श्याम सरसरी निगाहों से फाइल में जुड़े टूटे विचारों का संग्रह पढ़ता रहा है। बैठा बैठा मैं एक आत्मविश्वास और महानता में तरंगित होता रहा हूँ। मैगजीन से जैसे सारे सर्वनाम और विशेषण भटक कर मुझ में जुड़ते जा रहे हैं। हर सफल इंसान के पीछे छुपी चुप्पी, घुटन, संघर्ष और अनगिनत ठोकरें मैं खा खाकर गिर रहा हूँ। फिर संभल रहा हूँ और हर बार एक अमरत्व जैसी मुसकान मुझमें आ जुड़ी है। कह रही है – तू नहीं गिरेगा और तू ही सफल होगा। पर कब? एक विचारों से उपजा प्रश्न मुझे समय का बोध कराने के साथ साथ अधीर छोड़ गया है – कहीं नोच गया है।
“मालिक, लाजवाब है!”
“तमीज से बोल बे!”
“ओके सर! कार्यान्वित हो सकती है पर ..”
“ये अर-पर क्या बे?”
“ये इतनी जल्दी इन भिखमंगों को राजा बना देना बुरी तरह खल रहा है।”
“तो क्या तू राजा बनना नहीं चाहता?”
“बनना तो चाहता हूँ पर ईमान से पूछो तो अभी मुझमें राजा बनने की तमीज नहीं है!”
“अच्छा बता – अगर मैं तुझे सारी संपत्ति सोंप दूं तो तू क्या करेगा?”
“मैं ..? यानी मालिक बन गया तो मैं ..?”
“हां!”
“सब कुछ गरीबों में बांट दूंगा!” श्याम ने उल्लसित हृदय से कहा है।
एक पिटा पिटा सा छुटपन का हीन भाव श्याम के चेहरे पर छा गया है। आज मेरे और श्याम के विचारों का अंतर स्पष्ट होता लगा है। श्याम जो भी कह गया है वो गलत है, असंभव है और आज तक कभी नहीं घटा है। गरीबी हटाने का अर्थ उनमें दौलत बांट देना ही गलत है। दरिद्र मन में भरा होता है और आत्मा पर उसकी तहें इस तरह चिपक जाती हैं कि धनिक जगत का आलोक उसे छू तक नहीं पाता। गरीब की तो कल्पना भी अपंग होती है। अतः उसे उन्नति और अवनति अच्छे और बुरे तथा नीच और ऊंच का ज्ञान ही भूल जाता है। शायद श्याम भी गरीब होने का मूल कारण नहीं जानता, तभी तो उसने उनमें दौलत बांटने की बात कही है।
“मुझे गरीबी से नफरत है दलीप। जब मानव जैसी श्रेष्ठ योनि को यों कंगाली के परिवेश में देखता हूँ तो विश्वास ही नहीं होता कि ये लोग भी जिंदा हैं, मानव हैं और इनमें भी वही दिमाग और दिल है तथा ये भी मानवीय स्पंदनों से युक्त हैं! मुझे ये बस्तियां कॉलोनियों से भिन्न लगती हैं। अछूत जैसी लगती हैं और मेरे मन में घृणा इस कदर भर जाती है कि भयंकर स्वप्न की पुनरावृत्ति जैसे इस निम्न स्तरीय जीवन से मैं कट जाना चाहता हूँ।”
“तभी तो तुम हाथ लगी दौलत गरीबों को बांट देना चाहते हो?”
“हां भइया!” आद्र स्वर में श्याम ने स्वीकारा है।
“पर ये कदम तो गलत है। यहीं तो हम लोग धोखा खा जाते हैं। इनकी गरीबी धन देने से नहीं इनके मन में अमीर बनने की इच्छा पैदा करने से ही मिटेगी, श्याम! इन्हें एहसास कराना होगा कि वो भी श्रेष्ठ मानव योनि को जी रहे हैं ..”
“लेकिन कैसे?”
“किसी मोहक बिंदु की ओर इन्हें आकर्षित करना होगा। टॉमी को देखा है? जब भी उसे उछल कर कुछ पाना होता है तो कितनी फुर्ती दिखाता है! और अगर वही उसे सुलभ तरीके से दे देते हैं तो घंटे भर में उठ कर देता है।”
“लेकिन वो मोहक बिंदु होगा क्या?”
“समृद्धि! पहले हमें इस समृद्धि और उच्च स्तरीय जीवन के सपने दिखाने होंगे। फिर उन्हें उस रास्ते पर खड़ा करना होगा। अब एक महान यात्रा का आरंभ होगा। संघर्ष और घोर परिश्रम का मार्ग बता कर उन्हें उनकी ही मेहनत के बदले ये सब देना होगा!”
“लेकिन ये तो देना न हुआ!”
“क्यों नहीं! देना तो हुआ। अंतर यूं समझो – मैंने कहा सारी संपत्ति तुम्हारी हुई। तुमने कहा गरीबों में बांट दूंगा – क्यों? क्योंकि तुम्हारा उस संपत्ति से कोई लगाव नहीं। यही बात बाबा को कहो – तो बौखला कर अपने आजीवन का उत्पीड़न, परिश्रम, यातना और मेहनत का बखान करते न थकेंगे। क्योंकि उन्होंने इसे पाया है पर विरासत में नहीं। दान में नहीं लिया। अपने परिश्रम और घोर बौद्धिक कसरत करने के बाद प्राप्त किया है श्याम! उन्हें तो इस पूंजी को जोड़ना होगा और ..”
“वही स्वार्थी और टुच्चे लोग ..”
“हां! इस स्वार्थ से मैं डरता हूँ और इसकी नींव खोद कर फेंकनी होगी!”
“पर ये स्वार्थ भी स्वाभाविक है दलीप!”
“है तो! लेकिन इस स्वार्थ का स्तर अगर उठ जाए तो धारक नहीं बचता। जैसे शराब घातक है और नहीं भी!”
“बात को साफ करो!”
“इस तरह से कहें – स्वार्थ मिल की हिफाजत के लिए उमड़ पड़े तो एक संस्था का अहित नहीं हो सकता! हम लोग अगर अपने समाज के प्रति स्वार्थी बन जाएं तो समाज उठ जाएगा। देश और जन जाति के प्रति अगर यही स्वार्थ का प्रयोग किया जाए तो सुख शांति मानव के दरवाजे पर ही खड़ी है!”
“इतना कौन महसूसता है दलीप!”
“अब यही तो मेरा और तुम्हारा काम है। स्वार्थ एक अमोघ अस्त्र है। धन और पूंजी पर सांप की तरह कुंडली मार कर बैठ जाना या फिर उसे गरीबों में बांट देना न्याय संगत नहीं है। पर इस स्वार्थ को परमार्थ में बदलने के लिए लगा देना ही सही है।”
“लेकिन जिम्मेदारी संगीन है दलीप!” श्याम ने संभलते हुए अपना पक्ष पेश किया है।
“जोखिम तो है। बाबा भी यही कहते हैं। धोखा है – सोफी ने भी बेबाक ढंग से कहा है! पर श्याम मेरा मन नहीं मानता ..”
“फिर तेरा मन क्या कहता है?”
“कहता है – यही प्रथम चरण है – किसी भी अनूठी सफलता का! औरों की खुश फहमी देख कर जो आनंद उपजता है श्याम उसकी खुशबू में आत्मा रम जाती है। यों टूच्चे पुच्चे लाभ मुनाफे मैं डूब कर जो घुटन पैदा होती है – असह्य हो जाती है। और फिर वही अंत होता है आत्मा का – जो एक कृपण का! सोच श्याम कितना भेद रह जाता है ..”
“तू ठीक कह रहा है दलीप!”
“तू मेरे साथ है न बे?”
“हां! अगर तू परछाईं को भी ललकारेगा तो तुझे श्याम खड़ा मिलेगा!”
“कहीं तू मुझ पर हंस तो नहीं रहा श्याम?”
“तुझ पर गर्व कर रहा हूँ मेरे यार! तभी तो मैंने कहा था कि तुम्हारा काम अब बदल गया है और तुम सब से भिन्न हो!”
“पता नहीं श्याम मैं इतना संजीदा क्यों हूँ!” कह कर पता नहीं किस अज्ञात आनंद से मेरा मन भर गया है!
शायद ये मेरी परिकल्पनाओं की अच्छाइयों का आधार है!
मेजर कृपाल वर्मा