसी ने मुझे कुरेदा है। कहीं मैं परास्त हुआ हूँ तो कहीं प्राप्त सफलता पर अंदर ही अंदर मुसकुराया हूँ। मैं खुश हूँ कि ये अनिश्चित स्थिति सोफी कभी भी न जान पाएगी!

“चल बे बोल क्या करना है?” श्याम को मैंने पूछा है।

श्याम भी मेरी तरह कहीं से परास्त होकर लौटा है। वही कमजोरी मुझे और श्याम को खा रही है। हम जिस लक्ष्य के लिए लड़ते हैं उसे पा लेने के बाद हमारे विचार टिक जाते हैं और योजनाओं के विस्तार टूट कर एक चिर परिचित घृणा और ईर्ष्या में डूब जाते हैं। बदला लो, नष्ट करो, इसे डाउन करो, इसे निकाल दो – इन सब को मिटा दो – आदि के झमेले में हम आगे का कदम फिर उठाने के संकल्प के साथ ही पिट जाते हैं। जैसे कि मैं अभी अभी मेहरोत्रा को कान पकड़ कर निकालने की युक्ति सोच रहा था – ये स्वाभाविक तो है पर है गलत। रह रह कर मैं अपनी ईर्ष्या, जलन, क्रोध और दम्भ को कोका कोला, कॉफी, आइसक्रीम और कनाट प्लेस की इस रौनक से जोड़ता रहा हूँ ताकि इसका डाह चुक जाए, जहर हलका पड़ जाए और मैं ठीक तरह से सोच सकूं।

“बस! कल से तू मैनेजरी संभाल!” श्याम ने अस्पष्ट से शब्दों में अपना विचार उगला है।

मैं जानता हूँ कि श्याम भी अब मेरी तरह ही किंकर्तव्य विमूढ़ है। सोचने की शक्ति उसमें भी सीमित ही है। वह तो मुझसे भी डरा हुआ है कि कहीं मैं उसपर अकर्मण्यता का इल्जाम न थोप दूं!

“लेकिन क्यों?” मैंने गंभीर होकर श्याम से एक दलील की मांग की है जो उसके कथन को यथार्थ रूप दे दे।

“अबे क्यों का क्या सवाल! जब तक तू खुद कुर्सी पर नहीं बैठेगा कच्चा ही रहेगा!”

“पर बाबा तो ..?”

“उनकी बात छोड़ दलीप!”

“बाबा असफल तो कहीं नहीं रहे!”

“अब जमाना बदल गया दलीप। अपना काम खुद करो!”

“यानी मुझे मैनेजर, सहायक मैनेजर, इंजीनियर, कारीगर और मजदूर सभी बन कर खुद ही पिसना पड़ेगा?”

“नहीं बे! मेरा मतलब था ..” श्याम निरुत्तर हो गया है।

“देख श्याम! मैं हर काम खुद नहीं कर सकता। ये असंभव है। मुझे हर एक इंसान में विश्वास खोजना पड़ेगा, वफादारी पैदा करनी होगी ओर अगर नहीं तो में डूब गया!”

“लेकिन दलीप यहां कुछ चोर हैं, नमक हराम हैं और जबतक इनको तू समूल नहीं खोद फेंकेगा देख लेना कि ..”

श्याम अपने पक्ष पर जमना चाहता है। वह विचार पकड़ पकड़ कर उन्हें तर्कों में परिवर्तित करने की असफल चेष्टा करता रहा है और अब वो मेरी अच्छी दलीलों पर भी राजी नहीं होना चाहता!

“वो बाद की बात पर पहली बात तो यह है कि काम कैसे चले? जब काम चल जाए तब उसमें और क्या बाधा आ सकती है – हम इसका उपाय खोजेंगे!”

“तो अब तू ही बोल। तू कैसे चलेगा?” श्याम ने अपने हथियार डाल दिए हैं।

“निकाल कागज पेंसिल!” मैंने मांग की है और साथ ही एक गहरी निश्वास छोड़ी है। श्याम कागज पेंसिल की तलाश में उछला है तो मैं अपनी नई योजना के आयाम नापने लगा हूँ। और जब श्याम तैयार होकर बैठा है तो मैंने कहा है लिख, धंधा बदली, नई कार्य कारिणी की संरचना और नया मैंनेजमेंट!

अब मैं कुछ और सोचने लगा हूँ। श्याम मेरे चेहरे पर आवेष्टित विचारों में घुस कर उनकी गहराई नाप लेना चाहता है। अभी भी उसे एक अंजान अविश्वास खा सा रहा है। शायद उसे मुझसे उम्मीद नहीं थी कि मैं कोई नया विचार प्रस्तुत भी करूंगा।

“हम एक नया कदम उठाएंगे। इस कदम का उद्देश्य होगा – बीच का अंतर भरना। एक सामंजस्य स्थापित करना और आपसी विश्वास की नींव पर खड़ा होना।”

श्याम लिखने में लगा है तो मुझे सोचने का अवसर मिल गया है। श्याम की उपस्थिति भी आज मेरे विचारों में बाधक बन रही है। पता नहीं क्यों मेरा हर अरमान कटा कटा सा लग रहा है और हर बात अधूरी सी लग रही है। शब्द अपना अर्थ स्वयं सटक रहे हैं और ..

“लिख – उद्देश्य होगा – कम मुनाफा और ज्यादा उत्पादन!”

फिर विचार लंबी डोर और लच्छी की तरह इस तरह उलझा है कि मैं उसका छोर तक नहीं ढूंढ पा रहा हूँ। मैं रुक गया हूँ। मस्तिष्क पहली बार इस पराजय पर नाखुश है। मैं जो उत्तर मांग रहा हूँ, जो विवेचना करना चाहता हूँ ओर जिन गहराइयों में उतरना चाहता हूँ उनके लिए मरा मस्तिष्क तैयार नहीं है। मैं शायद अनाड़ी घोड़े को रेस कोर्स के ट्रैक पर दौड़ाना चाह रहा हूँ।

“मुनाफा में भी मालिक का हिस्सा कम और मजदूर का ज्यादा!”

“मतलब ..?” श्याम ने मुझसे सवाल किया है तो मैं तनिक घबरा गया हूँ।

“मतलब .. यानि ..” मैंने कुछ सोचने का प्रयत्न किया है ताकि श्याम को एक ही जवाब में अपनी चतुराई का सबूत पेश कर दूं।

“लोग मुनाफा के लिए राज दिन जूझ रहे हैं ओर तू है कि ..?”

“हमारा उद्देश्य क्या है?” मैंने श्याम से जानना चाहा है।

श्याम अब डायरी के पन्नों पर आंखें गढ़ाए उत्तर खोज रहा है और मैं श्याम के पूछे सवाल का विवेचन करने में लगा हूँ।

“उद्देश्य है – कम मुनाफा ज्यादा उत्पादन!”

“ठीक है। अब सुन। मालिक का कम हिस्सा इसलिए कि वो एक है और मजदूरों का ज्यादा इसलिए कि वो अनेक हैं।”

मैंने गंभीर स्वर में कहा है। श्याम मुझे पल भर घूरता रहा है। शायद बाबा होते तो खूब खिल्ली उड़ाते और मैं झेंप जाता! वो स्पष्ट शब्दों में कह देते – तुमने इस विषय पर मनन किया ही नहीं है। मैं खीज जाता और मान भी लेता। पर श्याम का स्तर तो मुझसे भी नीचा है।

अतः मैं एक नई सुविधा का एहसास कर रहा हूँ!

मेजर कृपाल वर्मा

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