“यहीं ऑफिस के पास मैंने छोटा सा ठिकाना बना लिया है।”
“बहुत मोहक जगह है!” सोफी ने पहली बार प्रशंसा की है। मैं त्राहि-त्राहि मन से उसे सराहना चाहता हूँ। पर ऐसा नहीं कर पाया हूँ। अब भी मेरी प्रतिक्रिया किसी अदृश्य नियम के तहत हुक्म देती रहती है।
“ऊपर से और भी मोहक लगता है।” मैंने अपना ज्ञान दर्शाया है।
हम दोनों खटपट-खटपट सीढ़ियां चढ़ रहे हैं। ऊपर चंदन ने दरवाजा खोल कर आदाब बजाया है। अंदर जाकर सोफी ने आंखें पसार कर मेरे ऑफिस का अवलोकन किया है। अब सब कुछ मॉडर्न है, सब बदल गया है और हर बात नई है। सोफी की आंखों में भरा कौतूहल मैं ताड़ गया हूँ।
“अंदर का बेडरूम नहीं देखोगी?” मैंने सुझाव रक्खा है।
“हूँ-हूँ! क्यों नहीं?” सोफी कही दूर से चलकर लौटी है।
मैं उसे अंदर बेडरूम में ले गया हूँ। वह दीवार पर सामने लगी एक न्यूड को देखती रही है। मैं उस न्यूड के सर को कई बार प्यार कर
फेंक चुका हूँ और सोफी के चेहरे को उसपर जोड़ने का कितना प्रयत्न किया है – मैं ही जानता हूँ। आज जब सोफी सामने है तो शर्मा गया हूँ।
“किसी ने भेंट दी है? बहुत अच्छी है!” सोफी ने बिना मेरी ओर देखे कहा है।
“आधुनिक कला में जो मन की गहराइयां उभर आती हैं अजेय लगती हैं।”
“लगती होंगी!” वही पहले जैसी स्थिति पैदा हो गई है। सोफी गंभीर है।
“ये लगी बाटिक देख रही हो? सोनी-महीवाल ये दो प्रेमी थे!”
“फिर तो कभी मिल ही नहीं पाए होंगे?” निश्वास छोड़ कर पूछा है सोफी ने।
मैं उसकी निराशा के छोरों को छूता रहा हूँ। उसे कोई दुख अंदर ही अंदर घोलायित किए दे रहा है। शायद कुछ क्षारीय विस्तार उसके प्रेम लता गाछों को सुखाए दे रहे हैं।
“अब तो मिल रहे हैं!” कह कर मैंने सोफी के हाथ का स्पर्श किया है।
सोफी ने मुझे आंखों में घूरा है। लगा है दो पैने शूल उसने मेरी पुतलियों में घोंप दिए हैं। किसी दाह की चमक मुझे जला गई है। सोफी आहत हुई मुझे पूछ रही है। मैं कोई भी गरमाहट या आद्रता पैदा नहीं कर पा रहा हूँ। सोफी ना जाने किस बियाबान में खड़ी-खड़ी तड़प रही है।
“ये गद्दे देख रही हो?”
“हां-हां!”
“अमेरिका से अनु ने ही भेजे थे!” मैंने हंसने का प्रयत्न किया है। “और ये बैड शीट भी। कितनी अच्छी दिख रही हैं!” मैंने सोफी का ध्यान जोड़ने का प्रयत्न किया है।
“हार गई हूँ!” सोफी ने बहुत धीमे स्वर में कहा है।
सोफी के मन की मांग पर मैं भी जैसे हार कर बैठ जाना चाहता हूँ। दो थके हारे साथ-साथ बैठ जाएं तो शायद साथ हो जाए?
“आराम कर लो!” मैंने बिस्तर की ओर संकेत किया है।
मैं इंतजार के पल गिनता रहा हूँ। दीवार पर टंगी न्यूड को देखता रहा हूँ। सोफी के चेहरे को काट रहा हूँ। कपड़ों को उतार रहा हूँ। गद्दे की उछांट, बैड शीट में पड़ी लाखों सलवटें, रोंदा पिचका तकिया और .. बाथरूम का खुला फव्वारा – बहता पानी सभी याद आते रहे हैं। सोनी-महिवाल की बाटिक मुझे चिढ़ाती रही है। प्यार के अर्थ-भेद समझाती रही है और अपने त्याग तथा यातनाएं बता कर जताती रही है – ये खेल ही खतरनाक है! मुझे आज भी उस हादसे का इंतजार है जो बांग देगा – जागते रहो।
“चलें, बाहर चलें?” सोफी ने आग्रह किया है।
चुपचाप मैंने पर्दा उठाया है। हम बाहर आए हैं। शीतल बैठी-बैठी हम पर हंस रही है। शायद चंदन सिंह ने इसे रोका न होगा!
“कब आए?” शीतल ने इस तरह पूछा है जिस तरह कोई इंतजार में सूख गई बिरहन पूछे।
“बस अभी! इनसे मिलो – सोफी और सोफी ये शीतल जी हैं!” मैंने बहुत ही शिष्टता के साथ उनका परिचय कराया है।
शीतल सोफी को ऊपर से नीचे तक घूरती रही है। उसके अंदर विद्रोही भाव काले बादलों की तरह घनी भूत होते लगे हैं। जो जलन, जो आक्रोश शीतल झेल रही है मैं अनुमान लगाता रहा हूँ। उसने मुझसे ही पूछा है – इंपोर्टिड माल है?
कितना बेधक प्रश्न है। शीतल अपने मन की सारी घृणा इसमें जोड़ कर इसे और भी घृणित बना गई है। माल शब्द का प्रयोग यों मैं कॉलेज के दिनों में आम करता रहा था पर आज ये मुझे खल गया है। ये माल शब्द सोफी के संदर्भ में ही क्यों खला है – मैं जानना चाह रहा हूँ। एक कष्टप्रद चुप्पी झेल कर ही क्रोध पी गया हूँ। सोफी शीतल को देखकर घबराई नहीं है और न उसने मुझे किसी शक को सोंपा है!
“सुना है केंप में तो खुला काम था?” शीतल ने और भी विष उगला है।
सामने बहती पवित्र गंगा जैसी जो अभी-अभी शीतल लग रही थी – अब खौलने लगी है। पानी का रंग विष के घोल से लाल-लाल हो गया है। मेरा बदन झुलस रहा है, मन जल रहा है और जो आदर्श, जो उच्च विचार और मानव कल्याण की घुंडियां मैं केंप से लाया था सभी ध्वस्त होती जा रही हैं। लगा है मैं संसार में वापस आ गया हूँ। इन दाह दुखों से फिर आ जुड़ा हूँ और अब इन्हें जीने के सिवा और कोई विकल्प नहीं है।
“सब कुछ खुला था!” कह कर मैं तनिक हंस गया हूँ।
सोफी मेरे कंधे पर तनिक झुक आई है। लगा है मैं असलियत की कायरता पार कर गया हूँ और स्त्री के मोह जाल जैसे बंधन पैरों तले कुचल गया हूँ!
“खुल कर जिया होगा?” शीतल हार नहीं मान रही है।
“हां!”
“इन्होंने भी?” शीतल ने गहरी चोट मारी है।
मैंने सोफी को आंखों में घूरा है। जैसे इस सवाल का उत्तर उन आंखों में भरा हो। हम दोनों जो जी गए हैं – उसे जानते हैं। वही बात कह कर सोफी ने मुझे संयम बरतने को कहा है।
“सभी ने जीया था!” मैं बात गोल कर गया हूँ।
“आप क्यों नहीं आईं?” सोफी ने शीतल से पूछा है।
हम दोनों निपट अकेली शीतल को चक्करों में डाल कर बात भुलाने का प्रयत्न कर रहे हैं।
“इन्होंने बुलाया कब था?” शीतल ने शिकायत की है और मेरे समीप खिसक आई है। इस तरह का नाटकीय पन महज ये जाहिर करने के लिए किया है कि मैं और शीतल काफी कुछ जीते रहे हैं।
“ड्रिंक बनाऊँ?” शीतल पूछ बैठी है और बिना उत्तर का इंतजार किए ड्रिंक बनाने चली है।
सोफी शीतल की जानकारी पर तनिक अटकी है और फिर जैसे एक छोटी कठिनाई पार करके मेरी ओट में आ बैठी है।
मेजर कृपाल वर्मा रिटायर्ड