“कुल दो एकड़ जमीन पर बनी है। नीचे भी दो मंजिल हैं।” कुमार साहब ने बच्चों की तरह मुझे समझाया है।

चलते फिरते मुझे समझ आया है कि मेनहट्टन जो न्यूयॉर्क का मुख्य भाग है अंदर से ये पोला हो। न्यूयॉर्क में दौड़ती रेलें और कार तथा पानी के परिवहन की योजना अद्भुत लगी है। चौड़ी सड़कें जिन पर सरपट दौड़ना संभव है लेकिन वहां का ट्रैफिक नहीं वहन कर पातीं। एक खुले होटल के रेस्टोरेंट में बैठ कर हमने जलपान किया है तो मैं देखता रहा हूँ कि इस विशालकाय भीड़ में सभी रंग और वर्गों के आदमी हैं। गोरे, काले, पीत वर्ग और कुछ खुरदरे मटमैले सभी मिल कर एक बहुरंगी समाज बना रहे हैं। यों गोरों की संख्या ज्यादा लगती है पर कोई किसी पर हावी हुआ नहीं लगता है। मेरी पूर्व धारणा कि सभी लोग यहां गोरे होंगे गलत साबित होती लगी है। घूमते-घूमते कुमार दमपत्ती के कई दोस्त मिले हैं। अमेरिकी, हिन्दुस्तानी और कुछ फ्रांसिसी जिनके साथ मेरा परिचय कराया गया है। कहीं कोई झिझक या अंतर महसूस करने वाली स्थिति नहीं बनी है।

अपार भीड़ के उमड़ते सागर में मैं कहीं सोफी को तलाशता रहा हूँ। बार-बार हारी थकी असफल आंखें लौट कर निराशा पी जाती हैं। मैंने यों ही अनु से बात छेड़ी है कि शायद वो कुछ पता ठिकाना बताए!

“लगता है दोस्ती की लंबी लिस्ट है?”

“यहां दोस्तों का मतलब अलग होता है। मिल गए तो मिल बैठे वरना ..” अनु ने हंस कर मुझे समझाया है जैसे मैं कोई अबोध बच्चा होऊं।

“फिर भी कुछ तो होंगे ही जो ..?” मैंने अनु को कुरेदा है।

“अगर ज्यादा आत्मीयता बढ़ाने की कोशिश भी की जाए तो जानते हो क्या उत्तर मिलता है?” कुमार साहब ने भी अपने ज्ञान का परिचय देने की गरज से पूछा है।

“क्या मतलब?”

“मतलब – माइंड योर ओन बिजनिस!” कहकर उनका पूरा परिवार हंस गया है।

मैं बुद्धू बना एक झेंप सी उतारता रहा हूँ। शून्य से अदृश्य शरीर में लिपटी सोफी शायद वहीं कहीं रह रही है – पीचो ने भी यही समझाने की कोशिश की थी और मैं ..? अचानक मुझे सूटकेस में कैद फाइलों का ध्यान हो आया है। हां-हां! मुझे भी तो बिजनिस करना है और चल पड़ना है। यहां किसी के पास न फालतू वक्त है और न फालतू भाव। हर एक कॉमर्शियल आधार पर टिका हुआ लगता है और यहां तक कि दोस्त, संबंध पिकनिक और सैर सपाटे भी कॉमर्शियल हो गए हैं।

“वो देख रहे हैं मामा जी – स्वतंत्रता की देवी की मूर्ति है।” रानू ने बताया है।

अनमना सा मैं हाथ में मशाल लिए उस विशालकाय मूर्ति को देखता रहा हूँ। अटलांटिक महासागर के तट पर बने न्यूयॉर्क हार्बर पर स्थित ये मूर्ति अनवरत एक संदेश प्रसारित करती रहती है – उन्नत बनो – संघर्ष करो! मेरा मन मशाल की तरह दीप्तिमान हुआ लगा है। संघर्ष करने की चाह मानो मनों में बढ़ गई हो और मैं वापस हिन्दुस्तान पहुंच गया हूँ – जूझने लगा हूँ उन शर्मनाक स्थितियों से और उन चारित्रिक संज्ञाओं से और फैली उस अकर्मण्यता और आलस्य से! चीखता रहा हूँ – आंखें खोलो, जागो – देखो लोग हम पर थूकते हैं और हमारे अपने हमें अपना कहने में शरमाते हैं। कुछ तो शर्म करो।

“इसकी ऊंचाई तीस फीट है!” मधु ने बताया है।

लगा है बच्चों को ये आंकड़े रटा दिए हैं या उनमें कोई हर बात की गहराई तक जान लेने की उत्सुकता जगा दी गई है। रानू और मधु को सवाल जवाब में दक्ष पा कर मैं अपने देश के ही बच्चों को सशंक निगाहों से घूरता रहा हूँ।

“क्या ये हिन्दुस्तान में भी हो सकता है?” मैंने जैसे कोई कसम खाई हो।

“क्यों नहीं? पर करेगा कौन!” कुमार साहब ने मानो एक झापड़ मार कर मेरा हिन्दुस्तानी गुरूर झाड़ दिया हो।

“वही तो मैं सोच रहा हूँ!” मैंने निश्वास छोड़ी है।

“ये सोचने की बुरी बीमारी का कीड़ा हिन्दुस्तान में ही पैदा होता है।” अनु ने फिर से चोभ मारी है।

“तो डी डी टी क्यों नहीं छिड़क देते पापा?” मधु ने भोला सवाल किया है।

मैं मधु को घूरता रहा हूँ। ये बात किस तरह मुझे बर्फ की तरह तेज ब्लेड से काट-काट कर जमा गई है – शायद मधु नहीं जानती। अगर अनु अपने अतीत में वापस लौट जाए – पल भर के लिए भी तो शायद मैं झापड़ मार-मार कर अनु का चेहरा सुर्ख कर दूं पर अब ..?

“हिन्दुस्तानी तो तुम भी हो?” मैंने कुमार, अनु और दोनों बच्चों को जैसे एक ही नजर में भर लिया है और जोर की हलहली मार कर उन से भ्रम को अलग कर दिया है।

सभी मुझे अवाक देखते रह गए हैं। अनु का चेहरा लज्जा से पुत गया है। कुमार साहब चश्मा के लेंस साफ करने लगे हैं और दोनों बच्चे मेरी नजरों में आंखें गढाए कुछ खोजते रहे हैं।

“मेरे बच्चों! हमें नहीं भूलना चाहिए कि हिन्दुस्तान हमारा है।” मैं जैसे साठ साल का बूढ़ा होऊं – एक उपदेश दे गया हूँ।

“यहां के डिपार्टमेंटल स्टोर देखें? कोई भी चीज मांगो हाजिर है और सुपर मार्केट में जो चाहो सो मिलेगा! कोई सौदा समझौता नहीं करना, कोई झगड़ा टंटा नहीं और न समय नष्ट करने की कोई जरूरत। दिल्ली में जाओ तो यही लगा रहता है कि दुकानदार ने ठग लिया – या हमने दुकानदार को ठग लिया। न माल की शिनाख्त न भाव की गारंटी!” अनु कहती रही है।

“लेकिन आदमी की शिनाख्त जरूर होती है। मीन्स प्योर हिन्दुस्तानी!” मैंने फिर से मजाक किया है।

सभी हंस पड़े हैं। अबकी बार में जोर से हंसा हूँ और अनु झेंप गई है। दोनों बच्चे जैसे मेरे हो गए हैं। उन्हें अचानक खोया अपनापन याद हो आया है। मैं ताड़ गया हूँ कि मधु और रणजीत कभी भी अमेरिका के नहीं हो सकते!

रात के सहभोज के लिए अनु ने कुछ गैस्ट बुलाए हैं। एक मेला जैसा भर गया है। कारों का जमघट, आदमियों और औरतों का जमघट तथा बहुरंगी समाज – इटालियन, ब्रिटिश और नीग्रो तथा हिन्दुस्तानियों का बाहुल्य लगा है। मैं खुश हूँ। मुझे एक ही कमी खल रही है – सोफी। पर अब भी लोगों का आना जारी है तथा मैं एक मरियल आशा में लिपटा हूँ। शायद .. शायद वो आ जाए!

मैं रणजीत, मधु और एक पड़ौस वाली युवती अनु की मदद में जुटे हैं। गैरिज में स्थित डीप फ्रीज से मीट, मछली तथा साग सब्जियां निकाली हैं जो महीनों से वहां पड़ी हैं। अनु ने बहुत ही चतुराई से खाना बनाते बनाते मुझे और रणजीत को आदेश निर्देश पास किए हैं और रणजीत जैसे उन आदेशों का अनुवाद कर के मुझे बताता गया है।

मेजर कृपाल वर्मा रिटायर्ड

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