वातावरण में एक अजीव आह्लाद भर गया है। औरतें भिन्न-भिन्न स्वरों में कोई सामूल सा गीत गाती जा रही हैं जिसका अर्थ लगाना मेरी बिसात के बाहर लगा है। ढोलक की गुमक अवश्य मन में एक गुम्माटा सा उठा रही है। पता नहीं क्यों ये गुमक हमेशा से मुझे अपने हृदय की धड़कन के बहुत समीप लगती है। नाड़ी की धड़कन सी लगती है जो हमेशा-हमेशा जीवन के प्रवाह की गारंटी देती रहती है।
खाने से पहले भामर पड़ेंगी – ये बात जग जाहिर हो चुकी है। लोग दूल्हा को अंदर ले जा कर रस्म अदा करने लगे हैं। मैं और मुक्ति बाहर सोफे पर जमे बैठे रहे हैं। बारी-बारी लोग आ आकर हमसे बतिया जाते हैं, शर्बत पिला जाते हैं, और पान तथा सिगरेट दिखाने के लिए भी कह जाते हैं। कई बार नाई फिर गया है। अंदर से पंडित जी के मंत्रोच्चार का शब्दजाल जो अति प्रिय लग रहा है – आ रहा है। हालांकि इनका मतलब समझना मेरे बूते की बात नहीं है फिर भी ..
“लड़की नहीं है!” किसी ने पहाड़ जैसा विकट संकट एकाएक ढा दिया है। “ढूंढ रहे हैं। शायद कहीं ..” शंका ने वातावरण भर दिया है।
मैंने मुक्ति की ओर ताका है। मुक्ति तनिक अंदर से टूटा सा लगा है – जैसे मेरी की मूर्खता पर खिन्न हो।
“कहते हैं यार के साथ भाग गई है। लव था।” भीड़ में से किसी ने दुर्गंध युक्त कीचड़ जैसे सभी के चेहरों पर लपेट दिया है।
“मेरी सुध लो .. सरकार! देवी की ..” गोपाल पछाड़ खा कर आ गिरा है।
मैं एकटक हुए कांड को संयत हो कर देखता रहा हूँ। मन एक अजीब सी हिकारत से भरता आ रहा है। गोपाल का विलाप और बेइज्जती मेरा गला दबाए दे रहे हैं। खांस कर मैंने खखार को सटका है। मुक्ति कहीं दूर निगाहें गढ़ाए कुछ परखता लगा है।
“हाय रे, मेरी .. बेटी ..! हाय रे मेरी आबरू लुट गई, सरकार! लाज लुट गई मेरी .. लज्जा .. गई!” गोपाल के करुण क्रंदन ने मेरे अंदर भूचाल सी कोई उथल-पुथल भर दी है।
घर के अंदर कोहराम मच गया है। बारातियों के हुलिए बदल गए हैं। भय और चिंता से सारा वातावरण गमगीन लगने लगा है। मैं एक बार फिर अपने आप को दोषी मानने लगा हूँ। चेहरे पर कालिख पुत गई लगी है। मेरा अहम आज घुटने टिका कर बैठ गया है। मैं कोई औचित्य नहीं सोच पा रहा हूँ जिसके सहारे गोपाल को उसके गमों से उबार लूँ।
“सब ठीक हो जाएगा भइया, धीरज रक्खो!” कुछ एक ने गोपाल को झूठी दिलासा दी है।
“अरे अब का होगा .. भइया अब मेरा तो लुट गया सब!”
गोपाल की घरवाली अंदर से दौड़ी चली आई है और मेरे पैरों पर गिर कर बिलखने लगी है।
“बाबू जी ऐसा मत करो! अन्याय मत करो! गरीब की आह है! मेरी सत्तो का सत् डिग जाएगा! कहां है मेरी सत्तो?” डकरा-डकरा कर वो झबरी सी औरत मुझ पर ये तहमत लगाती रही है।
भीड़ की आंखों का रुख बदलता लगा है। मैं किसी अंधेरी खाई में कूदता फांदता कुछ भी खोजने में असमर्थ लग रहा हूँ। मैं कोई असहाय सी टुच्ची संरचना बन गया हूँ जो असमर्थता से आगे कुछ भी नहीं है। मुक्ति ने खड़े हो कर गला साफ करते हुए कहा है – शराफत चुक गई है और अब हम भी नहीं चूकेंगे। अगर यहां के गुंडों को अपनी गुंडई पर गुरूर है तो हमें भी अपनी इंसानियत की कसम है कि हम बदला उतार कर दम लेंगे! सुलोचना का पता हम खोज कर ही रहेंगे – ये हमारा वायदा है। कह कर मुक्तिबोध ने मुझे टहोक कर उठा लिया है।
मैं जैसे किसी सुषुप्त अवस्था से चेतन में बदला हूँ। टुकुर-टुकुर मुक्ति के मुंह की ओर ताकता रहा हूँ।
“चलो सर, आओ!” मुक्ति ने रोष में मुझे बांह पकड़ कर घसीटा है।
मैं मुक्ति का मुजरिम जैसा महसूस कर रहा हूँ। कितना समझाया था उसने पर मैंने एक न मानी! लोगों की बदलती निगाहों के मात्र भान से मैं कांपने लगा हूँ। अच्छाइयां और बुराइयां दोनों बहिनें लगी हैं मुझे – जिनका जन्म एक ही पेट से होता है और जो एक के रूप में दूसरी प्रकट होती रहती है। कोई अच्छाई करने निकलता है तो बुराई करके वापस चला आता है और ये दोनों अच्छाई बुराई खिलखिला कर हंसती रहती हैं। ठिठोली करती रहती हैं – धोखा देकर फांसती रहती हैं और एक नया नशा पिला कर मदहोश बनाती रहती हैं।
“अब क्या होगा मुक्ति?” मैंने निश्वास छोड़ कर पूछा है।
“रिलैक्स, सर! मैं सब संभाल लूंगा!” मुक्ति ने मुझे संभाल लिया है।
मन में आया है कि अकेला ही अंधेरे में जा कर कहीं से सुलोचना को खोज लाऊं और उस हरामखोर को जिसका इसमें हाथ है, हंटरों से मार-मार कर सबके सामने जलील करूं और कहूं – ये है साला समाज और इंसानियत का दुश्मन। लेकिन अंधेरे में विलीन होती परछाइयां रूप और आकार खो बैठती हैं। शायद मैं भी अंधेरे में विलीन हो कर अपने आप तक को न पहचान पाऊं? अंधेरा तो अंधेरा है। इसका न कोई छोर न कोई अंत। बुराई भी मुझे ठीक काले अंधेरे जैसी लगी है जिसका भी कोई अंत नहीं। अपाहज सा मैं अंधेरे से डरा छटपटा रहा हूँ। फिर लगा है कि मैं नितांत अकेला हूँ, असहाय हूँ और बेहद लाचार – गोपाल की तरह।
मेजर कृपाल वर्मा रिटायर्ड