अंधेरे ने हमें मात्र दो चलती फिरती छायाओं में बदल दिया है। गाड़ी तक चलकर आने में खामोशी ही साथ देती रही है। मैं सोफी के आग्रह को उलट पलट कर देखता रहा हूँ। अपने आप को कोसता रहा हूँ और सोफी के खो देने पर क्या करूंगा – सोचता रहा हूँ। एक बार कोई ठोस सत्य जैसा बन कर गले में अटक गई है – शायद अन्य कोई औरत अब न आए – प्यार जैसी नरम गरम भावनाएं न आएं और मैं यूं ही सपाट सा जीवन जी जाऊं। मन बार बार मुड़ कर सोफी की ओर दौड़ा है। कई बार सब कुछ बेच खोच कर यहां आ कर बसने का लालच मन में भरा है पर एक स्वदेश प्रेम, देश भक्ति जैसी भावनाएं, लालसाएं और आकांक्षाओं के प्रतिबिंब उभर उभर कर मुझे दुत्कार गए हैं – पूछ रहे हैं और क्या क्या बेचोगे? एक आम प्रश्न हर बात में भावित लगा है।

“बुरा मान गए?” सोफी ने धीमे से पूछा है।

“नहीं तो! पर मैं सोच रहा था ..”

“बाध्य नहीं करूंगी दलीप। मैं तो तुम्हारा मन पूछ रही थी।”

“और अब ..?”

“खुश हूँ! बहुत खुश। मैं उस देश में बसूंगी, वहां के गंगा जल में नहाऊंगी, मंदिरों में आराधना के समय बजती धंटियां सुनूंगी और ..”

“ओह डार्लिंग .. माई स्वीट स्वीट सोफी ..!” कह कर मैंने इनाम के तौर पर सोफी के होंठों पर एक उत्तप्त चुंबन की मोहर लगा दी है।

“माई लव ..! मैं तुम्हारे लिए ही बनी हूँ। मैं जानती हूँ कि ..”

“नहीं स्वीट! मैं तुम्हें कभी बाध्य नहीं करूंगा ..”

“ये मौका ही नहीं आएगा – मैं तो जानती हूँ दलीप!” एक लंबी श्वास सोफी को रिता गई है।

गाड़ी में केंप के धुंधले प्रकाश में हम एक दूसरे को ठीक तरह नहीं पढ़ पा रहे हैं। सोफी कहीं अनंत में विचर कर लौटी है और मैंने अपने ऊपर काबू पा लिया है। बीच का फासला जो बढ़ता लगा था हमने और कम कर दिया है। मैं सोफी का आभारी जैसा सामने बैठा उसे खुश करना चाहता हूँ।

“अब क्या करें?” मैंने पूछा है।

“चलो! नहाएंगे!” कह कर सोफी ने तौलिया साबुन और नहाने के कच्छे निकाले हैं।

“चलो ..!” कह कर मैं साथ हो लिया हूँ।

चलते चलते मैं सोफी को धक्के मार मार कर छेड़ता रहा हूँ। सोफी ने कई बार रेत की मुट्ठी भर भर कर मुझ पर फेंकी है, हलके लप्पड़ों से मारा है तथा टांग खींच कर गिरा दिया है। मैं अट्टहास की हंसी हंसता रहा हूँ। किनारे पर जा कर सोफी ने मेरी ओर कच्छा फेंकते हुए कहा है – लो कपड़े बदलो!

“क्यों ..?”

“नहाना नहीं है?”

“वर्दी में लिपट कर नहीं!”

“क्यों ..?”

“अंधेरा कौन कम है। दिखता ही क्या है?” मैंने सोफी को मसोस डाला है।

हम दोनों प्राकृतिक वस्त्र ओढ़े पानी में धंसे हैं। ठंडा पानी एक रोमहर्षक पदार्थ लगा है – बहता जीवन लगा है जिसे हम समेट कर अंतः में भर लेना चाहते हैं। बालू में एड़ियां गढ़ाए बहाव की ओर पीठ किए हम पास पास जम गए हैं। एक हलका सहारा हमें साधे है। दोनों के शरीर एक चाह से भरे हैं। मैं पलट कर ऊपर आ गया हूँ। सोफी तनिक पानी में डूब गई है। एक दो गज हम बहे हैं फिर रुक गए हैं। पानी को मैंने मुंह में भर कर छोटे छोटे कुल्ले किए हैं और अब एक अजीब सी आहट पैदा की है।

“हम दो मछली हैं!” मैंने सोफी को ऊपर घसीटते हुए कहा है।

“नहीं! एक मछली है और एक कछुआ है।” सोफी ने ऊपर आ कर मुझे हलकी चपत मारी है।

“हम माझी और मझधार हैं?” मैंने फिर पूछा है।

“हां, हैं!”

“कौन क्या है?”

“तुम और मैं – दो किनारे और एक नदी हैं!” सोफी ने बात को उलझा दिया है।

“बह कौन रहा है?” मैंने सोफी के मुंह पर पानी की कुल्ली उलीच कर पूछा है।

“मैं ..!” सोफी ने गीली रेत मेरे मुंह पर लेप दी है।

“बदमाश!” मैंने गाली दी है।

“लुच्चे ..!” प्रति उत्तर में सोफी ने ललकारा है।

“ठहर ..! तेरी तो मैं ..” मैं इससे पहले कुछ करूं सोफी उठ कर भागी है – छम छमा छम छम!

मैं उसे पकड़ने पीछे दौड़ा हूँ – छम छमा छम छम।

नदी का नीचे का पेंदा रेत का बना है। पैर पड़ते ही रेत बह जाती है और एक लगी जौम का पूरा हिस्सा सटक जाती है। सोफी को थकाने के लिए मैं तेज तेज दौड़ना चाहता हूँ। अंतर घट रहा है। मैंने लंबा हाथ करके सोफी के बालों का जूड़ा पकड़ लिया है।

“ओह .. ई ..! यू बारबेरियन!” सोफी चीखी है।

“छपाक!” मैंने उसे पानी में पटक लिया है। मैं हांफ रहा हूँ।

“लीव मी यू ..!” सोफी मछली की तरह नीचे बिलबिलाई है।

“अब तो खा गई दाना, मेरी जान!” मैंने हंसते हंसते कहा है।

पल भर हम दोनों शांत हुए पड़े रहे हैं। सांस जुड़ती रही है। शक्ति संचित होती रही है और पानी की ठंडक कोई संताप हरती लगी है। मैंने सोफी को फिर ऊपर घसीट लिया है। सोफी मेरी कमर के गिर्द हाथ डाल कर चिपक गई है। हम दोनों एक हुए पड़े रहे हैं। घंटों एक अमर प्रणय का दृश्य घटित होता रहा है। मैं कई बार सीमा पार करते करते रुका हूँ – कई बार सोफी ने सिसकारी मारते हुए कहा है – नो डार्लिंग, प्लीज! तो मैं मान गया हूँ। अचानक एक कंपकंपी सी चढ़ने को हुई है तो सोफी ने चलने को कहा है। इस अंधेरे में भी मैं जानता हूँ कि हम दोनों के होंठों का रंग नीला पड़ गया होगा, खाल पर सलवटें चढ़ कर सिकुड गई होंगी और एक कालिख भी पुत गई होगी।

गाड़ी में आ कर एक गर्मी में धंसे हम दूसरा ही सुख भोगने लगे हैं। ठंड के बाद गर्मी और दुख के बाद सुख जैसी अनुभूतियां इसी तरह तो अंतर बता जाती हैं – मैं सोच रहा हूँ। सोफी ने बार खोली है। बिना मेरे पूछे दो गिलासों को भर लिया है। एक मुझे थमा कर चियर्स बोल हम दोनों पीने लगे हैं।

“अब ..?” मैंने अगला कार्यक्रम जानना चाहा है।

लग रहा है – हम कोई नाटक खेल रहे हैं जिसके पात्र तो एक हैं पर दृश्य और स्थितियां भिन्न हैं। एक पर्दा गिरने के बाद सीन बदल जाता है और एक इच्छा चुक जाने के बाद दूसरी आ धमकती है।

“भूख का इलाज ..?” सोफी ने निर्देश दिया है।

हम ने मिल कर खाना तैयार किया है। सब कुछ डब्बों के अंदर से बाहर प्लेटों में गरम गरम बनता और सजता रहा है। उठती भाप मनों को खुश करती लग रही है। वही बैठक अब खाने का कमरा बन गया है। मेरा पेट जो अब तक कमर से लगा हुआ था अब भरता लग रहा है। नहाने से जो रुची खुल गई है – अमृत बन गई है। मैं किसी हब्शी की भूमिका में चपर चपर खाता थक नहीं रहा हूँ।

“बहुत भूख लगी है!” मैंने अपने बचाव में सोफी से कहा है।

मेजर कृपाल वर्मा रिटायर्ड

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