नदी के दोनों तट साफ दिखाई दे रहे हैं। बीच मैं बहती जलधार मानो दो भुजाओं के बीच आरक्षित एक धरोहर हो – लग रही है। जल प्रवाह भी सजग सा हुआ लगा है। आस पास की गीली जमीन से अंदर पानी में उगे शैवालों से, सीपी-घोंघों के बदन से और पार पर विश्राम करते कछुओं के नथनों से रिसती गंध हवा में मिल कर साफ साफ चेतावनी दे रही है – होशियार खतरा है।
“नहाओगे?” सोफी ने पूछा है।
मात्र नहाने के शब्द से शरीर में दौड़ता ताप एक दम ठंडा पड़ गया है। ये अवसान और ये नहाने का प्रस्ताव कहीं भी तो मेल नहीं खाते। बदन जैसे बर्फ की सिल्लियों पर जा फिंका है और मैं अब सिड़सिड़ा रहा हूँ। सोफी ने मेरे अंदर की ठिठक भांप ली है। वह बिना समय नष्ट किए कपड़े उतार रही है। अल्फी को किनारे पर बिल्गाव से फेंका है। अंदर का भी सब कुछ उतार फेंका है। मैं उसका सब कुछ देख पा रहा हूँ। क्षितिज के पर्दे पर उसके उठे वक्ष उभर आए हैं। शरीर के उतार चढ़ाव और कद काठ सभी में साफ साफ देख पा रहा हूँ। तनिक आगे बढ़ कर मैंने सोफी को बाँहों में भरना चाहा ही है कि वो सपाक से चिकनी मछली की देह सी मेरी बाँहों में से उछल कर पानी में जा कूदी है। छपाक – छपा छप! शब्द हैं जो किनारों से लड़ रहे हैं। मुझे कोई इंट्रूडर सूचना देता रहा है तो कहीं कोई पहरुआ निद्रा में चूर हुआ पड़ा है। सोफी पानी में गोतों का आनंद उठा रही है।
मुझमें एक अजीब सा हीन भाव भरने लगा है। मैं सिमट कर एक निरीह सा बिंदू बनता जा रहा हूँ। सोफी दूर भाग रही है तो मेरी सांस फूल रही है।
“तुम भी कोई मर्द हुए?” अंदर से गैरत – मेरी अपनी गैरत ने ललकार कर पूछा है। उत्तर में मैंने कपड़े खोल दिए हैं – जैसे डर और भय से मुक्त हुआ हूँ। अंडर वियर पर आ कर हाथ रुका है। अचानक मुझे खुले पन का आभास डरा गया है। अभी भी मैं प्रकृति के उन्हीं तत्वों से डर रहा हूँ जिनसे मैं बना हूँ। हिम्मत करके मैंने अपने आप को अकारण भय से मुक्त किया है। अपना शरीर नदी किनारे खड़े होकर उसी क्षितिज के पर्दे पर छपता देखा है – जो एक दम आदमी लगा है – मानव है जिसकी तलाश में हम आज तक भटक रहे हैं।
सोफी मुझे देखती रही है और गोते खाती रही है।
“छप्प-छपाक! छपाक-बुलबुल …” आदि शब्दों से अब पानी दूसरी बार अवगत हुआ है।
मैं तैर कर सोफी के समीप पहुंचा हूँ। न जाने कितनी खाइयों, कितने खतरों और कितने सदमों को पार करके मैं आया हूँ और किस अपार चाह के पीछे एक कृत्रिम और फ़िलमाया सा दृश्य लगने लगा हूँ। मैंने सोफी को बहुत समीप खींच लिया है।
दो आवरण मुक्त शरीर पानी की शीतलता को अपने गिर्द लपेटे लिपट लिपट कर किलोल करने लगे हैं। हर बार हल्के-फुल्के शरीर पानी के चलते बहाव में बह जाते हैं, अलग हो जाते हैं और फिर मिल जाते हैं। ज्यादा परिश्रम करना नहीं पड़ता। अगर सोफी को कस कर चूमना है तो उंगली का सहारा ही साधे रहता है। पानी के पर्दे में हम सब कुछ कर पा रहे हैं। ये अलौकिक स्वतंत्रता और ये निर्मल जल और उसमें तैरते उतराती दो युवा देह और निस्वार्थ घुला प्यार कभी कल्पना में भी घटित न हुआ था और न कभी मैंने सोचा था।
बार बार हल्की-फुल्की लहरें मुंह में पानी भर जाती हैं। मुंह में भरा पानी मुंह, होंठ और जबान साफ कर जाता है ताकि हम हर बार बासी पन से मुक्त हो जाएं। हर बार एक नए प्यार को पनपाते, हर बार एक बचकानी क्रिया और बदले स्थान पर पहुंच जाते हैं। ये बदलाव, ये प्रक्रिया और ये ठंडक में बंधे गरमाते शरीर – क्या हैं?
“ये क्या है सोफी?” मैंने धीमे से पूछा है ताकि हमारा मोहक स्वप्न टूट न जाए।
“हमारा बढ़ता अमर प्यार, दो खिलवाड़ करते शरीर और हम दोनों जो एक दूसरे को जान कर भी जानना चाहते है!”
“क्यों ..?”
“अमरत्व की खुराक विश्वास है और उसी विश्वास की तलाश में हम ..”
“किलोल कर रहे हैं?” मैंने कुतर्क कर दिया है।
“और भरमा रहे हैं ताकि एक को दूसरा भा जाए!”
“पर मुझे तो ..”
“तुम पर तो एक ही प्रेत सवार हो जाता है और यही प्रेत हमेशा से प्रेमियों का प्यार खाता डकारता और असफल हुए प्रेमियों पर हंसता रहा है।”
“प्रेत ..?”
“हां! सेक्स का प्रेत!”
“मैं नहीं मानता। मुझे तो ..” मेरा कसाव और बढ़ गया है। पानी से कोई गाह जैसे लमक कर सोफी को सतह पर पसार गया है। शायद ये गाह – प्रेत मेरे कंधे पर सवार है और मैं ..
“दलीप …!”
“सोफी ..!” मैं हांफने लगा हूँ।
कब तक सहता जाऊं, कब तक बंध कर रहूं, कब तक रुकूं और क्यों रुकूं, मेरी समझ ही नहीं आ रहा है। सोफी फिर से कट सी गई है। पानी पानी होकर ठंडी पड़ गई है। अधीर हो मैं अब हार गया हूँ। अकेला क्या करूं। आगे बढ़ा भी तो – बलात्कार, रेप ..! कंधों पर लदा प्रेत कह रहा है – आगे बढ़ो पर पानी की शीतलता पैरों के जरिए सुबुद्धि ठेल रही है। मैं संभल गया हूँ।
“चलो! दो लेंथ निकालो। तैरना सबसे श्रेष्ठ व्यायाम है।” सोफी पता नहीं कैसे बात बदल गई है।
“साथ साथ!” मैंने संक्षेप में आग्रह किया है। हम और साथ साथ जैसी संज्ञाएं शब्दों में मुख रित होती अच्छी लगी हैं। पल भर पहले का प्रेत इंसान में बदल गया है। सोफी से प्यार और लगाव बहुत बढ़ा लग रहा है। लंबा विस्तारों से बड़ा जल प्रवाह जैसे निर्मल और शीतल तथा गुणकारी बन गया हो।
“चलो!” कहकर सोफी और मैं दो बार नदी पार कर गए हैं।
थक कर नदी की पार पर बैठे हम दोनों हाथ में हाथ थामे हैं। सुघड़ सा शुभ प्रभात सामने खड़ा जम्हाई ले रहा है। चलते फिरते लोग साफ नजर आ रहे हैं। मेरा शरीर कोई नई रचना लगा है जिसे मैं अलसुबह के इस पवित्र पल में पा गया हूँ। सोफी मुसकुरा रही है।
“चलो! अब चाय बनाएंगे!” उसने आग्रह किया है।
“ना!” मैंने प्रतिरोध उठाया है महज मजा लेने की गरज से।
“कॉफी ..?” उसने दोबारा पूछा है क्योंकि वो मेरी पसंद जानती है।
“तुम बनाओगी और हम पीएंगे!” मैंने शाश्वत स्वर में एक अमर घोषणा की हो और जिसकी जड़ें सनातन में फैल गई हों और अब हम अवश्य टिके रहेंगे – उम्र भर!
मेजर कृपाल वर्मा रिटायर्ड