अब अकेला मैं इस विस्तार में बिफर जाना चाहता हूँ। इसकी सीमाएं बांध कर इस सूनी सी अराजकता को कुचल देना चाहता हूँ। इसमें जितनी भी कमियां हैं, सभी को दूर करके एक महत्वपूर्ण समाज की स्थापना करना चाहता हूँ। खोखली संज्ञाएं, रीति रिवाज, जात पात और धर्म के ढकोसले सभी मेरे हाथों परास्त होने लगे हैं। ये तो न जाने कब से पिटने के इंतजार में बैठे थे पर कुछ स्वार्थी और समाज द्रोहीयों के आश्रय पर टिके थे।

“जन समूह की अंतर्ध्यान शक्तियां लौटने लगी हैं। सृजनात्मक शक्तियां एक भावावेश के रूप में फूट पड़ी हैं। जैसे कोई बम फटने से भाखरा नंगल डैम का पानी एक साथ चल पड़ा हो – ऐसा लगता है। पहले तो इससे विनाश की आशंका से मैं डरा हूँ पर फिर इसका रुख मैंने विस्तारों की ओर मोड़ दिया है। सारा रेत भीगता जा रहा है, गरीबी गीला होती जा रही है, मनों के मैल, आपसी ईर्ष्या भाव, कलह और वैचारिक स्वार्थ सभी पानी की तरावट पा कर देश भक्ति, जन कल्याण, मानवीयता और स्वयं सेवी संस्थानों में परिवर्तित होते चले जा रहे हैं।

विस्तार की सीमाएं देखी हैं तो स्कूल में सीखे हिन्दुस्तान के नक्शे की याद हो आई है। ये तो बिलकुल हिन्दुस्तान है। ये तो मेरा अपना ही देश है। यह तो वही नक्शा है जिसे मैं आज भी दो मिनट से पहले पहले खींच डालूंगा और कोई भी कटाव भराव छूट न पाएगा। मैं एक बार फिर से इसकी सीमाएं देखने लगा हूँ और जांच रहा हूँ कि कुछ छूट तो नहीं गया। कोई वर्ग पिछड़ा तो नहीं रह गया। कोई जाति देश छोड़कर चली तो नहीं गई। इन सबका होना ही तो हिन्दुस्तान का होना है। संपूर्ण संज्ञा में इस राष्ट्र का सेक्यूलर होना ही विश्व कल्याण का प्रथम चरण है।

अचानक मेरे अश्वमेधी घोड़े का रुख हिन्दुस्तान लांघ कर सात समुंदर पार जाने का हुआ है। अब देश के बाद विश्व की समस्याएं मुझे बुला रही हैं। मेरी सामर्थ्य हारी नहीं है। विश्वास अटका नहीं है और न महत्वाकांक्षा ही मरी है। मेरी महान बनने की इच्छा टिक सी गई है। और शायद कुछ पूछना चाहती है।

“और कितना ऊंचा उठोगे?”

“इसकी कोई सीमा नहीं। उठाव तो मेरे लिए एक स्थाई भोजन जैसा है। ये एक ऐसी खुराक है जिसके बिना मेरा खुश रहना या जीते रहना दूभर हो जाता है।”

हिन्दुस्तान का वही नक्शा अब अकेला न रहकर विश्व के खाके का पूरक बन जाता है। विश्व के खाके में मैं अब कमियां ढूंढने में लगा हूँ। शायद अनुभव की जरूरत है क्यों कि अब तक हिन्दुस्तान से बाहर सोचने का मौका ही नहीं आया!

लंबे लंबे समुंदरों पर किसी ने पुल पाट दिए हैं। बीच के गहरे गहरे भेद भाव घावों की तरह भरने लगे हैं। वही भावावेश अब चारों ओर से उमड़ पड़ा है ओर बीच के सारे भेद भाव मिटाता चला जा रहा है। मानव प्रेम की यह लहर शायद पहली बार उमड़ी है और आपस के रंग रूप, भाषा और धर्म तथा ऊंच और नीच का अंतर तय करके बीच के फासले मिटा गई है। गले मिलोवल की एक नई प्रथा उदय हो जाती है ओर इसमें हर इंसान दूसरे इंसान से मिल जाता है, कुछ सीख जाता है, कुछ सिखा जाता है, कुछ ले जाता है तो कुछ दे जाता है। ये आदान प्रदान की प्रथा ही शायद सच्ची खोज थी और यही साधारण सी बात किसी बौद्धिक कसौटी पर पहले नहीं लगाई गई थी। हम सब एक ही रचना के अंग हैं, अधूरे हैं और अगर अकेले पड़ जाएं तो मिट जाएं और अगर मिल जाएं तो एक सुखद उमंग बन जाते हैं। ये एक शक्ति है जिसके सामने सभी समस्याएं तुच्छ पड़ जाती हैं। अपार सुख का अनुभव मुझे हो रहा है। मैं स्वतंत्रता से भ्रमण कर रहा हूँ क्यों कि अब मनुष्य को मनुष्य से डरने वाली बात मैंने खत्म कर दी है। अस्त्र शस्त्र जो आत्मघात के द्योतक थे अब प्रगति के प्रतीक लग रहे हैं क्योंकि इनके लक्ष्य अब धरातल पर से मिट गए हैं। किसी अलौकिक शत्रु के लिए हम सब एकता में बंध गए हैं और अपने इस संसार को सुरम्य बनाने के लिए कटिबद्ध हैं।

सुषुप्त अवस्था में मेरा मस्तिष्क अब इस अपार सुख संसार में डूब कर विश्राम करना चाहता है। नींद के थपेड़े मुझे अब किसी अज्ञात स्थान की ओर खींच रहे हैं। मैं भी अब भाग्य और भगवान के भरोसे सब कुछ छोड़ लंबा लेट गया हूँ। थका तो मैं नहीं हूँ पर संतुष्ट हुआ लग रहा हूँ। सच्चा सुख मेरे आसपास उगता चला जा रहा है।

न जाने कहां से मुझ में गहराइयां आ बैठी हैं और अब मैं गुमसुम यूं ही पड़ा रहना चाहता हूँ। एक बेहोशी मुझे चारों ओर से घेर रही है। अब मैं इस सुख से भी ऊब गया हूँ। अब मैं अपनी ध्यानजन्य अवस्था खो बैठा हूँ।

“चल बे! तुझे घर छोड़ दूँ!” श्याम ने मुझे थपकी देकर उठाया है।

“मैं ..?” मैंने आंखें खोली हैं तो हल्का सा प्रकाश भी आंखों में चुभ गया है।

मैं पल भर के लिए किंकर्तव्य विमूढ़ सा सोचता रहा हूँ कि आंखें खोलूं या नहीं! अचानक ये किनारों पर खड़ी पराजय मेरे पास कहां से चली आई?

“चल बे! बहुत हो गया!” श्याम ने एक और थपकी देकर मेरी नींद छांट दी है।

बरबस मैंने आंखें खोल दी हैं। अब भी कुछ लोग बेहोशी की नींद में पड़े हैं। लेकिन मेरे अपने दोस्तों में से एक भी नहीं है। हां जूली मुझे घूरे जा रही है। वह अभी तक नहीं गई है। वह सहारा लिए लिए खड़ी खड़ी अभी भी किसी सहारे की ताक में है। मैं उससे चाहकर भी हैलो नहीं बोल पाया हूँ। श्याम ने मुझे बाहर की ओर घसीटा है। पैरों में अब भी जान का नाम तक नहीं है। शरीर भी फूलकाय लग रहा है। शायद सपनों में भाग भाग कर मैं अपने आप को पूरी तरह थका चुका हूँ।

श्याम ने मुझे गाड़ी में ला पटका है। जूली चल कर पीछे आकर चुपचाप बैठ गई है।

“हैलो बेबी?” श्याम ने उससे प्रश्न वाचक स्वर में पूछा है कि उसका अभिप्राय क्या है?

“दलीप के साथ मुझे भी छोड़ दो!” उसने सरल भाव से कहा है।

“जगह खाली नहीं है!” श्याम ने तनिक कठोरता पूर्वक कहा है। श्याम को मेरी राय की मानो जरूरत ही न थी। वैसे शायद मैं ना न कहता पर अब हां करने का मतलब श्याम की बात पर प्रश्न लगाना था। अत: मैं चुपचाप मुड़ कर जूली की डरी डरी आंखों में वो खोज रहा था जो शायद बानी की आंखों में नहीं होता है।

“फिर कभी सही प्रिंस!” जूली ने मुझसे कहा है और गाड़ी से उतर गई है।

“इन लोगों को कभी मुंह मत लगाना!” श्याम ने मुझे सुझाव दिया है।

मैं चुपचाप गाड़ी में पड़ा रहा हूँ। सोच रहा हूँ – करूंगा तो मैं वही जो मैं चाहता हूँ!

मेजर कृपाल वर्मा

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