सुबह अथक सूरज को देख मैंने भी अपनी थकी टूटी सी हिम्मत बटोरी है और अपनी दिनचर्या पूरी करने को तैयार हुआ हूँ। पता नहीं कुछ अधकचरा सा एक बैर भाव मन में सिमिटता चला आ रहा है। कोई मेरे अंदर से ही कहे जा रहा है – हथियार उठाओ दलीप बुराई को बुराई कुचलती है। लेकिन सवाल ये है कि अगर मैं लड़ूं भी, अगर तलवार खींचूं भी तो किसका सर काटूंगा? अन्यमनस्क मैं मन ही मन कोई प्रार्थना जैसी गुनगुनाने लगा हूँ। किसी चमत्कार के घटित हो जाने की बात दोहराए जा रहा हूँ ताकि मेरी मानव लाचारी को किसी अज्ञात उपादेयता की परिणति का स्वरूप मिल जाए!
मैं सिटपिटाया सा डांगरी पहने बाहर निकला हूँ। मुझे अब भी डर लग रहा है और इस अथाह डर के सागर में मैं मुक्ति के तृणवत सहारे खोजता रहा हूँ। पैर बजाए आगे बढ़ने के बहकते लग रहे हैं और मैं अपने ही अंदर एक अविश्वास बोध भरता जा रहा हूँ।
“समाज का दुश्मन – हाय-हाय! रंगा गीदड़ – हाय-हाय!”
नारे धधकती आग जैसे मुझ पर बरसते लगे हैं। मारे लज्जा के मेरा बदन फुकता लग रहा है।
“अरे, माल पर तो इसकी नजर कभी की पड़ चुकी थी।” मैं लोगों के संवाद सुन रहा हूँ। “है तो शिकारी और हलाल करके खाता है।” भीड़ में से किसी ने कहा है। “आइडिया तो देखो! सजी संवरी दुल्हन तड़ा ले गया भाई! सोचो! क्या हनीमून मनाया होगा?”
“इन सालों के आइडिए बड़े ग्रांड होते हैं, यार। मछली की तरह छटपटाती छोकरी और उसे दुम से पकड़ कर औंधा लटकाता मछुआरा और एक मदहोश सी शराब में डूबी रात – क्या तगड़ा रोमांस लगता है रे?”
“वैसे आज की दुल्हनों में धरा भी क्या होता है यार?”
“बे साले हुड़क तो बुझ जाती है!” कह कर भीड़ में घिल्लमिल्ल ये बतियाते पात्र अट्टहास की हंसी हंसे हैं।
आज सारा संसार मुझ पर हंसता लग रहा है। बिना किसी खोट कसूर के मैं किसी अबूझे कुकर्म का कातिल सा लग रहा हूँ। मेरे अंदर भी समान प्रतिक्रियाएं जन्म लेती जा रही हैं – जो उठा ले गया उसने सुलोचना के साथ क्या सुलूक किया होगा? क्या उसका सत डिग गया होगा? क्या वो किन्हीं दो चार दरिंदों के सामने छटपटाती मछली का अभिनय कर पाई होगी? क्या दुल्हन के लिबास को चीर फाड़ कर वो लोग उसके अछूते अंगों तक पहुंच गए होंगे? क्या किसी ने नहीं बचाया होगा? दया या सहृदयता सो गई होगी? वही मूक प्रार्थना करता हूँ मैं। आगे बढ़ने का दुस्साहस करने लगा हूँ। सोच रहा हूँ – बुराई के सामने लड़ती अच्छाई को रुकना नहीं चाहिए वरना बुराइयां तूल पा जाएंगी। मेरा यूं चला आना किसी युद्ध घोषणा से कम नहीं। आघात झेलना – बोलियों के चुभते आघात और उन्हें सीने में दफ्न कर पचा जाना – तीर चलाने से ज्यादा जघन्य कार्य लगता है। मैं लौटूंगा .. सब झेलूंगा – एक संकल्प को दोहराया है मैंने।
मैंने लेवल रूम को कनखियों से देखा है। गोपाल की एवजी में कोई और काम पर आया है। मुझे ये लेवल रूम आज कोई मरघट तुल्य लग रहा है जो एक लाश सटक गया है और अब दूसरी इसके चंगुल में और आ फंसी है। मैं सीधा प्रोडक्शन में जाने को हुआ हूँ तो तभी मुक्ति ने मुझे घेरा है।
“गुड मॉर्निंग सर!”
“गुड मॉर्निंग!” मैंने थकी मांदी आवाज में ही जवाब दिया है।
“सर! राना ऑफिस में बैठा है।”
“तो ..?”
“आप चले जाएं तो ..”
मुक्ति ने एक आग्रह औंधे मुंह लटका कर सामने बिलखता छोड़ दिया है। राना – काइयां, चालाक और सरकास्टिक रिमार्क पास करता मुझे चोरों के महकमे से जुड़ा कोई जासूस लगा है जिसे आत्मरक्षा, स्वार्थ सिद्धि और लालच किसी लोक रक्षा या जनता की हिफाजत से ज्यादा आगे है। मन में आया है कि मुक्ति को वी के लिए फोन करने को कह दूं पर हिम्मत नहीं पड़ी है। मेरा अपना अहंकार फिर मुझे निहत्था लड़ने को कह गया है। मैं मुड़ा हूँ और ऑफिस में आ धमका हूँ।
“हैलो राना!”
“हैलो मिस्टर दलीप!” राना ने स्निग्ध दांतों की कगार हंस के मुझे दिखाई है।
“कैसे आना हुआ?”
“पुलिस का काम ही भोंड़ा है! सच कहता हूँ मैं तो ..”
“और कोई केस हो गया क्या?” मैंने इस तरह पूछा है जिस तरह घटे हादसे से मैं नावाकिफ होऊं।
“सर इससे बड़ा जुर्म और क्या होगा? किसी की बेटी पर हाथ डालना .. और वो भी जबकि वो दुल्हन बनी हो! सच कहता हूँ सर ये जमाना शरीफों का नहीं रहा।”
“पर पुलिस का तो है? खूब केस मिलते हैं और ..”
“कहां सर! अब तो धंधा ही चौपट हो गया है। और खासकर इस मीसा और आपात स्थिति की घोषणा से तो कमर ही टूट गई है।”
“क्यों?”
“अब क्या बताऊं। यों समझिए फिलहाल लंबे ट्रांस्फर, पचासों लफड़े और कोई सौ एक कंबल दरी मेरी जान को बंधे हैं। पेमेंट न हुई तो मैं साला खच्चर हुआ!”
“लेकिन कानून ..?”
“छोडिए जनाब कानून का तो बहाना है। कानून को कोई पूछता नहीं। अरे, स्याह का सफेद करने में वकील को क्या लगता है? कानून तो अंधा है – उल्लू की तरह!”
“पर आप लोग तो?”
“कानून की हिफाजत के लिए हैं – मैं यह मानता हूँ! पर पहले अपनी हिफाजत – बुरा मत मानिए सर मैं तनिक खुला आदमी हूँ। अपने भी तो बाल बच्चे हैं। ये कानून खा कर तो बड़े नहीं हो सकते? और तन्खा तो बस गिने गिनाए दमड़े मिलते हैं फिर चाहे घास खाओ या अनाज!”
मेजर कृपाल वर्मा रिटायर्ड