कुमार दमपत्ती मुख्य शहर से करीब पचास किलोमीटर दूर एक अत्याधुनिक बस्ती में एक अकेले घर में रहता है जो यहां के हिसाब से अच्छा स्तर कहा जा सकता है। घर में चार बेडरूम हैं और बांट में मुझे भी एक मिल गया है। एक बैठक, एक पढ़ाई का कमरा तथा रसोई घर और खाने का कमरा सभी बड़ी चतुराई से बने लगते हैं। घर की साफ सफाई और सजावट को देख कर लगता है कि यहां कोई रहता ही न होगा। यों इस तरह घर रखने के लिए नौकरों की कतारें होनी चाहिए थीं पर मैं तो यहां अब तक एक भी नहीं देख पाया हूँ।

“घर में कोई नौकर नहीं?” मैंने कुमार साहब से पूछ लिया है क्योंकि अगर उनसे नहीं सवाल करता तो रामायण महाभारत से शुरू करके भी अंत में सवाल निरुत्तर रह जाता।

“नहीं! माई डियर यहां नौकर अफोर्ड करना संभव नहीं। उनकी तनखा हजारों में होती है।”

“एक लाए थे हिन्दुस्तानी। नमक हराम को रोट लग गए, भाग गया। यहां का माहौल ही ऐसा है!” अनु ने बीच में आ कर टांग मारी है।

अनु अब भी काम करने में खुश नहीं और अगर है भी तो मुझ पर दवाब डालने में कसर नहीं उठा रखना चाहती।

“अरे बिट्टू! जरा मेरा बैग लाना!” मैंने बेटे को पुकारा है।

“ये लो बैग मामा जी। मेरा नाम रणजीत है। दोस्त मुझे रानू कहते हैं।”

रणजीत ने मुझे इस तरह समझाया है जिस तरह मैं इस भौतिकी दुनिया में घुसने वाला पहला इंसान होऊं और पहले ही कदम पर ठोकर खा गया हूँ। तनिक लजा कर मैंने मान लिया है कि मुझे तमीज से बोलना चाहिए था।

“और आप का परिचय?” मैंने बिटिया रानी से पूछा है ताकि वह भी गलती होने पर हावी न हो जाए।

“मधुबाला और आप मुझे मधु कहिए!” मधुबाला ने बताया है।

छोटी की मधु और रानू मुझे बहुत बड़े लगने लगे हैं। कुमार साहब ने बताया है – ये लोग अपना काम खुद करते हैं तथा अनु का हाथ खाना बनाने, सफाई करने और शॉपिंग जाने में बटाते हैं। जब शॉपिंग की बात हुई है तो मैं इस घुटन और तकल्लुफ से कट जाने के इरादे से बोला हूँ – शहर नहीं घुमाइएगा?

“क्यों नहीं! हम लोगों ने तो प्रोग्राम बना लिया है। दो दिन और छुट्टियां हैं। बस घूमना ही घूमना है।” रणजीत ने बताया है।

“ठीक कहता है!” अनु उसके समर्थन में हंस गई है।

मैं जान गया हूँ कि जरूर ये मुझे न्यूयॉर्क दिखाने का उपक्रम है। अनु ने ही प्रस्ताव रक्खा होगा। कुमार साहब को तो साथ देने पर मजबूर किया होगा। बच्चों ने भी उत्सुकता पूर्ण आग्रह किए होंगे कि उन्हें भी साथ ले लिया जाए।

बातों ही बातों में खाना तैयार हो गया है। टेबुल रानू और मधु ने सजा दी है तथा मैं और कुमार साहब टेलीविजन पर एक कॉमेडी वाली फिल्म – जैरी लेविस, जिसका नाम है देखते रहे हैं। मैंने अपनी ज्ञान वृद्धि के हेतु किचन में घुस कर देखा है। साफ सुथरा एक मंदिर जैसा कमरा आधुनिक साज सज्जाओं से लैस लगा है। गैस का चूल्हा, खाना पकाने के बर्तन, बर्तन धोने की मशीन, बिजली का झाड़ू और अन्य वस्तुएं हैं जिन्हें मैं कौतूहल से देखता रहा हूँ।

कई बार मन में आया है कि बातों ही बातों में अनु से पूछूं कि ये सोफी कहां है – पर हिम्मत नहीं पड़ी है। अनु के कृत्रिम व्यवहारों को देख कर मेरा विश्वास सा उठ गया है।

बाहर जाने लगे हैं तो मैंने कार में बैठते हुए पूछा है – कितनी गाड़ियां हैं? कारण कि जिस कार में मैं अब बैठा था दूसरी थी।

“तीन!” कह कर अनु मुसकुराई है।

अनु को यों मेरा कौतूहल अच्छा लगा है। उसकी चाह वही है कि मैं अनु की हर वस्तु को सराहूँ और तारीफों के पुल बांध-बांध कर हिन्दुस्तान और अमेरिका के बीच के अंतर को याद करूं।

“तीन क्यों?” मैंने अनाड़ी की तरह प्रश्न किया है।

“एक ये ले जाते हैं। दूसरी में मैं स्कूल जाती हूँ और तीसरी जब कभी हम लोग लम्बी यात्रा या बाहर पिकनिक पर जाते हैं तो इस्तेमाल करते हैं।”

“तुम स्कूल जाती हो?” मैंने फिर पूछा है। यों अनु हजार बार गा गा कर मुझे बता चुकी है कि वो पढ़ाती है – पढ़ाती है, कमाती है और ..! पर मैं हूँ कि आज तक उसके स्कूल की तारीफ नहीं कर पाया हूँ।

बचपन का एक दृश्य हल्की सी यादें पार कर गया है जब अनु हर रोज मां और बाबा से मेरी शिकायत लगाती थी, मुझ पर रुबाब डालती थी और मुझे अंग्रेजी बोल बोल कर प्रभावित करने का विफल प्रयत्न करती थी। तो क्या आज वह फिर से अतीत को दोहरा रही है?

“यहां अगर परिवार न कमाए तो काम नहीं चलता दलीप!” कुमार साहब ने बहुत ही ठंडे स्वर में मुझे समझाने का प्रयत्न किया है।

“हिन्दुस्तान की तरह एक कमाए और दस खाएं वाला जोड़ बाकी यहां नहीं चलता।” वो तनिक हंस गए हैं।

मुझे लगा है कि वर्षों अमेरिका में रहने के बाद कुमार साहब हिन्दुस्तानी बनने से इनकार कर रहे हों, अपने किसी स्थाई स्वरूप से कट कर रह गए हों और किसी गैर के बाप को अपना बाप मान बैठे हों। मैं उनके चश्मों के पार उनकी गैरत को टटोलता रहा हूँ। मन में तो आया है कि इन दोनों को यहीं एक भाषण देकर बताऊं कि तुम लोग नमक हराम हो पर संभल गया हूँ!

“हिन्दुस्तान भी अब बदल रहा है जीजा जी!” मैंने बहुत ही संयत हो कर देश की लाज बचानी चाही है।

“क्या खाक बदल रहा है जी! हम तो अखबार और रेडियो पर सुनते रहते हैं – अकाल, बाढ़, सूखा या कोई संक्रामक रोग – फैलता ही रहता है!” अनु ने जैसे सारी घृणा उगल कर कार को एक दुर्गंध से भर दिया हो और ये दुर्गंध सीधे मेरे दिमाग पर चोट मार रही हो – टिक, टिक, टिक! मैं अब भी कुछ कहने के मूड में नहीं हूँ। मैंने अनु और जीजा जी को काट कर बात पलट दी है।

“रानू जी आप हमें क्या दिखाएंगे?” तनिक कुनिहा कर मैंने रणजीत से पूछा है।

रणजीत भी जैसे मेरी बात से उकता गया था गहक कर बोला है – पहले एम्पायर स्टेट बिल्डिंग चलेंगे!

“मामा जी! ये बहुत ऊंची है!” मधु ने बात में योगदान दिया है।

“इसकी ऊंचाई चौदह सौ बहत्तर फीट है।” रानू ने सही बात बताई है।

“इस पर चढ़ कर अस्सी मील तक देखा जा सकता है!” मधु जैसे पीछे नहीं रहना चाहती।

“ये अठारह महीने में बन कर तैयार हो गई थी।” रानू ने फिर बताया है।

“क्या ..? अठारह महीने ..? गप्पें मत मारो जी!” मैंने यूं ही रानू को छेड़ा है।

“गप्पें नहीं – सच है भइया!” अनु ने बात की पुष्टि की है।

अनु इस तरह कह गई है जिस तरह वह कोई मालिक मकान हो और उजड्ड किराएदार को तमीज सिखा रही हो ताकि मकान की लगी लागत उसे समझ आ जाए। अठारह महीनों को घटा बढ़ा कर मैंने इस बिल्डिंग को नापा है तो वास्तव में आश्चर्य हुआ है। इस महान इमारत को देख कर मैं दंग रह गया हूँ।

मेजर कृपाल वर्मा रिटायर्ड

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