“अब क्यों नहीं जाता बे?”
“पहले ट्रिप की विस्तार सहित व्याख्या हो जाए!” मैंने मांग की है।
“देख बे ..” श्याम चुप हो गया है। एक नई नजर से उसने मुझे देखा है। “तू कहीं कोई खुफिया या कि कोई ..?” सशंक भाव लिए श्याम मुझे अब भी नाप रहा है।
“खुफिया तो मैं हूँ लेकिन पुलिस वाला नहीं। अब चल बक ..”
“ये एक नशा है। ये देख – ये है एल एस डी का कैपसूल। अंदर निगलते ही सारे संकट दूर हो जाते हैं। एक ऐसी अविस्मरणीय यात्रा आरम्भ होती है जिसे करने के बाद बार बार दिल चाहता है ..”
“तो यह तो मन की कमजोरी हुई?” मैंने श्याम को टोका है।
“ठीक परखा तूने। मन की कमजोरी तो हुई। जो मन हार जाए, जिसका मन जुआ डाल कर बैठ जाए, जिसे असफलता मिले, जो जिंदगी से जूझ कर चुक जाए और फिर भी उसकी इच्छा न मरे तो उस प्रबल इच्छा या महत्वाकांक्षा को पूरी करने का सरलीकृत कायदा है – एल एस डी!”
“बहुत अच्छे! पर बता – क्या तू भी हारों की कतार में मिल गया है?”
“मिल भी गया हूँ और नहीं भी।”
“वो कैसे?”
“देख! मैं हार गया था। और जब मैंने अपने गिर्द निगाहें पसार कर देखा तो लगा – हम सभी हार गए हैं, हम सभी विफल हुए हैं और हम सभी बिक गए हैं। बस यहीं मैं ये गेम जीत गया।”
“नहीं समझा!”
“तो स्पष्ट में सुन – इन सब की विफलता अब मेरी सफलता बन गई है।”
“यानी किनारे पर खड़ा होकर धक्का मारने की दलाली?”
“संक्षेप में यही मान ले।” कह कर श्याम एक बुरी सी बात को पी गया है।
श्याम हंस नहीं पाया है। लगा है – जो भी वह कर रहा है उसके द्वंद्व में उसकी आत्मा क्षत-विक्षत होकर अलग बैठ गई है। वह अपने आप से इन संघर्षों में जूझा है। तिपाई से गिरे शीशे के गिलास की तरह उसका मन तो अभी भी नहीं चटका है। अभी भी कोई अच्छाई शेष है जो उसे साधे है।
“अच्छा सुनो! मुझे भी एक धक्का मार दो?” मैंने आग्रह किया है।
अब श्याम ने मुड़ कर मुझे ऊपर से नीचे तक देखा है। शायद मेरे शरीर पर चिपकी किसी विफलता की तलाश में उसकी निगाहें एक लमहे के लिए मुझ पर ठहरी रही हैं। अंदर बाहर कहीं भी किसी मलिन भावना को वह कैद कर लेना चाहता है।
हमारे बीच की चुप्पी बाहर से आए शोर के साथ घुल मिल कर झूम उठी है। सारा वातावरण भी एक मस्ती में झूम उठना चाहता है। कुछ क्षण पहले की तीखी दुर्गंध को मेरे नथने अब सह गए हैं। श्याम की घबराहट भी अब आधी रह गई है। वह तुनका है और गरजा है – नहीं बे! मैं तेरे साथ ..!
“क्यों नहीं बे? मैं यहां एक कस्टमर की हैसियत से आया हूँ।”
“क्या क्या हार कर आए हो? पैसा, जोरू, घर मकान या फिर ईमान धर्म?”
“ये सब तो नहीं श्याम पर मेरे मन मैं चैन नहीं है रे ..”
“यानी असंतोष तुझे खा रहा है और तू ..”
“हां! मैं कुछ भी खाकर इसे जीत लेना चाहता हूँ।”
“तो सुनो दोस्त! तुम गलत स्टार्ट लाइन पर खड़े हो!”
“तो गोली तो दाग दे! फिर देख लेंगे! पहली बार गलती तो होती ही है।”
श्याम मुझे फिर से घूर रहा है। ये भी मेरी पुरानी आदत है जो उसकी पकड़ में आ गई है। मैं गलती करने में कभी नहीं चूकता। इसका एक ही कारण है कि मैं जानता हूं कि गलती को सुधारने की क्षमता मुझमें हमेशा हमेशा से विद्यमान है। इससे मुझे आत्मविश्वास मिलता है। इसमें मुझे उत्साह भी मिलता है और हर बार एक पिटे आदमी का आश्वासन मुझसे कह जाता है – जी तो तेरी ही होगी दलीप।
इसी हार जीत में लिपटा मैं एक रंगबिरंगा कैपसूल निगल गया हूँ। एक दम तो कुछ नहीं बदला पर बदलाव देखने की इच्छा तीव्र हो गई है। झटपट मैं उन चीखते चिल्लाते युवक और युवतियों में मिल जाना चाहता हूँ जिनमें किसी सामान्य आदमी का टिकना असंभव है।
अब दृश्य बदली हो गया है। इन सभी के अंदर से फूटते खुशी के उद्गार मुझमें भरने लगे हैं। न जाने कितने बंधन मुझसे लिपटे थे और सांपों की तरह मेरे शरीर पर रेंग रेंग कर उतर रहे हैं और फिर कही दूर चले जा रहे हैं किसी दूसरे चंदन के पेड़ की तलाश में। सहसा मुझे लगा है कि मैं अब चंदन नहीं रहा हूँ। मेरी बास सुबास सभी कहीं अंतर्ध्यान हो गई हैं। मेरे मन का हर रीता कोना किसी अपरिचित सी खुशी से भरने लगा है। सर एकदम हल्का हल्का किसी अथाह समुद्र की उत्तुंग लहरों पर उतरने लगा है। शरीर भी भार रहित लग रहा है। सभी समस्याएं हल्के फुलके झागों सी हो गई हैं। इरादे कपास कपास से बन कर छोटे छोटे बादलों के कतरों में विभक्त हो गए हैं। अब ये मेरे गिर्द मंडराने लगे हैं। इनका तो आकार भी बढ़ने लगा है। साथ साथ ही हिम्मत इनके बीच से बिजली बन कर कौंधी है। यही चमक मेरे होंठों पर हंसी बन कर थिरकने लगी है। अब मेरे मन के कपाट किसी सपाट सड़क की ओर खुलकर इंगित कर रहे हैं .. तो मैं खुल कर हंस पड़ा हूँ। ये एक मुक्त हंसी है जिसे न कोई रोक पाएगा ओर न कोई टोक पाएगा। ये हंसी तो अब मेरी पकड़ से भी बाहर की बात है। ये तो श्याम से उधार मांगी हंसी है।
“सुनो बे! सब के सब मेरी बात सुनो!” बहुत ही संयम रखने के बाद मैं कह पा रहा हूँ। अब भी मुझे अपनी समस्याएं याद हैं पर लग रहा है इनका हल उनके साथ बंधा है और पता नहीं कैसे वो सभी मेरी ओर फटी फटी आंखों से घूरने लगे हैं। मैं फिर से संभल कर बोला हूँ – तुम लोगों की मुसीबतजदा जिंदगी मैं भी तो जीता हूँ। और सुनो ..
मैं अब अपने आप को संभाल नहीं पा रहा हूँ। लग रहा है मैं अब हवा में उड़ूंगा अपने इरादों के साथ साथ भागूंगा, इच्छाओं से भी तेज ओर कल्पना से भी परे पहुँच कर आज अपनी महत्वाकांक्षा के छोर नाप लूंगा।
धरातल मुझे पैरों के नीचे बिछी एक सुखद चादर लगी है। मैं जब ऊपर से कटे पेड़ की तरह नीचे गिरा हूँ तो लगा है कि कई हजार डनलप के गद्दों ने मुझे ऊपर उछांट दिया है ओर मेरी देह को एक अविस्मरणीय सुख मिला है। वास्तव में तो मैं कितना थका था या कि मैं कितना दब गया था, घुट गया था और अब एक अपूर्व सुख मुझे थपकियां देकर सुला देना चाहता था। तो क्या ये सोने का वक्त है? नहीं नहीं! मैं तो संघर्ष में ही जीऊंगा – मैंने अपने आप से कहा है।
“लेकिन किसके लिए संघर्ष करोगे?”
“मैं तो संघर्ष करूंगा ..!”
“किसके लिए?”
“नहीं जी! मैं तो संघर्ष रत जीवन जीऊंगा!” मैं अब चीख रहा हूँ।
मेरे प्रश्न और उत्तर आपस में जुड़ नहीं पा रहे हैं। लेकिन मैं इनसे घबरा भी नहीं रहा हूँ। जो भी अधकचरे विचार मेरे दिमाग में पनप कर एक मवाद बन कर जम गये थे अब उबकाइयों के साथ बाहर निकल रहे हैं ..
“मैं .. संघर्ष .. संघर्ष .. मैं!”
मेजर कृपाल वर्मा