“पी लेंगे, चलाएंगे नहीं!” मैंने मजाक किया है।

“बहुत बिगड़ गए हो।”

“बिगाड़ दिया गया है।” कह कर मैंने सोफी के अंदर कोहनी गाढ़ दी है।

“बारबेरियन ..!” सोफी बुदबुदाई है।

“अरे हां! व्हॉट इज ए बारबेरियन?” मैंने पूछा है।

“तुम्हारा सर!”

“सर – पैर – या सर?” कह कर मैं हंस पड़ा हूँ।

सोफी इस खिट-खिट से हिन्दुस्तान की मजाक पर खीज गई है। लेकिन मैं तो शरारत के मूड में हूँ। यों चुहल करना मुझे बहुत अच्छा लगता है। अंदर के बासीपन को पचाने के लिए हलके फुलके हास परिहास सोंठ जैसे गुणकारी होते हैं। यों हास परिहास के सहारे सफर नहीं व्यापता। देखते देखते हम वॉशिगटन पहुंच गए हैं।

“कितना भव्य शहर है?” मैंने आश्चर्य प्रकट किया है।

“मैं तुम्हें सिर्फ सरकिट हाऊस और नेशनल गैलरी ऑफ आर्ट्स दिखाऊंगी बस!”

“बस ..?” मैंने शरारत से पूछा है।

“हां!”

“क्यों?” मैंने सोफी को फिर कोहनी मारी है।

“उसके बाद कहीं और चलेंगे।” सोफी ने तनिक लजा कर कहा है।

मैं सोफी के मनोभाव ताड़ गया हूँ। लगता है हम दोनों ही दो प्याले हैं और एक प्यास बुझाने के प्रयत्न में भटक रहे हैं। सोफी ने मोड़ काटा है। मेरी निगाहें एक घोड़े पर सवार स्टेचू पर जा पड़ी हैं।

“ये कौन?”

“जॉर्ज वॉशिंगटन!”

“ओह ग्रेट!” जैसे मुझे तमाम इतिहास जबानी याद हो मैं कह गया हूँ।

जॉर्ज वॉशिंगटन जो अमेरिका के लिए लड़ा – अमर है। घोड़ा मुझे अपार शक्ति का प्रतीक लगा है और सवार एक निर्देशक! शायद जॉर्ज वॉशिंगटन ने उभरते अरमानों की चाह को और एक बढ़ती लहर को रोक ठीक समय पर पकड़ा था। एक नई दिशा देकर उसे मोड़ा था और आज ..? इसी का प्रतिफल है ये समृद्धिशाली देश!

लगा है मैं भारत में हूँ। चौराहे पर खड़े दिग्भ्रांत लोगों को दसों दिशाओं में अग्रसर होते देख रहा हूँ। कोई लहर उठ कर खड़ी हो गई है और इंतजार में खड़ी है कि कोई उसे दिशा दे दे! अचानक इरादों के अश्व आकर आशा के रथों में जुत गए हैं। उनकी राशें जमीन पर लटक गई हैं। मैं हूँ – लपक कर राशें उठा रहा हूँ। किटकारी मार कर घोड़ों को सरपट छोड़ देना चाहता हूँ। तभी सोफी ने मुझे टहोक दिया है।

“लुक! वाइट हाऊस!”

“ओह! वाइट हाऊस?” मैं विक्षिप्त सा देहली से लौट आया हूँ।

सुंदर बगीचे में हम बेरोकटोक घुस गए हैं। वाइट हाऊस को अंदर से देखा है। किसी खड़े पहरुए ने हमारी तलाशी नहीं ली है।

“यों बेरोकटोक आना जाना?” मैंने शंका समाधान हेतु पूछा है।

“हां! यहां हिन्दुस्तान जैसे प्रतिबंध नहीं हैं।” सोफी ने बताया है।

एक ओर प्रतिबंध है और दूसरी ओर नहीं है – बात कुछ घिल्ल मिल्ल सी हो गई है। तो क्या हिन्दुस्तान का राष्ट्रपति डरता है और अमेरिका का नहीं डरता? और अगर नहीं तो क्यों?

“चलो कुछ खरीदना है।” सोफी ने आग्रह किया है।

मैं सोफी के साथ हो लिया हूँ। मुझे कुछ नहीं खरीदना पर कम से कम खरीदने और बेचने की तमीज तो सीख ही लूंगा – यही सोच कर मैंने सोफी को अकेला नहीं छोड़ा है। सोफी ने दूध के डब्बे, सब्जी के डब्बे और कॉफी तथा अन्य खान पान की वस्तुएं खरीद कर आधी सी गाड़ी भर ली है।

“किसी की शादी है क्या?” मैंने सोफी को चिढ़ाने के उद्देश्य से पूछा है।

“हां!”

“किसकी?”

“तुम्हारी ..! लुच्चा कहीं का ..!” कह कर सोफी ने नीली आंखों में भर कर मुझे समूचे रूप से घूरा है।

“जश्न की तैयारी ..?” मैंने फिर से उसे छेड़ा है।

“कर लो!” सोफी ने कहा है।

“अपना करने वाला है!” कह कर मैं गाड़ी में धड़ाम से पड़ गया हूँ।

सोफी गाड़ी चलाती रही है। हम आबादी से दूर भाग चले हैं मानो अपने प्यार का राज किसी पर जाहिर नहीं करना चाहते। एक विशालकाय नदी के पुल से गुजरते हैं। नीले जल की स्वच्छ धारा सफेद कागज पर खिंची लकीर जैसी लगी है।

“ये कौन सी नदी है?” मैंने पूछा है।

“पोटोमैक!” सोफी ने सामने लगे नक्शे पर मुझे दिखाया है।

थोड़ा आगे चल कर सोफी एक बाएं को फटती सड़क पर मुड़ी है। मैं बिना किसी आपत्ति के बैठा-बैठा चारों ओर के मोहक दृश्य में रमता रहा हूँ। नदी के जल का स्पर्श करती कोई आद्र हवा हमें छू-छू कर गुदगुदा रही है।

“कैसा लग रहा है?” सोफी ने पूछा है।

“किसी परलोक की कल्पना जैसा।” मैंने सच्चाई उगली है।

सोफी मुझे अपनी प्रशंसक निगाहों से कृतार्थ कर गई है। माना वो अमेरिका की घुटन से ऊब जाती है पर है तो उसी देश की। पहली बार सोफी के मन में अमेरिका की इस स्निग्ध मिट्टी के प्रति आभार देख कर मैं त्राहि-त्राहि हो गया हूँ। हर देशवासी को अपना देश रम्य लगता है – मैं समझ पाया हूं। एक कुशल चालक की तरह सोफी कई खाई खड्डे भी पार करने में नहीं झिझकी है। सड़क का छोर तो पीछे छूट गया है और अब हम एक बलुहे धरातल पर दौड़ रहे हैं। हर बार कोई घास या छोटी झाड़ी का झब्बा पहिए के नीचे रुंद जाता है, पहिया रेत में बैठते-बैठते निकल जाता है और एक धूल का धुआं सा अंदर गाड़ी में भर गया है। सोफी ने एक लंबी श्वास छोड़ी है। दूर एक पेड़ों के झुरमुट की ओर उसने चाहकर सीध में गाड़ी मोड़ दी है।

“लो! पहुंच गए!” ब्रेक मारते हुए सोफी ने गाड़ी को एक पक्के प्लेटफॉर्म पर लगा दिया है।

उतर कर मैंने अपने चारों ओर निरीक्षण जैसा किया है। नदी की मुख्य धारा सिर्फ चार सौ गज पर है। नदी के कछार में स्थित ये एक स्थान सैलानियों के लिए ही बना है। सोफी ने मुझे यहां का पूरा ज्ञान कराया है।

“ये देखो! बिजली का कनैक्शन – लो जुड़ गया और ये रहा पानी का पाइप – लो ये भी जुड़ गया! बिजली पानी चालू!” सोफी खुशी से उछल गई है।

मैंने बहते पानी और जलती बिजली का मुआइना करते हुए नजरों से एक प्रशंसा जैसी बखेरी है!

Major krapal verma

मेजर कृपाल वर्मा रिटायर्ड

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