सुलगती आग की गर्मी जैसे पश्चाताप बनकर मेरे पसीने छुड़ाने लगी है। मैं शायद अपनी हर कमी पूरी करने का संकल्प कर लेना चाहता हूँ। एक भी पल व्यर्थ में नष्ट न करने का व्रत उठा लेना चाहता हूँ और अपने देश के आलस्य को पकड़ कर सटक जाना चाहता हूँ। ये जितनी भी चाहें हैं – सब आग हैं – सभी जन्म लेती रही हैं, बढ़ती रही हैं और अब मैं एक नशे में धुत कोई धत्ती हूँ कि जो मान-अपमान पर जान जोखिम जैसी बातें भूल कर परछाइयों को पकड़ने का सहज प्रयत्न कर रहा है।
“तुम मुझे इतना जानती हो और मैं ..?” एक इच्छुक विद्यार्थी सा मैं जैसे कोई गहन विषय हल करने के समीकरण सीख लेना चाहता हूँ।
“क्या जानना चाहते हो?” सोफी ने बहुत ही सपाट स्वर में पूछा है।
“मैं .. तुम्हारे बारे में ..?” मैं कुछ भी पूछने में समर्थ नहीं हूँ।
कितना कुछ पूछे कोई – कितने प्रश्न अब तक निरुत्तर मुझे चबा चबा कर हलका करते रहे हैं। कितने संदेह, कितनी शंकाएं और भय? हिम्मत करके भी मैं पूछ नहीं पा रहा हूँ कि सोफी किसको प्यार करती है – कितनों को प्यार करती है और ..? क्या वो अक्षत यौवना है, अछूती है, अब तक मेरे ही इंतजार में ..? कितना अप्रत्याशित सवाल है और वो भी अमेरिका जैसे देश के अत्याधुनिक जीवन के संदर्भ में? सोफी मुझ पर खुल कर हंसेगी और शायद कोई ऐसा राज खोल बैठे जिसे मैं संवरण ही न कर पाऊं? जो मरी कलपना मेरे गिर्द खिंची है उसे तोड़ते मैं डर रहा हूँ और सोच रहा हूँ – सोफी को जिस मोड़ से देखा है उसी के आगे की बात करूं। पीछे क्यों मुड़ूं। अतीत को क्यों कुरेदूं और फिर मेरा अपना मन कितना साफ है?
“तुम्हारे पिताजी ..?” मैंने एक सड़ियल सा प्रश्न यूं ही पूछ लिया है।
“हैं!” सोफी ने बताया है।
सोफी का चेहरा एक बार फिर ग्लानि जैसी किसी बात से आहत हुआ है।
“मां ..?” मैंने दूसरी बार पूछ लिया है ताकि सोफी से अंदर का फूटता ज्वालामुखी छुपा जाऊं।
“हैं!” उसी गंभीरता से उत्तर मिला है।
“उनके साथ क्यों नहीं रहतीं?”
“वो खुद साथ-साथ नहीं रहते!”
“क्यों?”
“मां ने तलाक देकर दूसरी शादी कर ली है।” सोफी ने सहज भाव से कहा है जैसे तलाक देना कोई महत्व नहीं रखता।
मैं इसी विषय पर हजारों हजार प्रश्न पूछने को लालायित हूँ पर चुपचाप सोफी को ही घूरता रहा हूँ। मन में तो आया है कि पूछ लूँ – क्या तुम भी तलाक दे दोगी – पर प्रश्न कुसमय पर दाड़ के नीचे आया पत्थर लगा है – जो मजा किरकिरा कर गया है।
“तुम उनसे – मेरा मतलब अपने डैडी से नहीं मिलतीं?” मैंने सोफी को सांत्वना देने के लिहाज से पूछा है।
“मिलती हूँ – कभी-कभी। यों जरूरी बातें फोन पर हो जाती हैं।”
“वो भी ..?”
“हां! बहुत व्यस्त रहते हैं।”
“और मां से ..?”
“मिलने को मन ही नहीं चाहता!”
“पिताजी से मिलाओगी?”
“उन्हें पूछना पड़ेगा!”
“बाई द वे तुम उन्हें क्या कह कर बुलाती हो?” मैंने पूछा है ताकि उनसे मिलने पर गलती न कर बैठूं।
“सन ऑफ ए बिच!” सोफी ने मुंह भर कर कहा है।
मेरा चेहरा लाल हो गया है। बुजुर्गों के लिए इस तरह ..?
“यहां प्यार जताने का यही तरीका है। हिन्दुस्तान के पैमाने से भिन्न है पर नंगा सत्य है – एक दम साधू – हरिद्वार की रेती में पड़ा नग्न शरीर जैसा।”
“पर सोफी फॉर गॉड्स् सेक?” तिलमिलाया मैं पूछना चाहता हूँ।
“क्या करूं? इतनी ही श्रद्धा और प्रेम कर पाती हूँ। यहां हृदय के उद्गार उपहास बन जाते हैं – एंड दे लुक आउट ऑफ फैशन!” गंभीर हुई सोफी बताती रही है। “हम बाप-बेटी कभी कभार मिलते हैं। दो-चार औपचारिक बातों के बाद ही बीच का नाता चुक जाता है और एक दूसरे की उपस्थिति चुभने लगती है। डैडी को मैं समझती हूँ और ..”
“वो तुम्हें समझते हैं?” मैंने बीच में पूछ लिया है।
“हां!”
“कितना अजीब है?” मैंने आश्चर्य प्रकट किया है।
“आदत पड़ जाती है तो कुछ भी अजीब नहीं लगता!”
“फिर भी ..?” मैंने जैसे सारी बात को नकार दिया है।
मेरे सामने पूरा न्यूयॉर्क शहर बिछ गया है। खोखलापन उजागर होता चला गया है। एक एक इंसान एक एक महत्वाकांक्षा के पीछे भागता लगा है। जीवन की चमक दमक ऐशों आराम के साधन, काम का बाहुल्य, समय का मूल्यांकन और आगे बढ़ने की होड़ में जुता मानव मुझे हांफता लगा है। सोफी कितनी अकेली है – मैं अंदाजा लगाता रहा हूँ। मां और बाप सामने खड़े खड़े हंसते रहे हैं। दुनिया भर का प्यार और दुलार बखेर कर निहाल करते, आशीर्वाद देते, दुआएं और मन्नतें मांगते, बच्चों के लिए शुभकामनाएं करते मां और बाबा देवी देवताओं के स्वरूप धारण कर मूर्त होते लगे हैं। मां की गरम गरम सुखद गोद, बाबा का सर पर सहलाता हाथ – बहता वात्सल्य और प्यार की अवधारणा मुझे सच्चा भारतीय लगने लगा है। लगा है ये प्यार और वात्सल्य की श्रोत्स्वनी हिमालय के स्निग्ध बर्फीले प्रदेश से बह कर समुद्र में आ मिली है – यहां तक नहीं पहुंचती। यहां तो शीत काल की भयंकर हवाएं दन्नाती रहती हैं। सहसा मुझे अंग्रेजी में कही एक लाइन याद आ जाती है – ब्लो ब्लो दाऊ विंटर विंड ..
“यहां वसंत नहीं आता?” मैंने घबरा कर सोफी से पूछा है।
“सैन फांसिसको चलेंगे तो देखना!” सोफी ने हंस कर कहा है।
अब भी मैं इस हंसी में विमानवीय करण का सपुंज अंधेरा खोज रहा हूँ। सुन्न करती विटर विंड मुझे किसी विपन्नावस्था में छोड़ गई है।
“क्या यहां तपती दोपहरी नहीं आती?” मैंने फिर पूछा है।
“वही तो चल रही है।” सोफी ने मेरे मनसूबे भांप कर जवाब दिया है।
“पर यहां उतना पसीना नहीं रिसता जितना भारत में। वहां लोग खुले में खुले दिल से प्रकृति के प्रहार झेलते हैं लेकिन यहां सब तकनीकी करण ने ढांप दिया है।”
मैं जैसे कोई गहन बात खोज कर लौट रहा हूँ। प्रकृति में प्रकृति से सीधे संबंध रखने पर ही नैसर्गिक प्यार और मोह बढ़ता है। यों नकाब डाल कर आदमी यांत्रिक बन जाता है।
“बहुत भूख लगी है!” मैंने कहा है।
अचानक मुझे लगा है – मैं भी अंदर से खोखला हो गया हूँ। अपने अंदर की आपूर्ति के लिए कुछ खुराक समेट कर समर्थ बन जाना चाहता हूँ ताकि यहां के खोखले आदर्शों से कट कर कोई ठोस बात सीख लूँ।
“चलो! टेबुल लगाओ। मैं खाना गरम करती हूँ।” सोफी ने कहा है।
मैं किसी आज्ञाकारी बालक की तरह दिया काम करने लगा हूँ। कितना मजा है। खुद बनाओ, खुद खाओ और अपना घर खुद चलाओ। साथ खाते कमाते हैं – मैं प्रशंसा करता रहा हूँ। सोफी ने मुझे चिढ़ाया है – खाना बनाना सीख लो। ऐसा मौका फिर नहीं मिलेगा।
“क्यों? मझधार में छोड़ोगी क्या?” मैंने भी कस कर चोट मारी है।
मेजर कृपाल वर्मा रिटायर्ड