शीतल चोट खाई नागिन सी बलबला कर उठ खड़ी हुई है। सर्पीली और विषैली मुसकान से आवेष्टित मुख मंडल को सहज उन्माद सेद सा गया है। वो मेरी दी गई रकम की आभारी नहीं – जैसे नाउम्मीद हुई हो। कठोर स्वर में वह बोली है – रकम लौटा दूंगी!

मैं एक लंबी उबासी लेने में पूरा बदन तोड़ कर दम लेना चाहता हूँ। लगा है – शीतल ने जितना जहर भरने की कोशिश की उससे मैं सतत लड़ता रहा था और अब अंजाने में फैला शिराओं के रक्त में घुला मिला जहर निचोड़ फेंकना चाहता हूँ।

“ठीक एक घंटा बोर किया है बेटा!” श्याम जैसे अपना गम पी कर, रो धो कर और अब अपार संतोष समेट मेरे सामने आ कर बैठ गया है। मुझे लगा है – श्याम जैसे अपनी चाह रंगीला के दरवाजे के बीचों बीच दफना आया है ताकि हर आने वाला उस कलुषित भाव को पैरों तले रौंद कर जाए। मुझे श्याम अब और भी अच्छा लग रहा है। और मन की वही मूक प्रार्थना – ये कहीं बदल न जाए भगवान! आदमी अंदर से कितना कमजोर होता है?

“मैं क्या करूं! उसने गला ही नहीं छोड़ा!”

“गला पकड़े थी या ..?”

“ये तो जूते खाने वाली बात थी यार!”

“मतलब ..?”

“मतलब .. तुम्हारा माल था सो हमने हाथ नहीं डाला!”

“क्या ..?” असमंजस में श्याम ने पूछा है। उसका मुंह फटा रह गया है और आंखें ठहर सी गई हैं।

श्याम को ही नहीं किसी को भी मुझसे उम्मीद नहीं हो सकती थी। खुद शीतल भी निराश लौट गई। मैं कितना बदल गया हूँ श्याम अब भी इसका ठीक अनुमान नहीं लगा पाता क्योंकि मैं हर पल बदल रहा हूँ, हर पल को जी रहा हूँ, महसूस रहा हूँ – ये पहले कभी नहीं हुआ। जितना आनंद मुझे शीतल को काट काट कर अच्छाइयों और बुराइयों में विभक्त करने में आया है शायद उतना बंद कमरे में उसके गोरे शरीर से जूझने में नहीं आता! लगा है – मैंने शिकार करके श्याम के सामने आहत और अपंग हालत में फेंक दी है ताकि वो उसे अपनी क्षीण शक्ति से काबू में ले ले!

“कल पैसे लेने आएगी – तुमसे ..”

“मुझसे ..”

“हां हीरो! अभी से नर्वस क्यों हो रहे हो? पांच हजार मेरे खाते से ..”

“उसे दे दूँ?”

“हां हां! और अपने खाते में उधार चढ़ा लेना!”

“मतलब ..?”

“उसने पटाने का फंडा और लौटाने का जोरदार वायदा किया है! वसूली किस तरह, कैसे, कहां और किस रूप में होगी ये तुम पर छोड़ता हूँ!” कह कर मैंने शरारती निगाहों से उसका इनाम भुगतान कर दिया है। त्याग के बदले त्याग और वफा के बदले वफा – कितना सुगम प्रयोजन लगता है।

निरंतर दौड़ धूप और अथक परिश्रम के बाद भी मैं अब अधचिनी दीवारों को देख कर अनुमान लगा पा रहा हूँ कि इसका साकार रूप जब मूर्त होकर मुसकुराएगा तो मैं सफलता की एक सीढ़ी और चढ़ जाऊंगा, एक पल को और जी जाऊंगा और एक इरादा उलट-पलट कर परख लूंगा!

“बे, क्या साइट है साली? सच! एक बार यहां फूल फुलवारी उगने दे फिर देखना सारा उपवन महक उठेगा!”

“यहां तक पहुंचने में और कितना वक्त बाकी है?” मैंने इस तरह पूछा है जैसे मैं फूलों में कोई रुची न रखता हूँ और न ही उपवन से कोई सरोकार हो!

“अभी तो कार्यकारिणी का चुनाव, मजदूरों की भरती और मशीनों का लगना तथा ..”

“यानी कि अभी तक सारे का सारा काम बाकी पड़ा है?”

“लेकिन अपने हाथ का ही काम है न!”

“हां! है तो। पहले कौन सा काम हो सकता है?”

“कार्यकारिणी बना लो। सुभीता रहेगा!”

“ठीक है। कल पूरा प्रोग्राम बना कर निर्णय कर लेते हैं।”

“ओके बॉस!” कहते हुए श्याम बहुत प्रसन्न जान पड़ा है।

आज कल मेरे मन के विस्तार फैलते जा रहे हैं। समय की सुस्त रफ्तार और काम में हीलो हुज्जत मैं बरदाश्त नहीं कर पाता। मुझे लगता है – भगवान ने मुझे समय कम और काम ज्यादा सौंपा है! मन में जो हरे हरे अरमान कभी सुर्खियों में बदल जाते हैं, भावनाएं गुलाबी रंग में डूब डूब कर सराबोर हो जाती हैं तो संजीदा हो उठती हैं। आजकल काम में, पसीने की गंध में और नए विचार तथा उपाय खोजने में ही मैं संलग्न रहता हूँ।

“हंस क्यों रहा है बे?”

“छुट्टी मांगनी है बॉस!”

“किस लिए?” तनिक गंभीर होने का मैंने प्रयत्न किया है।

“पैसा पटाने जाना है!” श्याम ने उगी चुटीली मुस्कान को लंबा करके काटा है।

“कुछ सूद ब्याज का ब्योरा?”

“अभी कुछ नहीं पता!” श्याम तनिक लजा गया है।

“बुद्धू हो, बेटा! ये गेम इतना आसान नहीं!”

“वो तो है। पर गुरु कोई तो उखाड़ पछाड़ सिखाओ?”

“हूँ अूं .. हूँ अूं!” मैं नाट गया हूँ।

“तो मैं चला!” श्याम ने जाने को कहा है।

“जा पर देख – बाबा की तबीयत ठीक नहीं है। मुझे तो बाबा के पास बैठना होगा पर तू काम जरूर कर लाना!”

“ओके सी यू!” एक लंबा सा वायदा श्याम ने किया है।

बाबा की बीमारी पर उसने कोई सवाल जवाब नहीं पूछे ये मुझे चुभा है। आज बाबा से कितने सारे लोग संबंध समेट बैठे हैं – ये मैं भी महसूस रहा हूँ। मेरी समझ में एक ही कारण आता है – आज बाबा के पास देने के लिए कुछ नहीं है।

मेजर कृपाल वर्मा

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