“अरे भइया! वही तो काम हो रहा है। खिलाफत वालों को लिस्ट बना कर बीन रहा है। कसम से भइया .. कसम से अपुन तो मर गए!”

“ऐ! मेरा काम ..?” मैंने दोनों की सामर्थ्य को ललकारा है।

“तेरा काम .. माने तेरा केस! भइया! तुझे तो और फांसेगा। देख लेना – खून का प्यासा हो गया है भइया!”

“बक मत! साला डरपोक!” मैंने पुराने दादागीरी के पैंतरे बदल कर कहा है।

यों किसी डरते आदमी को ललकार कर डरपोक बनाने से अपना अहम अधिक लगा है और एक लड़ने की उचंग सी मन में भरने लगती है। ठीक उसी तरह मैं भट्ठे वाला और जकारिया को पीछे धकेल आगे बढ़ जाना चाहता हूँ।

“अच्छा! पता हो तो बक दे!” मैंने जकारिया के कमीज का कॉलर पकड़ कर हिलाया है।

“फिलहाल लाल के साथ मिलेगा!”

“कहां?”

“राजहंस में कैबरे देख रहा है।” जकारिया मानो नवीन के हर कदम से वाकिफ है – तपाक से कह गया है।

“तो हम चले!” कह कर मैं भागा हूँ ताकि नवीन को पकड़ लूँ।

मैं आगे बढ़ रहा हूँ पर मेरा सहम, मेरा अपना अविश्वास और लोगों के कहे सवाल ये सिद्ध करते रहे हैं कि काम नहीं बनेगा! एक और बात आज जुड़ी सी लग रही है मुझमें – अविश्वास और शंका के सम्मुख आगे बढ़ता मैं नवीन से मिल कर खुल्लमखुल्ला दोस्ती पर दुश्मनी का इजहार चाहता हूँ। अब मैं अपनी अगली नाकामयाबी से डर नहीं रहा हूँ। सोच रहा हूँ – नवीन ज्यादा से ज्यादा ना कर देगा। बस हद रही ..!

राजहंस में मैं आज एक महान अंतराल के बाद चल कर आया हूँ। कोई पुराना नया होता लगा है – लमहों में नितांत पुरातन लगने वाला अतीत सामने रंगबिरंगे सपनों में थिरकने लगा है। अंदर से मदहोश करती ऑरकेस्ट्रा की धुन अपनी ओर खींच रही है। मैं अपनी सुधबुध भुलाता लगा हूँ। जी आया है – अपने संकट राज हंस के दरवाजे पर खड़े दरबान को सुपुर्द कर दूं और अंदर के अपार सुख सागर में नंगा धड़ंगा जा कूदूं। लाज शरम उतार फेंकूं और भूल जाऊं कि मेरा भी कोई व्यक्तित्व है। कुछ और है लेकिन चाह कर भी आज कदम बहके नहीं हैं। एक अत्यंत शुभ्र मुकुट सी शराफत मुझसे कहती है – नाओ बिहेव!

मैंने नवीन को तलाश लिया है। उसका माल भी उससे चिपका बैठा है। मैं बिना इस माल की परवाह किए आगे बढ़ा हूँ। मैनेजर ने मुझे पहचान लिया है। दौड़ा-दौड़ा मेरी मदद करने चला आया है। इससे पहले कि मैं नवीन के टेबुल पर पहुंचूं उसने एक फालतू कुर्सी मेरे लिए रखवा दी है। इस अलग प्रतिक्रिया से नवीन चौंका है।

हमारी नजरें मिल गई हैं।

एक लमहे में जो नजरों ने कहा उसका अर्थ लगाना दूभर हो गया है। पर मैं बिना किसी हिचकिचाहट के कुर्सी पर जाकर बैठ गया हूँ। एक बहुत ही आत्मीय ढंग में हाथ पेश करके मैंने कहा है – मिलाओ हाथ! पकड़ लिया ना?

“पकड़ने में माहिर जो ठहरे?” नवीन ने छुटते ही डंक मारा है।

हमारे हाथ इस तरह मिले हैं जिस तरह दो चिर परिचित व्यक्ति एक दूसरे को भुलाने के प्रयत्न में विगत को दुत्कारें। नवीन की आंखों में अजीब से विजयी भाव भरे हैं जो मुझमें कोई पराजय जैसी भावना रिताते लगे हैं। नवीन का चेहरा बहुत खिला-खिला लग रहा है। मैं भी कोई महान परिवर्तन नवीन में खोज निकालने को हुआ हूँ कि अचानक मुझे एहसास हुआ है – नवीन जीता है, संसद सदस्य बन गया है, और अब कौन जाने ..? हां! इंसान की माया कौन जाने ..

“बाई द वे! कांग्रेट्स ..” मैंने नवीन के शुष्क हाथ को तनिक दबा कर एक आत्मीयता निचोड़ने का विफल प्रयत्न किया है।

“थैंक्स!” कह कर नवीन मुझसे कट गया है।

विजय प्राप्त कर जो नरमी नवीन में आनी चाहिए थी उसका कदाचित अभाव मुझे खल रहा है। पद का मान, धन का मान और औरत की हवस कहते हैं – आदमी को ले डूबती है। अगर नवीन तनिक सा विनम्र हो जाए, उन्हीं गर्म नर्म बातों की परिधि में जुट जाए – जिनसे वो लोगों को अब तक बहकाता रहा है, तो .. शायद रीच बढ़ जाए! लेकिन अब वो क्या बनेगा?

“ओह हैलो!” मैंने चौंक कर नवीन के माल को संबोधित किया है।

माल के रूप में यों शीतल को उभरते देखा है तो चौंका हूँ। वैसे तो कोई नई बात नहीं पर शीतल और नवीन मेरे खिलाफ कोई साजिश करते दो चोर लग रहे हैं।

“हैलो ..!” शीतल ने औपचारिक ढंग से जवाब दिया है।

जो शर्म के भाव शीतल के चेहरे पर पुत जाने चाहिए थे वो नहीं उभरे हैं। उसके हुस्न का तिलिस्म शायद राज हंस में जमा भीड़ पर छाया मोहिनी सा कमाल करता लगा है। होंठों पर गहरी लाल लिपिस्टिक का रचाव मेरी आंखों में चुभ गया है। उसके बदन से उठती सेंट की खुशबू मुझे बेहद बासी लगने लगी है। मेरी आंखें जैसे राज हंस की दीवारें देख कर बाहर किसी अंतहीन यात्रा पर नजरें टिका अंधी हो गई हैं। पता नहीं क्यों शीतल आज मन में कोई उथल-पुथल पैदा नहीं कर पाई है।

“श्याम कैसा है?” महज नवीन और शीतल को जलील करने की गरज से मैंने श्याम नाम का उच्चारण इस प्रकार किया है जैसे ये कोई उच्चाटन मंत्र हो।

“ही इज ओके!” शीतल ने इस तरह छटपटा कर जवाब दिया है मानो ईंट खाई नागिन टूट-टूट कर गोल कुंडली मार बैठ गई हो।

पल भर के लिए मैं कल्पनातीत शीतल और श्याम को पति पत्नी के संदर्भों में जोड़ कर सोचता रहा हूँ – कितने उतप्त चुंबनों के मध्य ये दोनों कहते होंगे – आई लव यू! एक दूसरे के ख्वाबों में कैद कसम खाते होंगे – अब न बिछुड़ेंगे हम। कोई मासूमियत बखेर शीतल सती के अभिनय में खरी उतर जाती होगी .. और अपने सौंदर्य के मिथ्या विस्तारों में श्याम को भटकने के लिए अकेला छोड़ खुद यारों की हो जाती होगी। वही दांपत्य जीवन का सबल बंधन तुड़-मुड़ कर हर रोज गांठ-गठीला हो जाता होगा और फिर देहली आती शीतल किसी को उठाती तो किसी को ढाती शीतल श्याम के लिए एक चुनौती नहीं तो और क्या है?

मेजर कृपाल वर्मा रिटायर्ड

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